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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स तू नो॑ अ॒ग्निर्न॑यतु प्रजा॒नन्नच्छा॒ रत्नं॑ दे॒वभ॑क्तं॒ यद॑स्य। धि॒या यद्विश्वे॑ अ॒मृता॒ अकृ॑ण्व॒न्द्यौष्पि॒ता ज॑नि॒ता स॒त्यमु॑क्षन् ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । तु । नः॒ । अ॒ग्निः । न॒य॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । अच्छ॑ । रत्न॑म् । दे॒वऽभ॑क्तम् । यत् । अ॒स्य॒ । धि॒या । यत् । विश्वे॑ । अ॒मृताः॑ । अकृ॑ण्वन् । द्यौः । पि॒ता । ज॒नि॒ता । स॒त्यम् । उ॒क्ष॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स तू नो अग्निर्नयतु प्रजानन्नच्छा रत्नं देवभक्तं यदस्य। धिया यद्विश्वे अमृता अकृण्वन्द्यौष्पिता जनिता सत्यमुक्षन् ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। तु। नः। अग्निः। नयतु। प्रजानन्। अच्छ। रत्नम्। देवऽभक्तम्। यत्। अस्य। धिया। यत्। विश्वे। अमृताः। अकृण्वन्। द्यौः। पिता। जनिता। सत्यम्। उक्षन्॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा सोऽस्य पिता जनिता द्यौरग्निः परमात्मा धिया सर्वं प्रजानन् नोऽस्मान् यद्देवभक्तं रत्नमच्छ नयति तथा भवान्नयतु। यद्यस्मिँस्तु विश्वेऽमृताः सत्यमुक्षँस्तु मोक्षमकृण्वन् तत्रैव स्थित्वा सत्यं सेवित्वा धर्म्मेण राज्यं सम्पाल्य मोक्षमाप्नुहि ॥१०॥

    पदार्थः

    (सः) (तु) पुनः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्निः) स्वप्रकाशः परमात्मेव राजा (नयतु) प्रापयतु (प्रजानन्) (अच्छ) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रत्नम्) रमणीयं धनम् (देवभक्तम्) देवैः सेवितम् (यत्) (अस्य) जगतः (धिया) प्रज्ञया (यत्) यस्मिन् (विश्वे) (अमृताः) जन्ममृत्युरहिता जीवाः (अकृण्वन्) कुर्वन्ति (द्यौः) प्रकाशमानः (पिता) पालकः (जनिता) जनकः (सत्यम्) (उक्षन्) सेवन्ते ॥१०॥

    भावार्थः

    हे राजादयो मनुष्या ! यथा सर्वस्य जगतः पिता जनः परमात्मा दयया सर्वेषां जीवानां सुखाय विविधान् पदार्थान् रचयित्वा दत्वाऽभिमानं न करोति तथैव यूयं भवत। ईश्वरस्य सद्गुणकर्म्मस्वभावैस्तुल्यान्त्स्वगुणकर्म्मस्वभावान् कृत्वा राज्यादिकं पालयित्वाऽन्ते मोक्षमाप्नुत ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (सः) वह (अस्य) इस संसार का (पिता) पालन करने और (जनिता) उत्पन्न करनेवाला (द्यौः) प्रकाशमान (अग्निः) अपने से प्रकाशरूप परमात्मा के सदृश राजा (धिया) बुद्धि से सब को (प्रजानन्) जानता हुआ (नः) हम लोगों को (यत्) जो (देवभक्तम्) देवों से सेवित (रत्नम्) सुन्दर धन को (अच्छ) उत्तम प्रकार प्राप्त कराता है, वैसे आप (नयतु) प्राप्त कराइये (यत्) जिसमें (तु) फिर (विश्वे) सब (अमृताः) जन्म और मृत्यु से रहित जीव (सत्यम्) सत्य का (उक्षन्) सेवन करते हुए मोक्ष को (अकृण्वन्) करते हैं, वहाँ ही स्थित हो और सत्य का सेवन और धर्म से राज्य का पालन करके मोक्ष को प्राप्त होइये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे राजा आदि मनुष्यों ! जैसे सब जगत् का पालन और उत्पन्न करनेवाला परमात्मा दया से सब जीवों के सुख के लिये अनेक प्रकार के पदार्थों को रच और दे के अभिमान नहीं करता है, वैसे ही आप लोग होइये और ईश्वर के उत्तम गुण, कर्म्म और स्वभावों के तुल्य अपने गुण, कर्म्म और स्वभावों को करके राज्य आदि का पालन करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त होओ ॥१०॥

