ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ईळे॑ च त्वा॒ यज॑मानो ह॒विर्भि॒रीळे॑ सखि॒त्वं सु॑म॒तिं निका॑मः। दे॒वैरवो॑ मिमीहि॒ सं ज॑रि॒त्रे रक्षा॑ च नो॒ दम्ये॑भि॒रनी॑कैः॥
स्वर सहित पद पाठईळे॑ । च॒ । त्वा॒ । यज॑मानः । ह॒विःऽभिः॑ । ईळे॑ । स॒खि॒ऽत्वम् । सु॒ऽम॒तिम् । निऽका॑मः । दे॒वैः । अवः॑ । मि॒मी॒हि॒ । सम् । ज॒रि॒त्रे । रक्ष॑ । च॒ । नः॒ । दम्ये॑ऽभिः । अनी॑कैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईळे च त्वा यजमानो हविर्भिरीळे सखित्वं सुमतिं निकामः। देवैरवो मिमीहि सं जरित्रे रक्षा च नो दम्येभिरनीकैः॥
स्वर रहित पद पाठईळे। च। त्वा। यजमानः। हविःऽभिः। ईळे। सखिऽत्वम्। सुऽमतिम्। निऽकामः। देवैः। अवः। मिमीहि। सम्। जरित्रे। रक्ष। च। नः। दम्येऽभिः। अनीकैः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 15
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यजमानोऽहं देवैर्हविर्भिश्च यं त्वा विद्वांसं समीळे निकामः सन् सखित्वं सुमतिमीळे स त्वं जरित्रे मह्यमवो मिमीहि दम्येभिरनीकैर्नोऽस्माँश्च रक्ष ॥१५॥
पदार्थः
(ईळे) अध्येषयामि स्तौमि वा (च) (त्वा) त्वाम् (यजमानः) संगन्ता (हविर्भिः) आदातुमर्हैः साधनैः (ईळे) (सखित्वम्) सख्युर्भावम् (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (निकामः) निश्चितकामनः (देवैः) विद्वद्भिः सह (भवः) रक्षणादिकम् (मिमीहि) सम्पादय (सम्) (जरित्रे) स्तावकाय (रक्ष) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (च) (नः) अस्मान् (दम्येभिः) दातुं योग्यैः (अनीकैः) सैन्यैः ॥१५॥
भावार्थः
मनुष्यैः प्रथमः श्रेष्ठोऽध्यापकोऽन्वेष्यस्तस्मात्सर्वेषाम्पदार्थानां विद्या अन्वेष्यास्ततो विचारः पुनः साक्षात्कारोऽतः परमुपयोगः कर्तव्यः ॥१५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यजमानः) सब विद्या गुणों का संग करनेवाला मैं (देवैः) विद्वानों के साथ (च) और (हविर्भिः) ग्रहण करने योग्य साधनों से जिन (त्वा) आप विद्वानों की (सम् ईळे) सम्यक् स्तुति करता हूँ वा (निकामः) निश्चित कामनावाला होता हुआ (सखित्वम्) मित्रपन वा (सुमतिम्) सुन्दर बुद्धि की (ईळे) प्रशंसा करता हूँ वह आप (जरित्रे) स्तुति करनेवाले मेरे लिये (अवः) रक्षा आदि को (मिमीहि) उत्पन्न करो (दम्येभिः) दमन करने योग्य (अनीकैः) सेनाजनों के साथ (नः) हम लोगों की (च) भी (रक्ष) रक्षा करो ॥१५॥
भावार्थ
मनुष्यों को प्रथम श्रेष्ठ अध्यापक ढूँढना चाहिये और फिर उससे समस्त विद्याओं को ढूँढना चाहिये तदनन्तर विचार पीछे साक्षात्कार अर्थात् प्रत्यक्ष करना उसके परे उपयोग करना चाहिये ॥१५॥
विषय
उपासना का प्रकार व लाभ
पदार्थ
[१] मन्त्र का पूर्वार्ध उपासना के प्रकार का उल्लेख करता है और मन्त्र का उत्तरार्ध उपासना के फल का। हे प्रभो ! (यजमानः) = यज्ञशील पुरुष (हविर्भि:) = त्यागपूर्वक अदन द्वारा गतमन्त्र के यज्ञशेष के सेवन व अमृतदोहन द्वारा त्वा ईडे- आपकी उपासना करता है। 