ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पि॒तुश्चि॒दूध॑र्ज॒नुषा॑ विवेद॒ व्य॑स्य॒ धारा॑ असृज॒द्वि धेनाः॑। गुहा॒ चर॑न्तं॒ सखि॑भिः शि॒वेभि॑र्दि॒वो य॒ह्वीभि॒र्न गुहा॑ बभूव॥
स्वर सहित पद पाठपि॒तुः । चि॒त् । ऊधः॑ । ज॒नुषा॑ । वि॒वे॒द॒ । वि । अ॒स्य॒ । धाराः॑ । अ॒सृ॒ज॒त् । वि । धेनाः॑ । गुहा॑ । चर॑न्तम् । सखि॑ऽभिः । शि॒वेभिः॑ । दि॒वः । य॒ह्वीभिः॑ । न । गुहा॑ । ब॒भू॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पितुश्चिदूधर्जनुषा विवेद व्यस्य धारा असृजद्वि धेनाः। गुहा चरन्तं सखिभिः शिवेभिर्दिवो यह्वीभिर्न गुहा बभूव॥
स्वर रहित पद पाठपितुः। चित्। ऊधः। जनुषा। विवेद। वि। अस्य। धाराः। असृजत्। वि। धेनाः। गुहा। चरन्तम्। सखिऽभिः। शिवेभिः। दिवः। यह्वीभिः। न। गुहा। बभूव॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यथोधो विबभूव यथास्य धाराश्चिद्गुहा भवन्ति तथा यः पितुस्सकाशात् गर्भे स्थित्वा जनुषा प्रकटो भूत्वा शिवेभिस्सखिभिस्सह दिवो यह्वीर्न गुहा चरन्तं विवेद धेना व्यसृजत् स सुखमाप्नोति ॥९॥
पदार्थः
(पितुः) जनकस्य सकाशात् (चित्) इव (ऊधः) रात्री (जनुषा) जन्मना (विवेद) वेत्ति (वि) (अस्य) जलस्य (धाराः) प्रवाहाश्च (असृजत्) सृजेत् (वि) विशेषण (धेनाः) प्रीयमाणान्यपत्यानि इव वाचः (गुहा) गुहायाम् बुद्धौ (चरन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (सखिभिः) मित्रैः (शिवेभिः) मङ्गलकारिभिः (दिवः) विद्यादीप्तीः (यह्वीभिः) महतीभिः (न) इव (गुहा) कन्दरायाम् (बभूव) भवति ॥९॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथान्धकारे स्थितं वस्तु न दृश्यते दीपेन लभ्यते तथा पितुः शरीरे वर्त्तमानो जीवो गर्भे स्थितस्सन् न दृश्यते यदास्य जन्म भवति तदा दृश्यो जायत एवं यो मङ्गलाचारैः मित्रैस्सह विद्या गृह्णाति स आत्मानं विदित्वा महान् भवति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जैसे (ऊधः) रात्री (विबभूव) विशेषता से होती है वा जैसे (अस्य) इस जल की (धाराः) धाराओं के (चित्) समान प्रवाह (गुहा) बुद्धि में होते हैं वैसे जो (पितुः) पिता की उत्तेजना से गर्भ में स्थिर होकर (जनुषा) जन्म से प्रकट होकर (शिवेभिः) मङ्गलकारी (सखिभिः) मित्र वर्गों के साथ (दिवः) विद्या की दीप्ति जो (यह्वीः) बड़ी-बड़ी उनके (न) समान (गुहा) कन्दरा में (चरन्तम्) विचरते हुए को (विवेद) जानता है (धेनाः) प्रीयप्राण सन्तानों के समान (व्यसृजत्) विशेषता से उत्पन्न को वह सुख प्राप्त होता है ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्धकार में स्थित वस्तु नहीं दीख पड़ती, जैसे दीप से प्राप्त होती, वैसे पिता के शरीर में वर्त्तमान जीव गर्भ में स्थित हुआ नहीं दीखता और जब इसका जन्म होता है तब दीखता है। इस प्रकार जो मङ्गलाचरणों से मित्रों के साथ विद्याओं का ग्रहण करता है, वह आत्मा को जान बड़ा होता है ॥९॥
विषय
हृदयरूप गुहा में, पर गुहा में ही नहीं
पदार्थ
[१] गतमन्त्र का 'वेदरूप काव्य से वृद्धि प्राप्त करनेवाला' व्यक्ति (पितुः) = उस पालक पिता के (ऊध:) = ज्ञानदुग्ध के आधारभूत ऊधस् को (जनुषा) = शक्तियों के विकास के हेतु से विवेद प्राप्त करता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने से, वासनाओं का क्षय होकर इसकी शक्तियों का विकास होता है। यह ज्ञानदुग्ध (अस्य) = इस उपासक की (धारा:) = धारणशक्तियों को (वि असृजत्) = विशेषरूप से उत्पन्न करता है और (धेना:) = इस के अन्दर ज्ञानवाणियों को (वि) = [असृजत्] उत्पन्न करता है। 'धारा' शब्द शक्ति की सूचना देता है, तो 'धेना'- ज्ञान की । इसकी शक्ति भी बढ़ती है और ज्ञान भी बढ़ता है। इसके ब्रह्म और क्षत्र का विकास होता है । [२] इस प्रकार इस 'ऊधस्' के दो लाभों का प्रतिपादन करके सर्वमहान् लाभ का इन शब्दों में उल्लेख करते हैं कि यह ऊधस् उन परमात्मा का भी इसे दर्शन कराता है जो (गुहा चरन्तम्) = हृदयरूप गुहा में ही विचरण कर रहे हैं किनके साथ ? (शिवेभिः सखिभिः) = अपने इन जीवरूप मित्रों के साथ जो कि शिव-मंगलमय कार्यों में ही लगे हुए हैं और (दिवः यह्वीभिः) = जो ज्ञान के अपत्य व सन्तान बने हैं, अर्थात् ज्ञानप्राप्ति में निरन्तर लगे रहकर ज्ञानपुञ्ज से बन रहे हैं। ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति में लगानेवाले तथा कर्मेन्द्रियों को शिव-कार्यों में लगानेवाले व्यक्ति ही हृदय में प्रभु का दर्शन कर पाते हैं । [३] प्रभु का दर्शन अवश्य हृदय में ही होता है, पर वे प्रभु न गुहा बभूव हृदय में ही रहते हों [भू = to stay] ऐसी बात नहीं। वे सर्वव्यापक हैं। 'हृदयरूप गुहा प्रभु को अपने में समा लेती हो' ऐसी बात नहीं है।