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    विषय

    देवों से सेवनीय रत्न

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (तु) = निश्चय से (नः) = हमें (प्रजानन्) = प्रकर्षेण जानता हुआ (रत्नं अच्छा) = उस रत्न की ओर (नयतु) = ले चले (यद्) = जो (अस्य) = इसका (देवभक्तम्) = देवों से सम्भजनीय रत्न है। शरीर में सप्त धातुएँ ही 'सप्त रत्न' कहलाती हैं। विशेषकर अन्तिम धातु 'वीर्य' तो मणि नाम से ही प्रसिद्ध है। देव लोग इसे अपने अन्दर सुरक्षित रखते हैं। प्रभु कृपा से हम भी इसे अपने अन्दर सुरक्षित करनेवाले हों। [२] (यद्) = जिस रत्न को (विश्वे) = सब (अमृता:) = विषयों के पीछे न मरनेवाले लोग (धिया) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा (अकृण्वन्) = अपने अन्दर सम्पादित करते हैं । ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगे रहना ही उस रत्न के सम्पादन का साधन बनता है। इन कर्मों में प्रवृत्ति मनुष्य को वासनाओं के आक्रमण से बचाती है और उसे इस रत्न [वीर्य] की रक्षा के योग्य करती है। [३] (द्यौः) = ज्ञान के प्रकाश से युक्त (पिता) = पिता व (जनिता) = माता [जनित्री] (सत्यम्) = इस सत्ता के कारणभूत सोमरूप रत्न को [वीर्य को] (उक्षन्) = शरीर में ही सिक्त करते हैं। माता-पिता जितना इस रत्न का रक्षण करते हैं, उतना ही उनके सन्तानों में भी इस रत्न के रक्षण का सम्भव होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से हम देवों से सेवनीय वीर्यरूप रत्न को शरीर में ही सुरक्षित करें। ज्ञानी माता-पिता इस सत्य रत्न का अपने शरीरों में ही सेचन करते हुए सन्तानों को भी इसके रक्षण की प्रवृत्तिवाला बनायें ।

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    विषय

    अग्नि, अग्रणी का यथार्थ कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (सः) वह ( अग्निः ) अग्रणी नायक, तेजस्वी राजा विद्वान् ( यत् ) जो ( अस्य ) इस संसार का ( देवभक्तं ) देव, विद्वान् और अभिलाषुक जीव के सेवन करने योग्य ( अच्छ रत्नं ) रमणीय ऐश्वर्य, जीवन सुख आदि पदार्थ है उसकी ओर ( प्रजानन् ) अच्छी प्रकार ज्ञानवान् वह (नः) हमें ( तु नयतु ) शीघ्र ही ले जावे। जिसको ( विश्वे अमृताः ) समस्त अमृत, जीवगण ( धिया अकृण्वन् ) बुद्धिपूर्वक बिचार करते हैं ( द्यौः ) ज्ञान प्रकाश से युक्त ( पिता ) पालक, आचार्य ( जनिता ) उत्पन्न करने वाली माता और पिता के तुल्य शिष्य को उत्पन्न करने वाला आचार्य भी जिसको ( सत्यम् ) सत्य ज्ञान से सेचन करे और बढ़ावे ( २ ) परमेश्वर पक्षमें—वह सबसे उत्कृष्ट ज्ञानवान् उत्तम ऐश्वर्यं हमें दे। उस प्रभु को समस्त मुक्त जीवगण ध्यान करते, पिता माता आचार्य आदि सत्य स्वरूप करके धारण करते और अन्यों को उसका उपदेश करते हैं । इति त्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजांनो! जसे जगाचे पालन व उत्पन्न करणारा परमात्मा दयार्द्रतेने सर्व जीवांच्या सुखासाठी अनेक प्रकारचे पदार्थ निर्माण करून देतो व अभिमान करीत नाही तसेच तुम्ही व्हा. ईश्वराच्या उत्तम कर्म स्वभावाप्रमाणे आपले गुण, कर्म, स्वभाव बनवून राज्य इत्यादीचे पालन करून शेवटी मोक्ष प्राप्त करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And may that Agni, leader and lord ruler, knowing everything full well, lead us to that valuable jewel wealth of this world, loved, coveted and enjoyed by the brilliant divinities which the immortals of all the world with their skill and intelligence created and which the heaven and father creator showered and consecrated as real and true.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of learned persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! the Resplendent God, Who is the Creator and Father of the world, knowing all with His Infinite Wisdom, leads us towards the attainment of all charming wealth, enjoyed by the enlightened persons. So you should also do. You should always dwell in (meditate upon) that God in Whom all immortal and imperishable souls dwell and attain emancipation by following the path of truth. You should also observe truthfulness and attain final emancipation by administering the State on right lines.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and other people! you should also act like God, Who is the Creator and Preserver of the world, makes and awards various articles for the welfare of all souls, without seeking any obligation. You should try to imbibe as far as possible the noble merits, actions and nature of God, preserve your State well and finally attain emancipation.

    Foot Notes

    (अग्नि:) स्वप्रकाश: परमात्मेव राजा । ब्रह्मा अग्नि: । (Stph. 1, 3, 3, 19 ) ब्रह्म वा अग्निः । = (Kaushitaki Brahmana 9/1, 5/12, 8 Taittariya 3, 9, 16, 3) A king who should be like self-effulgent God. (अमृताः) जन्ममृत्युरहिता जीवाः । = Immortal souls. The epithets प्रजानान् used for Agni has been translated by Prof. Wilson as wise, while Griffith as “He (Agni) knows the way. It makes clear that Agni is not meant in material form for fire, but a conscious being (Primarily God).

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