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' हवि द्वारा ही तो आपका उपासन होता है। (२) च और वह व्यक्ति ईडे आपकी उपासना करता है जो (सखित्वम्) = सखित्व को तथा (सुमतिम्) = सुमति को कल्याणी मति को (निकाम:) = नितरां चाहनेवाला होता है। प्रभु का सच्चा उपासन यही है कि [क] हम यज्ञशील हों, [ख] सब के सखा बनकर रहें-विशेषत: इस (सखित्व) = से प्रभु के सखा बनने की कामनावाले हों, [ग] सदा शुभ बुद्धि की प्रार्थना करें। [३] हे प्रभो! आप इस (जरित्रे) = स्तोता के लिये (देवैः) = सूर्यादि देवों से (अव:) = रक्षण को (सं मिमीहि) = सम्यक्तया निर्मित करिए। सब सूर्यादि देव हमारे अनुकूल हों। इन जलवायु आदि देवों की अनुकूलता से हमारा स्वास्थ्य ठीक हो । (च) = और आप (दम्येभिः) = पूर्णरूप से नियन्तव्य (अनीकैः) = बलों द्वारा रक्षा हमारी रक्षा करिए। हमें शक्ति प्राप्त कराईए । वह शक्तिपूर्ण रूप से हमारे नियन्त्रण में हो। यही नियन्त्रित शक्ति ही तो हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाएगी।
भावार्थ
भावार्थ- उपासना का प्रकार यह है कि–[क] हम यज्ञशील बनें, [ख] सखा बनें, [ग] उत्तम बुद्धि की कामनावाले हों। उपासना का लाभ यह है कि- [क] सूर्य जल वायु आदि सब देव हमारे अनुकूल होंगे, [ख] तथा हमें नियन्त्रित शक्ति प्राप्त होगी जिससे कि हम लक्ष्यस्थान पर पहुँच सकेंगे।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! प्रभो ! मैं (यजमानः) तुझे प्राप्त होने और कर आदि देने वाला प्रजाजन (त्वा) तुझको (हविर्भिः) स्वीकार करने योग्य नाना ऐश्वर्यो सहित (ईले) आदर करता और मानपद प्रदान करता हूं। (निकामः) तुझे खूब चाहता हुआ, तुझ से (सुमतिम्) शुभ मति, उत्तम ज्ञान और (सखित्वम्) तेरी मित्रता (ईले) चाहता हूं । (जरित्रे) स्तुतिकर्त्ता, विद्वान् जन के हितार्थ (देवैः) विद्वान् पुरुषों और विजयेच्छुक वीर पुरुषों द्वारा (अवः) रक्षा आदि उपाय (सं मिमीहि) अच्छी प्रकार कर । और (दम्येभिः) दमन करने योग्य (अनीकैः) सैन्यों से (नः रक्ष) हमारी रक्षा कर। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी प्रथम श्रेष्ठ अध्यापक शोधला पाहिजे. नंतर सगळ्या विद्येत संशोधन केले पाहिजे. त्यानंतर चिंतन व नंतर साक्षात्कार अर्थात् प्रत्यक्ष व प्रत्यक्षानंतर कृती केली पाहिजे. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
As a dedicated devotee performing yajna, I praise, worship and pray to you, Agni, light of life, with the offer of fragrant materials. With honest mind and sincere desire, I worship you and pray for friendship and comradeship and for holy understanding and vision. Lord of light and power, bring shelter and protection for the celebrant alongwith devas, brilliancies of nature and humanity. Save us all with the inviolable glory of your light and lustre.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Importance of wisdom and knowledge is highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble teacher ! I perform the Yajna and add praise to you with acceptable means. Desirous of your favor, I implore your friendship and good intellect. Grant protection to me who is your admirer along with other enlightened persons. Whenever necessary, guard me with your disciplined men of the army.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should first of all search for the best and the noblest teacher. They should seek all knowledge from him and reflect upon it, so as to have a clear perception. Then they should utilize their knowledge well.
Foot Notes
(यजमान:) संगन्ता = Unifier, a performer of the Yajna. (non-violent sacrifice ) (अनीकै:) सैन्यै: = With men of the army.
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