भावार्थ
भावार्थ- वेद के अध्ययन से [क] धारणशक्ति प्राप्त होती है, [ख] ज्ञान बढ़ता है, [ग] हृदय में प्रभु का दर्शन होता है।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
(पितुः चित् ऊधः जनुषा विवेद) सबके पालक सूर्य से जिस प्रकार जन्म जल लेकर धारक मेघ उत्पन्न होता है, और वही सूर्य जिस प्रकार (अस्य धाराः वि असृजत्) इसकी जल धाराओं को उत्पन्न करता है, और (घेनाः वि) नाना गर्जनाएं भी उत्पन्न करता है उसी प्रकार यह जीव भी (जनुषा) जन्म से ही (पितुः) अपने पालक माता के (ऊधः) दुग्ध से भरे स्तन को (विवेद) प्राप्त करता और जानता है वह स्वयं (अस्य धाराः वि असृजत्) इस स्तन की धाराओं को उत्पन् करता है, (घेनाः वि) नाना चीत्कार आदि को भी उत्पन्न करता है। इसी प्रकार (शिवेभिः) कल्याणकारी (सखिभिः) सहायकों सहित (गुहा चरन्तं) गर्भ गुहा में विद्यमान, या चलते हुए उसको (दिवः यह्वीः) इच्छा, या कामना से उत्पन्न शक्तियों से कोई भी (गुहा न बभूव) गर्भाशय में उसके बराबर नहीं होता। अर्थात् गर्भाशय में बहुत से शुक्राणु होते हैं तो भी एक ही सबसे अधिक बलवान् होकर वहां स्थिति प्राप्त करता है (२) विद्वत् पक्ष में—विद्वान् शिष्य पुत्र के समान ही (पितुः) पालक आचार्य से (जनुषा) जन्म लाभ करके (ऊधः विवेद) ज्ञानरस के धारक वेद को प्राप्त करे । (अस्य धाराः विः असृजत्) उसके उपदेश की नाना वाणियों को विविध प्रकार से अभ्यास करे। (घेनाः वि) विविध विद्याओं को ग्रहण करे (शिवेभिः सखिभिः) उत्तम मित्रों सहित (गुहा) बुद्धि मार्ग में विचरते हुए (गुहा) बुद्धि द्वारा (दिवः यह्वीभिः) विद्या की दीप्तियों को प्राप्त कर (यह्वीभिः) बड़ी शक्तियों से भी (न बभूव) कोई उसे परास्त नहीं करे । वह सब से उत्तम हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी अंधारात वस्तू दिसत नाही, ती दिव्यामुळे दिसते, तसे पित्याच्या शरीरात असलेला जीव गर्भात स्थिर झाल्यावरही दिसत नाही. जेव्हा जन्म होतो तेव्हा दिसतो. याप्रकारे जो कल्याण करणाऱ्या आचरणाने मित्रांबरोबर विद्या ग्रहण करतो तो आत्म्याला जाणून मोठा होतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, light and vitality of life, knows the creator’s gift of life and life’s home by its very nature from the very birth, and that home is the cloud, the mother’s womb, the night’s darkness and the mother’s breast from where the streams of water, milk, speech and intelligence immediately flow. This Agni, living and growing in the cave of life, the mother’s womb, moving with its blessed companions and with the streams of energy flowing from heaven, doesn’t remain hidden in the cave. One who knows life moving as such knows the secret of life. One who doesn’t doesn’t.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The glory of the second birth is with knowledge is emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As night manifests itself in various ways, as there are various under hidden ideas among the intellectuals like the currents of water in the same manner, the soul having stayed in the womb niseminated by the father is manifest through birth. Such a person in the company of auspicious friends and like the luster of knowledge coupled with intelligence knows the truth of self. Such a person has truth in his inner heart, uses sweet words and enjoys happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As nothing is visible in the dark, rather it is seen with the help of the lamp, in the same manner, the soul though present in the body of the father and within the embryo is not seen. When it takes birth, only then it is visible. In the same manner. a person who acquires the knowledge of various sciences with the help of auspicious friends of noble character achieves knowledge about his own soul and God and becomes a great man.
Foot Notes
(ऊध:) रात्रिः । ऊध इति रात्रिनाम् (N.G. 1, 7) = Night. (धेना:) प्रीयमाणान्यपत्यानि इव वाचः | घेना इति वाङ्नाम | (N. G. 1, 11) = Speeches or words which please like a child. (गुहा) गुहायाम् बुद्धौ। = In the intelligence compared with a cave. (दिव:) विद्यादीप्ती:। = The luster of knowledge.
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