ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - ज्योतिष्मतीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मं य॒ज्ञं स॑हसाव॒न् त्वं नो॑ देव॒त्रा धे॑हि सुक्रतो॒ ररा॑णः। प्र यं॑सि होतर्बृह॒तीरिषो॒ नोऽग्ने॒ महि॒ द्रवि॑ण॒मा य॑जस्व॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । य॒ज्ञम् । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । त्वम् । नः॒ । दे॒व॒ऽत्रा । धे॒हि॒ । सु॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । ररा॑णः । प्र । यं॒सि॒ । हो॒तः॒ । बृ॒ह॒तीः । इषः॑ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । महि॑ । द्रवि॑णम् । आ । य॒ज॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं यज्ञं सहसावन् त्वं नो देवत्रा धेहि सुक्रतो रराणः। प्र यंसि होतर्बृहतीरिषो नोऽग्ने महि द्रविणमा यजस्व॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। यज्ञम्। सहसाऽवन्। त्वम्। नः। देवऽत्रा। धेहि। सुऽक्रतो इति सुऽक्रतो। रराणः। प्र। यंसि। होतः। बृहतीः। इषः। नः। अग्ने। महि। द्रविणम्। आ। यजस्व॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे सहसावन् सुक्रतो अग्ने त्वं न इमं यज्ञं देवत्रा धेहि। हे होतरग्ने रराणः सन् बृहतीरिषो नः प्रयंसि स महि द्रविणमायजस्व ॥२२॥
पदार्थः
(इमम्) (यज्ञम्) रागद्वेषरहितं न्यायदयामयम् (सहसावन्) प्रशस्तबलयुक्त (त्वम्) (नः) अस्माकम् (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु (धेहि) धर (सुक्रतो) श्रेष्ठप्रज्ञ (रराणः) दाता सन् (प्र यंसि) यच्छसि (होतः) आदातः (बृहतीः) महतीः (इषः) अन्नादीनि (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) विद्वन् (महि) (द्रविणम्) धनम् (आ) (यजस्व) देहि ॥२२॥
भावार्थः
ईश्वरेण विद्वानाज्ञाप्यते यावज्जीवं तावत्त्वं विद्यायज्ञं मनुष्येषु सुतनुहि तेन पुष्कलान्यन्नधनानि सर्वेभ्यो दत्वा सुखी भव ॥२२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (सहसावन्) प्रशस्त बल और (सुक्रतो) श्रेष्ठप्रज्ञायुक्त (अग्ने) विद्वान् ! (त्वम्) आप (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) रागद्वेषरहित न्याय दयामय यज्ञ को (देवत्रा) विद्वानों में (धेहि) स्थापन करें। वा हे (होतः) ग्रहण करनेवाले विद्वान् (रराणः) दाता होते हुए आप (बृहतीः) बड़ी-बड़ी (इषः) अन्नादि सामग्रियों को (नः) हम लोगों के लिये (प्र, यंसि) देते है वह (महि) बहुत (द्रविणम्) धन को (आ, यजस्व) दीजिये ॥२२॥
भावार्थ
ईश्वर ने विद्वान् को आज्ञा दी है कि जबतक जीवे तबतक तूं विद्या यज्ञ को मनुष्यों में अच्छे प्रकार विस्तारे और पुष्कल अन्न और उससे धनों को सबके अर्थ दे के सुखी होवे ॥२२॥
विषय
यज्ञ सात्त्विक अन्न महती धन
पदार्थ
[१] हे (सहसावन्) = बलसम्पन्न ! (सुक्रतो) = उत्तम प्रज्ञावाले प्रभो ! [क्रतु-प्रज्ञा नि० ३।९] (रराणः) = उत्तम उपदेश व प्रेरणा देते हुए [रण शब्दे] (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये देवत्रा देवों की प्राप्ति के निमित्त, अर्थात् दिव्यगुणों के विकास के लिये (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को धेहि स्थापित करिये। मेरा जीवन यज्ञमय हो । इन यज्ञों से ही तो मेरे में दिव्यगुणों का विकास होगा। प्रभु से प्रेरणा प्राप्त करके मैं यज्ञों में प्रवृत्त होऊँ और सद्गुणों को प्राप्त करूँ। [२] हे (होत:) = सब कुछ देनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमारे लिये (बृहती:) = वृद्धि के कारणभूत (इष:) = अन्नों को (प्रयंसि) = दीजिये । उन अन्नों को हम प्राप्त करें जिनसे कि हमारा 'शरीर, मन व बुद्धि' सब विकास को प्राप्त करें । [३] (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो! आप (महि द्रविणम्) = महतीय द्रव्य को आयजस्व हमारे साथ संगत करिए। हमें वह धन प्राप्त हो, जो कि सुपथ से कमाया गया है, तथा जिसका संविभागपूर्वक सेवन किया जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुप्रेरणा द्वारा यज्ञों को करते हुए हम दिव्यगुणों का वर्धन करें। सात्त्विक अन्नों को प्राप्त करें तथा महतीय धन का हमें लाभ हो ।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे (सहसावन्) बलवान् पुरुष ! हे (सुक्रतो) उत्तम ज्ञान और कर्म वाले ! तू (नः) हमारे (इमं यज्ञं) इस परस्पर सुसंगत राष्ट्र को (देवत्रा) विद्वान वीर और दानशील पुरुषों के अधीन (धेहि) कर । हे (होतः) दानशील ! तू (रराणः) सदा आनन्द प्रसन्न रहता हुआ (नः) हमारी (बृहतीः) बड़ी २ (इषः) सेनाओं को (प्रयंसि) अच्छी प्रकार नियम में रख । हे (अग्ने) तेजस्विन् ! हम प्रजाओं को (महि द्रविणम्) बड़ा धन और बल (आ यजस्व) दे, प्राप्त करा । (२) हे सर्वशक्तिमन् ! प्रभो ! (यज्ञं) हमारे इस आत्मा को (देवत्रा) प्राणों के बीच सुरक्षित रख । तू हममें रमता रह। हमारी, (बृहतीः इषः यंसि) बड़ी २ कामनाएं पूर्ण कर । बड़ा भारी ऐश्वर्य, ज्ञान दे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराने विद्वानाला आज्ञा केलेली आहे की जो पर्यंत जिवंत असशील तोपर्यंत तू माणसांमध्ये विद्यायज्ञाचा चांगल्या प्रकारे विस्तार कर व सर्वांना पुष्कळ अन्न, धन देऊन सुखी हो. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This yajna of ours, of celebration and worship, O lord of power and grandeur, send up unto nature’s powers of Divinity, and establish among the generous and brilliant celebrities of humanity, wise lord of holy acts of creation and development as you are, generous and rejoicing in the holy yajnic performances of ours. Agni, lord yajaka of the universe yourself, you give abundantly to the devotees. Give us generously of great food and energy and of extensive wealth and knowledge of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The wisdom and intelligence are praised.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty and wise learned person ! do you bear this our Yajna (in the form of the philanthropic noble act), free from all attachment and reputation and full of justice and kindness shown to the enlightened truthful persons. Grant us abundant food, O acceptor of good qualities! being liberal donor give us ample wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God always ordains an enlightened person to spread the spirit of Yajna (in the form of the diffusion of knowledge). One enjoys happiness by giving ample food and wealth to all, as a resultant outcome of the spread of knowledge.
Foot Notes
(यज्ञम्) रागद्वेषरहितं न्यायदयामयम् = Yajna in the form of a benevolent act that is free from attachment and repulsion and is endowed with justice and kindness. (इष:) अन्नादीनि | अन्नं वा इषम् । कौषीतिको ब्राह्मणे २८, ५ = Food and other desirable objects.
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