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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ दे॒वाना॑मभवः के॒तुर॑ग्ने म॒न्द्रो विश्वा॑नि॒ काव्या॑नि वि॒द्वान्। प्रति॒ मर्ताँ॑ अवासयो॒ दमू॑ना॒ अनु॑ दे॒वान्र॑थि॒रो या॑सि॒ साध॑न्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒वः॒ । के॒तुः । अ॒ग्ने॒ । म॒न्द्रः । विश्वा॑नि । काव्या॑नि । वि॒द्वान् । प्रति॑ । मर्ता॑न् । अ॒वा॒स॒यः॒ । दमू॑नाः । अनु॑ । दे॒वान् । र॒थि॒रः । या॒सि॒ । साध॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ देवानामभवः केतुरग्ने मन्द्रो विश्वानि काव्यानि विद्वान्। प्रति मर्ताँ अवासयो दमूना अनु देवान्रथिरो यासि साधन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। देवानाम्। अभवः। केतुः। अग्ने। मन्द्रः। विश्वानि। काव्यानि। विद्वान्। प्रति। मर्तान्। अवासयः। दमूनाः। अनु। देवान्। रथिरः। यासि। साधन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने केतुर्मन्द्रो भवान् विश्वानि काव्यान्यधीत्य देवानां विद्वानभवस्स दमूना रथिरः साधन्संस्त्वं मर्तान्देवान्प्रत्यावासयोऽनुयासि च ॥१७॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अभवः) भव (केतुः) ज्ञानवान् (अग्ने) तीव्रबुद्धे (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (विश्वानि) (काव्यानि) कविभिर्निर्मितानि (विद्वान्) यो वेत्ति (प्रति) (मर्तान्) मनुष्यान् (अवासयः) वासय (दमूनाः) जितेन्द्रियः (अनु) (देवान्) विदुषः (रथिरः) प्रशस्ता रथा विद्यन्ते यस्य सः (यासि) प्राप्नोषि (साधन्) संसाध्नुवन्। अत्र व्यत्ययेन् शप् ॥१७॥

    भावार्थः

    यो विदुषाम्मध्ये स्थित्वा सर्वाणि शास्त्राण्यधीत्यान्यानध्यापयति स सर्वाणि सुखानि प्राप्नोति ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) तीव्र बुद्धिजन (केतुः) ज्ञानवान् (मन्द्रः) आनन्द के देनेवाले आप (विश्वानि) समस्त (काव्यानि) कवियों से निर्म्माण किये हुए शास्त्रों को अध्ययन कर (देवानाम्) देवों के बीच (विद्वान्) ज्ञानवान् (आ, अभवः) हो तथा (दमूनाः) जितेन्द्रिय (रथिरः) और प्रशंसित रथवाले (साधन्) साधना करते हुए आप (मर्तान्) मनुष्य जो (देवान्) विद्वान् उनके (प्रति) प्रति (अवासयः) निवास कराओ वा (अनु, यासि) उक्त मनुष्यों के प्रति अनुकूलता से प्राप्त होते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों के बीच स्थित हो सब शास्त्रों का अध्ययन कर औरों को अध्ययन कराता है, वह सब सुखों को प्राप्त होता है ॥१७॥

