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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स दू॒तो विश्वेद॒भि व॑ष्टि॒ सद्मा॒ होता॒ हिर॑ण्यरथो॒ रंसु॑जिह्वः। रो॒हिद॑श्वो वपु॒ष्यो॑ वि॒भावा॒ सदा॑ र॒ण्वः पि॑तु॒मती॑व सं॒सत् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । दू॒तः । विश्वा॑ । इत् । अ॒भि । व॒ष्टि॒ । सद्म॑ । होता॑ । हिर॑ण्यऽरथः । रम्ऽसु॑जिह्वः । रो॒हित्ऽअ॑श्वः । व॒पु॒ष्यः॑ । वि॒भाऽवा॑ । सदा॑ । र॒ण्वः । पि॒तु॒मती॑ऽइव । सं॒सत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स दूतो विश्वेदभि वष्टि सद्मा होता हिरण्यरथो रंसुजिह्वः। रोहिदश्वो वपुष्यो विभावा सदा रण्वः पितुमतीव संसत् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। दूतः। विश्वा। इत्। अभि। वष्टि। सद्म। होता। हिरण्यऽरथः। रम्ऽसुजिह्वः। रोहित्ऽअश्वः। वपुष्यः। विभाऽवा। सदा। रण्वः। पितुमतीऽइव। सम्ऽसत्॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यो हिरण्यरथो रंसुजिह्वो रोहिदश्वो वपुष्यो विभावा रण्वो होता सन् राजा दूत इव विश्वा सद्माऽभि वष्टि स इत् संसत् पितुमतीव सदोन्नतिशीलो भवति ॥८॥

    पदार्थः

    (सः) (दूतः) यो दुनोति दुष्टान् परितापयति सः (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (अभि) (वष्टि) कामयते (सद्म) सद्मान्युत्तमानि कर्माणि स्थानानि वा (होता) दाता आदाता वा (हिरण्यरथः) तेजोमयरमणीयस्वरूपस्सूर्य इव रथो व्यवहारो यस्य सः (रंसुजिह्वः) रमणीयवाक् (रोहिदश्वः) रोहिता रक्तादिगुणविशिष्टा अग्न्यादयोऽश्वा आशुगामिनो यस्य सः (वपुष्यः) वपुष्षु रूपेषु भवः (विभावा) विभववान् (सदा) (रण्वः) रमणीयस्वरूपः (पितुमतीव) प्रशंसितबह्वन्नाद्यैश्वर्य्ययुक्तेव (संसत्) सम्राट्सभा ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा दूता राज्ञां हितं चिकीर्षन्ति तथैव ये राजानः प्रजाहितं सततं कुर्वन्ति ते नृपाः सभासदश्च पुण्यभाजो भवन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (हिरण्यरथः) तेजोमय सुन्दर स्वरूपयुक्त सूर्य्य के सदृश जिसका व्यवहार (रंसुजिह्वः) सुन्दर जिसकी वाणी (रोहिदश्वः) जिसके रक्त आदि गुणों से विशिष्ट अग्नि आदिक घोड़े शीघ्र चलनेवाले वह (वपुष्यः) रूपों में प्रसिद्ध (विभावा) ऐश्वर्य्यवान् (रण्वः) सुन्दर स्वरूपयुक्त (होता) देने वा लेनेवाला होता हुआ राजा (दूतः) दुष्टों को सन्ताप देते हुए के सदृश (विश्वा) सब (सद्म) उत्तम कर्म वा स्थानों की (अभि, वष्टि) कामना करता है (सः) वह (इत्) ही (संसत्) चक्रवर्तियों की सभा (पितुमतीव) जो कि प्रशंसित बहुत अन्न आदि ऐश्वर्य्य से युक्त उसके सदृश (सदा) सब काल में उन्नतिशील होता है ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार हैं। जैसे दूतजन राजाओं के हित करने की इच्छा करते हैं, वैसे ही जो राजाजन प्रजा का हित निरन्तर करते हैं, वे राजा और सभासद् पुण्य के भजनेवाले होते हैं ॥८॥

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    विषय

    रमणीय जीवन

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह (दूतः) = ज्ञान-सन्देश को देनेवाला प्रभु (विश्वा इत्) = सब ही (सद्मा) = गृहों को (अभिवष्टि) = चाहता है, अर्थात् 'प्रभु किसी घर को प्यार करें, किसी को नहीं' ऐसी बात नहीं है। यह ठीक है कि उस प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान को कोई सुनता है और कोई नहीं। [२] जो सुनता है, वह (होता) = दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाला बनता है। (हिरण्यरथः) = ज्योतिर्मय रथवाला होता है। (रंसुजिह्वः) = रमणीय जिह्वावाला होता है, सदा मधुर शब्द बोलता है। यह व्यक्ति (रोहिदश्वः) = प्रवृद्ध शक्तिवाले इन्द्रियाश्वोंवाला होता है । (वपुष्य:) = उत्तम शरीरवाला, (विभावा) = विशिष्ट ज्ञान दीप्तिवाला सदा (एव:) = यह सदा रमणीय होता है। इस प्रकार रमणीय जीवनवाला होता है (इव) = जैसे कि (पितृमती) = अन्नवाला (संसत्) = घर । अन्न से परिपूर्ण गृह सदा सुन्दर लगता है। इसी प्रकार इसका जीवन भी सदा सुन्दर होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें प्यार करते हुए वेदज्ञान देते हैं। यदि इस ज्ञान को हम सुनते हैं तो हमारा जीवन अत्यन्त रमणीय बनता है।

