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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒रौ म॒हाँ अ॑निबा॒धे व॑व॒र्धापो॑ अ॒ग्निं य॒शसः॒ सं हि पू॒र्वीः। ऋ॒तस्य॒ योना॑वशय॒द्दमू॑ना जामी॒नाम॒ग्निर॒पसि॒ स्वसॄ॑णाम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रौ । म॒हान् । अ॒नि॒ऽबा॒धे । व॒व॒र्ध॒ । आपः॑ । अ॒ग्निम् । य॒शसः॑ । सम् । हि । पू॒र्वीः । ऋ॒तस्य॑ । योनौ॑ । अ॒श॒य॒त् । दमू॑नाः । जा॒मी॒नाम् । अ॒ग्निः । अ॒पसि॑ । स्वसृ॑ॠणाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरौ महाँ अनिबाधे ववर्धापो अग्निं यशसः सं हि पूर्वीः। ऋतस्य योनावशयद्दमूना जामीनामग्निरपसि स्वसॄणाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरौ। महान्। अनिऽबाधे। ववर्ध। आपः। अग्निम्। यशसः। सम्। हि। पूर्वीः। ऋतस्य। योनौ। अशयत्। दमूनाः। जामीनाम्। अग्निः। अपसि। स्वसॄणाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यथा पूर्वीरापो मेघेन वर्धन्ते तथा यशसो महाननिबाध उरावग्निं प्राप्य हि संववर्ध। यथाग्निर्ऋतस्य योनावशयत्तथा जामीनां स्वसॄणामपसि स्थिता दमूना विद्यायां वर्धते ॥११॥

    पदार्थः

    (उरौ) बाहौ (महान्) (अनिबाधे) बाधारहिते (ववर्ध) वर्धते (आपः) जलानि (अग्निम्) पावकम् (यशसः) कीर्तेः (सम्) सम्यक् (हि) खलु (पूर्वीः) प्राचीनाः (ऋतस्य) जलस्य (योनौ) कारणे (अशयत्) शेते (दमूनाः) दमनशीलाः (जामीनाम्) भोक्तॄणाम् (अग्निः) पावकः (अपसि) कर्म्मणि (स्वसॄणाम्) भगिनीनाम् ॥११॥

    भावार्थः

    यदि निर्विघ्ना विद्यार्थिनो विद्याग्रहणे प्रयत्नं कुर्युस्तदा दमशमादिगुणान्वितास्सन्तस्सर्वेषां सम्बन्धिनां विद्यासंप्रयोगं कर्तुं शक्नुयुः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जैसे (पूर्वीः) प्राचीन (आपः) जल मेघ से बढ़ते हैं वैसे (यशसः) कीर्ति से (महान्) जो बड़ा है वह (अनिबाधे) बाधा रहित (उरौ) बहुत व्यवहार में (अग्निम्) अग्नि को प्राप्त कर (हि, सं, ववर्ध) अच्छे प्रकार बढ़ता है जैसे (अग्निः) पावक (ऋतस्य) जल के (योनौ) कारण में (अशयत्) सोता है वैसे (जामीनाम्) भोगनेवाली (स्वसॄणाम्) बहिनियों के =बहिनों के (अपसि) कर्म में स्थिर होकर (दमूनाः) दमनशील जन विद्या में बढ़ता है ॥११॥

    भावार्थ

    जो निर्विघ्न विद्यार्थी विद्या के ग्रहण करने में प्रयत्न करें, तो दम और शमादि गुणयुक्त होते हुए सब सम्बन्धियों को विद्यायुक्त कर सकें ॥११॥

