ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नि दु॑रो॒णे अ॒मृतो॒ मर्त्या॑नां॒ राजा॑ ससाद वि॒दथा॑नि॒ साध॑न्। घृ॒तप्र॑तीक उर्वि॒या व्य॑द्यौद॒ग्निर्विश्वा॑नि॒ काव्या॑नि वि॒द्वान्॥
स्वर सहित पद पाठनि । दु॒रो॒णे । अ॒मृतः॑ । मर्त्या॑नाम् । राजा॑ । स॒सा॒द॒ । वि॒दथा॑नि । साध॑न् । घृ॒तऽप्र॑तीकः । उ॒र्वि॒या । वि । अ॒द्यौ॒त् । अ॒ग्निः । विश्वा॑नि । काव्या॑नि । वि॒द्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि दुरोणे अमृतो मर्त्यानां राजा ससाद विदथानि साधन्। घृतप्रतीक उर्विया व्यद्यौदग्निर्विश्वानि काव्यानि विद्वान्॥
स्वर रहित पद पाठनि। दुरोणे। अमृतः। मर्त्यानाम्। राजा। ससाद। विदथानि। साधन्। घृतऽप्रतीकः। उर्विया। वि। अद्यौत्। अग्निः। विश्वानि। काव्यानि। विद्वान्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
योऽमृतो विद्वान् दुरोणे मर्त्यानां घृतप्रतीकोऽग्निरुर्विया व्यद्यौदिव विश्वानि विदथानि काव्यान्यधीत्य सर्वहितं साधन् मर्त्यानां राजा निषसाद सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्यः ॥१८॥
पदार्थः
(नि) नितराम् (दुरोणे) गृहे (अमृतः) आत्मारूपेण मृत्युधर्मरहितः (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (राजा) न्यायाधीशः (ससाद) सीदेत् (विदथानि) विज्ञानानि (साधन्) साध्नुवन् (घृतप्रतीकः) घृतमाज्यं प्रतीकं प्रदीपकं यस्य सः (उर्विया) पृथिव्याम् (वि) (अद्यौत्) प्रकाशते (अग्निः) पावक (विश्वानि) सर्वाणि (काव्यानि) कविभिः क्रान्तप्रज्ञैर्विद्वद्भिर्निर्मितानि (विद्वान्) ॥१८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निः सूर्यरूपेण सर्वं प्रकाशयति तथा पूर्णविद्यो राजा धर्मेण प्रजाः संपाल्य विद्याः प्रकाशयति स सर्वैस्सत्कर्त्तव्यः कथन्न भवेत्? ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (अमृतः) आत्मरूप से मृत्यु धर्मरहित (विद्वान्) विद्वान् (दुरोणे) घर में (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के बीच (घृतप्रतीकः) घृत जिसका प्रकाश करनेवाला (अग्निः) वह अग्नि (उर्विया) पृथिवी पर (वि, अद्यौत्) विशेषता से प्रकाशित होते हुए के समान (विश्वानि) समस्त (विदथानि) विज्ञानों वा (काव्यानि) विशेष आक्रमण करती हुई बुद्धियोंवाले विद्वानों के बनाए शास्त्रों का अध्ययन कर सबका हित (साधन) सिद्ध करते हुए मनुष्यों के बीच (निषसाद) स्थिर हो वह हम लोगों को सत्कार करने योग्य है ॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि सूर्यरूप से सबको प्रकाशित करता है, वैसे पूर्ण विद्यायुक्त सभापति राजा धर्म से प्रजाजनों की अच्छे प्रकार पालना कर विद्याओं का प्रकाश करता है, वह सबको सत्कार करने योग्य कैसे न हो ॥१८॥
विषय
घर के राजा प्रभु
पदार्थ
[१] (अमृतः) = वे अविनाशी प्रभु (मर्त्यानाम्) = जन्म-मरण के चक्र में फँसे हुए मनुष्यों के (दुरोणे) = गृह में (राजा) = दीप्ति के देनेवाले होकर (नि ससाद) = विराजमान हैं। प्रभु इस शरीर-रथ में प्रकाश के समान हैं। हृदयस्थरूपेण वे (विदथानि) = ज्ञानों को (साधन्) = सिद्ध कर रहे हैं। प्रभु कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान हमें निरन्तर देते हैं । [२] (घृतप्रतीकः) = दीप्त अंगोंवाले, सर्वतः दीप्त वे प्रभु (उर्विया व्यद्यौत्) = अत्यन्त ही घोतित होते हैं। वे प्रभु प्रकाश ही प्रकाश हैं। (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (विश्वानि काव्यानि विद्वान्) = सब ज्ञानों को जानते हैं। सर्वज्ञता के नाते कोई भी बात उनसे छिपी नहीं। सब तत्त्वों के ज्ञाता होते हुए वे प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में इस ज्ञान को अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों में स्थापित करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – प्रभु सर्वज्ञ हैं। हमारे हृदयों में स्थित हुए हुए हमें अन्तः प्रकाश प्राप्त कराते हैं। इस शरीरगृह के वे ही राजा - दीप्त करनेवाले हैं।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
(घृतप्रतीकः अग्निः) घी से प्रज्वलित होने वाले अग्नि या तेज से चमकने वाले सूर्य के समान (अग्निः) अग्रणी, तेजस्वी (राजा) राजा, प्रधान पुरुष (विश्वानि काव्यानि विद्वान्) विद्वानों के द्वारा ज्ञात सभी ज्ञानों को जानता हुआ और (विदथानि) प्राप्त करने योग्य ऐश्वर्यो को, संग्रामों और यज्ञों को (साधन) साधता हुआ, (मर्त्यानां दुरोणे ) मनुष्यों के बीच विशाल घर में (अमृतः) अमृत अर्थात् मृत्यु-धर्म से रहित, दीर्घायु होकर (नि ससाद) विराजे, और (उर्विया) पृथिवी में (वि अद्यौत्) विशेष रूप से सूर्य के समान प्रकाशित हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी सूर्यरूपाने सर्वांना प्रकाशित करतो तसा विद्वान राजा धर्माने प्रजेचे चांगल्या प्रकारे पालन करून विद्येचा प्रसार करतो. त्याचा सत्कार सर्वांनी का करू नये? ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Immortal Agni, lord of light and ruler of the world, abides in the home of immortal humanity, guiding and directing their yajnic programmes to success. Fed with ghrta and rising high, he shines bright as far and wide as the earth. Agni, leader of the people, is lord of knowledge who knows the entire poetry of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of wisdom and knowledge further emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That enlightened person should be revered by us who keeps faith in the immortality of the soul. Such a person shines among men, on the earth like the fire profusely inflamed with ghee (clarified butter). He sits at his home and in the assembly like a king after, having studied all the sublime literary works the repositories of knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As Agni (in the form of the sun ) illuminates all, in the same manner, an enlightened king protects his subjects and illuminates the knowledge. Why should he not be honored by all ?
Foot Notes
(दुरोणे ) गृहे | दुरोण इति गृहनाम् (N. G. 3, 4) = At home. (विदयानि) विज्ञानानि = All sciences. (उर्विया) पृथिव्याम् । उवी इति पृथिवीनाम (N. G.1.1) = On earth.
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