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    विषय

    दीपकवत् मार्गदर्शी, और भवनवत् सर्वरक्षक राजा का स्वरूप ।

    भावार्थ

    (सः) वह विद्वान् पुरुष, उत्तम नायक, ( दूतः ) शत्रुओं का संतापक, सज्जनों का सेवक, ( विश्वा सद्मा अभि वष्टि ) सूर्य, दीपक वा अग्नि के समान ही सब गृहों, लोकों और पदों को चमकाता है, वह( हिरण्यरथः ) लोह, सुवर्णादि के बने रथ वाला, हितकारी, रमणीय, रूपवान् ( रंसुजिह्वः ) रम्य, मधुर वाणी बोलने हारा, ( रोहित-अश्वः ) रक्त वर्ण के वेगवान् घोड़ों वा अग्नि आदि साधनों वाला, ( वपुष्यः ) उत्तम देह, रूपवान् ( विभावा ) कान्तिमान् ( सदा ) नित्य ( रण्वः ) रमणीय, सुन्दर और ( पितुमती इव ) अन्नादि वा पालक सभापति से समृद्ध ( संसत् ) सभा, या भवन के समान सबका पालक हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे दूत राजांच्या हिताची इच्छा ठेवतात तसेच जे राजे प्रजेचे निरंतर हित करतात ते राजे व सभासद पुण्यवान असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    That Agni, harbinger of light and warmth of life, destroyer of darkness and evil, loves, pervades, illuminates and rules over all the forms and places of the world. He is the yajamana, receiver and giver of sweets and fragrances. Riding a golden chariot drawn by ruddy horses and waves of light, delightful of tongue as well as flames of fire, majestic in body form, always rejoicing and emanating joy, he is a very treasure home of prosperity, happiness and excellence like an assembly house of power, governance and wealth of a nation in symbolic form.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The desirability of ideal speech is stressed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The king's dealings should be like the splendid sun, his speech charming, and on occasions red in the form of fire, electricity etc. (speedy horses). He should be beautiful, prosperous, and endowed with attractive form and nature, giver of happiness. He should be keen to go to all good places for mass, contact and is irksome to the wicked persons, and always should advance or make like a council of the great rulers. You plan out progress with much admirable wealth and food etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. As the ambassadors always desire and promote the welfare of their rulers, so the kings and members of the assemblies or councils should be meritorious, and devoted to their people.

    Foot Notes

    (दूतः) यो दुनोति दुष्टान्परितापयति स:। = Messenger or ambassador 'who is irksome to the wicked, as he does not allow their evil designs to fructify. (हिररण्यरथ:) तेजोमयरमणीयस्वरूप: सूर्य्यं इव रथो व्यवहारो यस्य सः । तेजो वै हिरण्यम् ( तैत्ति 1, 8, 9, 1) रथौ रहते-तिकर्मण: (NKT 9, 2, 11 ) = He whose dealing is like the splendid sun. (पितुमतीव) प्रशंसित वह्नन्नाद्यश्वर्य्यंयुक्तेव । पितुरिति श्रन्ननाम (NG 2, 7) 1= Endowed with much admirable wealth and food etc.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The desirability of ideal speech is stressed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The king's dealings should be like the splendid sun, his speech charming, and on occasions red in the form of fire, electricity etc. (speedy horses). He should be beautiful, prosperous, and endowed with attractive form and nature, giver of happiness. He should be keen to go to all good places for mass, contact and is irksome to the wicked persons, and always should advance or make like a council of the great rulers. You plan out progress with much admirable wealth and food etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. As the ambassadors always desire and promote the welfare of their rulers, so the kings and members of the assemblies or councils should be meritorious, and devoted to their people.

    Foot Notes

    (दूतः) यो दुनोति दुष्टान्परितापयति स:। = Messenger or ambassador 'who is irksome to the wicked, as he does not allow their evil designs to fructify. (हिररण्यरथ:) तेजोमयरमणीयस्वरूप: सूर्य्यं इव रथो व्यवहारो यस्य सः । तेजो वै हिरण्यम् ( तैत्ति 1, 8, 9, 1) रथौ रहते-तिकर्मण: (NKT 9, 2, 11 ) = He whose dealing is like the splendid sun. (पितुमतीव) प्रशंसित वह्नन्नाद्यश्वर्य्यंयुक्तेव । पितुरिति श्रन्ननाम (NG 2, 7) 1= Endowed with much admirable wealth and food etc.

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