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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    विश्वे॑षा॒मदि॑तिर्य॒ज्ञिया॑नां॒ विश्वे॑षा॒मति॑थि॒र्मानु॑षाणाम्। अ॒ग्निर्दे॒वाना॒मव॑ आवृणा॒नः सु॑मृळी॒को भ॑वतु जा॒तवे॑दाः ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑षाम् । अदि॑तिः । य॒ज्ञियानाम् । विश्वे॑षाम् । अति॑थिः । मानु॑षाणाम् । अ॒ग्निः । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । आ॒ऽवृ॒णा॒नः । सु॒ऽमृ॒ळी॒कः । भ॒व॒तु॒ । जा॒तऽवे॑दाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वेषामदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम्। अग्निर्देवानामव आवृणानः सुमृळीको भवतु जातवेदाः ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वेषाम्। अदितिः। यज्ञियानाम्। विश्वेषाम्। अतिथिः। मानुषाणाम्। अग्निः। देवानाम्। अवः। आऽवृणानः। सुऽमृळीकः। भवतु। जातऽवेदाः॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरुक्तं सूर्य्यसम्बन्धेनाप्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! भवान् विश्वेषां यज्ञियानामदितिरिव विश्वेषां मानुषाणामतिथिरिव देवानामग्निरिवाऽव आवृणानो जातवेदाः सुमृळीको भवतु ॥२०॥

    पदार्थः

    (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (अदितिः) अखण्डितमन्तरिक्षम् (यज्ञियानाम्) यज्ञानुष्ठानकर्त्तॄणाम् (विश्वेषाम्) (अतिथिः) अभ्यागत इव वर्त्तमानः (मानुषाणाम्) मानवानाम् (अग्निः) (देवानाम्) (अवः) रक्षणम् (आवृणानः) समन्तात् स्वीकुर्वन् (सुमृळीकः) सुष्ठु सुखकारकः (भवतु) (जातवेदाः) जातेषु पदार्थेषु विद्यमानः ॥२०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सुगन्धधूमेन शोधितमन्तरिक्षं पूर्णविद्य आप्तोपदेष्टा सूर्य्यश्च सुखदा भवन्ति तथैव यूयं सर्वेभ्यः सुखप्रदा भवतेति ॥२०॥ अत्र विद्वद्वेद्याऽग्निवाणीसूर्यविद्युदादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥२०॥ इति प्रथमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उक्त विषय को सूर्य के सम्बन्ध से भी कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप (विश्वेषाम्) सम्पूर्ण (यज्ञियानाम्) यज्ञों के अनुष्ठान करनेवालों के (अदितिः) अखण्डित अन्तरिक्ष के तुल्य (विश्वेषाम्) सम्पूर्ण (मानुषाणाम्) मनुष्यों में (अतिथिः) अभ्यागत के सदृश वर्त्तमान (देवानाम्) विद्वानों के (अग्निम्) अग्नि के सदृश (अवः) रक्षण को (आवृणानः) सब प्रकार स्वीकार करते हुए (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान हुए (सुमृळीकः) उत्तम प्रकार सुख करनेवाले (भवतु) हूजिये ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे यज्ञ के सुगन्धित धूम से शुद्ध हुआ अन्तरिक्ष पूर्णविद्यायुक्त, यथार्थवक्ता उपदेश देनेवाला पुरुष और सूर्य्य सुखदेनेवाले होते हैं, वैसे ही आप लोग सबों के लिये सुख देनेवाले हूजिये ॥२०॥ इस सूक्त में विद्वानों से जानने योग्य अग्नि वाणी सूर्य बिजुली आदिकों के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥२०॥ यह प्रथम सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अदितिः - अतिथि:

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (विश्वेषाम्) = सब (यज्ञियानाम्) = यज्ञशील पुरुषों के (अदितिः) = न खण्डन होने देनेवाले हैं। (विश्वेषाम्) = सब (मानुषाणाम्) = विचारशील पुरुषों के (अतिथि:) = [अत सातत्यगमने] निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं। [२] ये (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (देवानां अव:) = सब देवों के रक्षण को (आवृणान:) = [वृ संभक्तौ] सम्भक्त करनेवाले, प्राप्त करानेवाले हैं। (जातवेदाः) = ये सर्वज्ञ प्रभु (सुमृडीक:) = उत्तम सुख को देनेवाले (भवतु) = हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- यज्ञशील बनकर हम स्वस्थ हों। विचारशील बनकर प्रभु को प्राप्त हों। देव बनकर प्रभु से रक्षणीय हों तथा उस प्रभु से सुख को प्राप्त हों। यह सम्पूर्ण सूक्त प्रभुप्राप्ति के साधनों व फलों का उल्लेख करता हुआ हमें प्रभु प्रवण बनाता है। प्रभु प्रवण होते हुए हम 'वामदेव' - सुन्दर दिव्य गुणोंवाले बनते हैं। यही भाव अगले सूक्त का भी है -

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    विषय

    नित्य परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    वह परमेश्वर ( विश्वेषाम् यज्ञियानां ) समस्त पूजनीय पदार्थों में (अदितिः ) अविनश्वर नित्य है, वह ( विश्वेषां ) समस्त ( मानुषाणाम् ) मनुष्यों के बीच में ( अतिथिः ) व्यापक, अतिथि के समान पूज्य और सबका अधिष्ठाता है । वह ( अग्निः ) ज्ञानस्वरूप और प्रकाशस्वरूप ( देवानां ) सब प्रकाशमान पृथिव्यादि लोकों और विद्वान् प्रार्थियों को ( अवः ) रक्षा, पालन, शरण और ज्ञान ( आवृणानः ) प्रदान करता हुआ ( जातवेदाः ) सब उत्पन्न पदार्थों का जानने हारा ( सुमृळीकः भवतु ) सबको उत्तम सुख देने वाला हो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे यज्ञाच्या सुगंधित धुराने शुद्ध झालेले अंतरिक्ष, पूर्ण विद्यायुक्त यथार्थवक्ता उपदेश देणारा व सूर्य, सुख देणारे असतात तसेच तुम्ही लोक सर्वांसाठी सुख देणारे व्हा ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like the indivisible and inviolable sky for all the performers of yajna, like the welcome guest for all the householders, Agni, universal light and lord omnipresent and omniscient, may, we pray, taking up the protection and promotion of noble humanity and renewal and refreshment of the environment, be the harbinger of peace and prosperity for children of the earth. (So may be the teacher and the scholar.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men are told comparing the sun.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you should give good happiness to all like the purified vast firmament to the performers of Yajnas. Like a venerable guest to all men, like Agni (fire electricity and sun) to all enlightened persons, you accept and desire their protection and know the nature of all objects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should give happiness to all like the firmament purified by the fragrant smoke (of Yajnas), or highly learned and reliable preacher and the sun.

    Foot Notes

    (अदितिः) अखशिडतमन्तरिक्षम् । अदितिदेयौरदितिरन्तरिक्षम् (Rige. 1, 89, 10)। = Vast firmament. ( सुमृडीकः ) सुष्ठसुखकारक: । Giver of good happiness.

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