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    विषय

    प्रभुदर्शन के उपाय

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु महान् पूजा के योग्य हैं। वे (उरौ) = विशाल व (अनिबाधे) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं की बाधा से रहित हृदय में (ववर्ध) = वृद्धि को प्राप्त होते हैं। तंग दिलवाला व काम आदि से पीड़ित हृदयवाला व्यक्ति प्रभु का दर्शन नहीं कर पाता। वे महान् प्रभु संकुचित हृदय में आयें भी कैसे ? (यशसः) = यशस्वी जीवनवाली, (पूर्वी:) = अपना पालन व पूरण करनेवाली (आपः) = प्रजाएँ हि वही (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (सं) [ववर्ध] = अपने में सम्यक् बढ़ानेवाली होती हैं । परमात्मप्राप्ति के लिये आवश्यक है कि हम यशस्वी कर्मों को ही करें, अपने शरीर का पालन [रोगों से रक्षण] करें व मनों को न्यूनता से रहित कर उनका पूरण करनेवाले हों। मनों में वासनाओं को न अंकुरित होने दें। [२] (ऋतस्य योनौ) = ऋत के उत्पत्ति स्थान प्रभु में (दमूना:) = दान्तमनवाला सो प्रभु (अशयत्) = निवास करता है । ऋत और सत्य को प्रभु ही अपने तीव्र तप से जन्म देते हैं, ऋत के योनि हैं। अपने मन का दमन करनेवाला व्यक्ति प्रभु में निवास करता है। इस व्यक्ति के जीवन में भी सब भौतिक क्रियाएँ ऋत के अनुसार ही होती हैं । [३] वे (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (अपसि) = कर्मों में स्थित हैं। किन के कर्मों में ? (जामीनाम्) = विकास की कारणभूत [जनी प्रादुर्भावे] (स्वसृणाम्) = [स्व+सृ] आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाली वेदवाणियों के, अर्थात् जब हम इन वेदवाणियों के अनुसार कर्म करते हैं तो हमें प्रभुप्राप्ति होती है। इन वेदवाणियों से हमारे में दिव्यताओं का विकास होता है (जामि) और ये हमें आत्मतत्त्व की ओर ले चलती हैं [स्व+सृ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभुदर्शन उसे होता है [क] जो विशाल हृदयवाला है, [ख] जिसके हृदय में वासनाओं की बाधा नहीं, [ग] जो यशस्वी कर्मोंवाला है, [घ] जो अपना पालन व पूरण करता है, [ङ] जो मन का दमन करता है, [च] वेद से निर्दिष्ट कर्मों में व्याप्त होता है।

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    विषय

    राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (उरौ अनिबाधे ववर्ध) जिस प्रकार बालक बाधारहित, गोद में बढ़ता है उसी प्रकार शिष्य, विद्वान् जन (अनिबाधे) बाधा या पीड़ा से रहित, व्यर्थ दण्डित या पीड़ित न करने वाले (उरौ) अति विस्तृत ज्ञानवान्, बड़े, गुरु के अधीन रहकर (ववर्ध) बढ़े, और बालक को जिस प्रकार (पूर्वीः आपः यशसः सं वर्धयन्ति) पूर्व उत्पन्न आप्त बन्धुजन अन्न से बढ़ाती है उसी प्रकार (पूर्वीः) पूर्व विद्वानों से प्राप्त एवं सुपरीक्षित (आपः) आप्त विद्याएं (अग्निं) अग्रणी, आगे बढ़ने वाले ज्ञानवान् पुरुष को (यशसः) बल, और कीर्ति से (सं ववर्ध हि) अवश्य बढ़ाती हैं । वह (दमूनाः) शम दम आदि से जितेन्द्रिय चित्त होकर (ऋतस्य योनौ) धन, अन्न से पूर्ण घर में बालक के समान स्वयं (ऋतस्य योनौ) सत्य ज्ञान के आश्रय परम प्रभु में (अशयत्) सोवे, विश्राम करे, उसी में रमे, और बालक जिस प्रकार (जामीनां स्वसॄणाम् अपसि) सन्तान उत्पन्न करने वाली, भगिनियों, माताओं के दूध पर पुष्ट होता है उसी प्रकार वह विद्वान् पुरुष भी (जामीनाम्) स्वयं अन्नादि ऐश्वर्य को भोग करने वाली (स्वसॄणाम्) स्वयं अपने २ मार्ग या व्यवसाय उद्योग में जाने वाली प्रजाओं के (अपसि) कार्य व्यवहार के आश्रय पर बढ़े।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर विद्यार्थी निर्विघ्नपणे विद्या ग्रहण करण्याचा प्रयत्न करतील तर त्यांचे दम-शम इत्यादी गुण वाढून ते सर्व नातेवाईकांना विद्यायुक्त करू शकतील. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, mighty spirit and vitality of life, grows in the lap of nature, vast and irresistible creative power of Divinity, where the streams of ancient waters flowing together feed it to bloom, expand and continue. Agni, the fire of life, lies in the womb of nature and her cosmic laws of evolution, assertive and inviolable yet subject to the laws, a darling of the karmic flow of the twin powers of heaven and earth, father and mother of the baby in the process of procreation.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the rainwater supplements the previous stock of water, so the reputed great man grows well having got fire (knowledge) in the un-disturbed (un-bounded) great dealings. The fire (hydro-electric) is the cause of the water (hidden in it, so to speak), likewise a student of self-abnegation grows in knowledge and wisdom. It lives in the works of one who enjoys the happiness of the sisters. (Serving them and co-operating with them in the dis charge of his duties, being a man of peaceful and loving disposition like his sisters.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Foot Notes

    (उरौ ) बाहौ (व्यवहारे) । उरु इति बाहुनाम (N G. 3, 1,) = In various kinds of dealing. (दमूना:) दमनशीलाः। = A man of self-control. (जामीनाम्) भोक्तृणाम् । = Of those who enjoy happiness. (अपसि) कर्म्मणि। = In the action.

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