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    विषय

    देवों के रथ के सारथि प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! आप (देवानाम्) = देववृत्ति के व्यक्तियों के लिये (केतुः) = प्रज्ञापक (आ अभवः) = समन्तात् होते हैं । वस्तुतः प्रभु के मार्गदर्शन से ही ये देव बनते हैं। प्रभु की प्रेरणा सुननेवाले देव बन जाते हैं, न सुननेवाले असुर हो जाते हैं। [२] हे प्रभो! आप (मन्द्रः) = आनन्दस्वरूप हैं, उपासकों के जीवन को आनन्दमय बनानेवाले हैं। (विश्वानि) = सब (काव्यानि) = ज्ञानों को (विद्वान्) = आप जानते हैं। यह वेदरूप अजरामर काव्य आपका ही तो है। प्रति सृष्टि के प्रारम्भ में आप इसे योग्यतम व्यक्तियों के हृदयों में प्राप्त कराते हैं । [३] (दमूना:) = [दानमना: नि० ४।४] दान के मनवाले आप-जीवों के लिये सब हितकर पदार्थों को प्राप्त करानेवाले आप (मर्तान्) = सब मनुष्यों को (प्रति अवासय:) = अपने-अपने घर में उत्तम निवासवाला बनाते हैं। जिस घर में प्रभुपूजन चलता है, वहाँ योगक्षेम की तो कमी होती ही नहीं। वह घर बड़ा सुन्दर बना रहता है। [४] हे प्रभो! आप (रथिर:) = उत्तम सारथि के रूप में होकर (साधन्) = सब विजयों को सिद्ध करते हुए (देवान्) = देवों को (अनुयासि) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं। देवों के आप सारथि बनते हैं और उन्हें विजयी बनाकर उद्विष्ट स्थल पर पहुँचाते हैं, उसी प्रकार जैसे कि अर्जुन को कृष्ण ने सफलता प्राप्त करायी।

    भावार्थ

    भावार्थ- देवताओं के मार्गदर्शक प्रभु ही हैं। प्रभु इनके निवास को उत्तम बनाते हैं। प्रभु इनके रथ के सारथि होते हैं ।

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    विषय

    राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् तू (विश्वानि) समस्त (काव्यानि) क्रान्तदर्शी विद्वानों के बनाये ग्रन्थों को (विद्वान्) जानकर (देवानां) विद्वानों के बीच में (मन्द्रः) सबको आनन्द देनेवाला और (केतुः) सबको ज्ञान देनेहारा (आ अभवः) सब प्रकार से हो। और (दमूना:) मन आदि इन्द्रियों को दमन कर जितेन्द्रिय होकर (मर्त्तान्) साधारण प्रजाजनों को (प्रति अवासयः) बसा, और (रथिरः) महारथियों के बीच रमण करनेवाला, महारथी होकर तू (साधन्) सबको वश करता हुआ (देवान् अनु यासि) विजयेच्छु वीरों और दानशील तेजस्वी पुरुषों का अनुसरण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्वानांमध्ये स्थिर असतो, सर्व शास्त्रांचे अध्ययन करून इतरांना अध्ययन करण्यास प्रवृत्त करतो, तो सुखी होतो. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of the light of knowledge, noble scholar, you are brilliant among the leading lights, happy and rejoicing, master of all the poetry of divinity and humanity. Be like a restful shelter for common humanity. Self-confident and self-controlled, master of your chariot and freedom of movement, you go forward to your goal in association with noble scholars and in conformity with the powers of nature and the environment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The virtues of wisdom and knowledge.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise leader! you become a great scholar among the enlightened persons after study of all the sublime poetical work. You give great delight, or Bliss to all. Having controlled your senses, you make average human Being abode by the side of enlightened persons. Being a master of chariots, accomplishing all good works, you always follow the path of wise men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man enjoys all happiness who stays in the company of enlightened persons, studies the Shastras (spiritual books and other sciences) and teaches them to others.

    Foot Notes

    (केतु:) ज्ञानवान्। = Full or knowledge. (मन्द्रः ) आनन्दप्रद:। = Giver of great delight or bliss. It is noteworthy that in this next verse, Agni has been addressed as विश्वानि काव्यानि विद्वान् which Griffith has translated "knower of all secret wisdom", vide Hymns of the Rigveda Vol. 1, P. 317. Prof. Wilson has rendered into English "Cognizant of all sacred rites, vide Rigveda Translation Vol, 1, P. 196). In this epithet ever applicable to the inanimate material fire and yet most of these Western translators have committed the mistake of taking the material fire by the word. Rishi Dayananda was however quite justified in translating Agni as पूर्ण विद्यायुक्त (म० १६) i.e. O enlightened wise man.

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