ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स जा॑यत प्रथ॒मः प॒स्त्या॑सु म॒हो बु॒ध्ने रज॑सो अ॒स्य योनौ॑। अ॒पाद॑शी॒र्षा गु॒हमा॑नो॒ अन्ता॒योयु॑वानो वृष॒भस्य॑ नी॒ळे ॥११॥
स्वर सहित पद पाठसः । जा॒य॒त॒ । प्र॒थ॒मः । प॒स्त्या॑सु । म॒हः । बु॒ध्ने । रज॑सः । अ॒स्य । योनौ॑ । अ॒पात् । अ॒शी॒र्षा । गु॒हमा॑नः । अन्ता॑ । आ॒ऽयोयु॑वानः । वृ॒ष॒भस्य॑ । नी॒ळे ॥
स्वर रहित मन्त्र
स जायत प्रथमः पस्त्यासु महो बुध्ने रजसो अस्य योनौ। अपादशीर्षा गुहमानो अन्तायोयुवानो वृषभस्य नीळे ॥११॥
स्वर रहित पद पाठसः। जायत। प्रथमः। पस्त्यासु। महः। बुध्ने। रजसः। अस्य। योनौ। अपात्। अशीर्षा। गुहमानः। अन्ता। आऽयोयुवानः। वृषभस्य। नीळे॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निपदेन परमात्मविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा स प्रथमः सूर्य्यो महो बुध्नेऽस्य रजसो योनौ जायत यथा गुहमानोऽपादशीर्षा आयोयुवानो वृषभस्य नीळेऽन्ता जायत तथैव यूयमपि पस्त्यासु जायध्वम् ॥११॥
पदार्थः
(सः) विद्युद्रूपोऽग्निः (जायत) जायते। अत्राडभावः (प्रथमः) आदिमः (पस्त्यासु) गृहेषु (महः) महति (बुध्ने) अन्तरिक्षे (रजसः) लोकसमूहस्य (अस्य) (योनौ) कारणे (अपात्) पादरहितः (अशीर्षा) शिरआद्यवयवरहितः (गुहमानः) संवृतः सन् (अन्ता) अन्ते समीपे (आयोयुवानः) समन्ताद् भृशं मिश्रयिता विभाजको वा (वृषभस्य) वर्षकस्य सूर्य्यस्य (नीळे) गृहे ॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथाऽनन्त आकाशे प्रकृतेर्महदादि क्रमेणेदं जगज्जातमत्र निरवयवा जीवाः संवृताः सन्तः परमात्मनः समीपे वर्त्तमाना गृहेषु जायन्ते शरीरं धरन्ति त्यजन्ति च तं सर्वेश्वरमन्तर्ध्यात्वा सुखिनो भवत ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इस अगले मन्त्र में अग्निपद से परमात्मा के विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (सः) बिजुलीरूप अग्नि (प्रथमः) प्रथम सूर्य्य (महः) बड़े (बुध्ने) अन्तरिक्ष में (अस्य) इस (रजसः) लोकों के समूह के (योनौ) कारण में (जायत) उत्पन्न होता है और जैसे (गुहमानः) ढंपा हुआ (अपात्) पैरों और (अशीर्षा) शिर आदि (आयोयुवानः) सब प्रकार अत्यन्त मिलाने वा अलग करनेवाला (वृषभस्य) वृष्टि करनेवाले सूर्य्य के (नीळे) स्थान में (अन्ता) समीप में उत्पन्न होता है, वैसे ही आप लोग भी (पस्त्यासु) घरों में उत्पन्न अर्थात् प्रकट हूजिये ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अन्तरहित आकाश में प्रकृति से महत् तत्त्व अर्थात् बुद्धि आदि के क्रम से यह संसार उत्पन्न हुआ इस संसार में अवयवों से रहित मिलते हुए जीव परमात्मा के समीप में वर्त्तमान हो, गृहों में उत्पन्न होते शरीर को धारण करते और त्यागते हैं, उस सब के स्वामी का हृदय में ध्यान कर सुखी हूजिये ॥११॥
विषय
अनाद्यनन्त प्रभुरूप नीड
पदार्थ
[१] (सः) = वे प्रभु (प्रथमः) = अत्यन्त विस्तृत हैं, सर्वव्यापक हैं। (पस्त्यासु जायत) = सब प्रजाओं में उनका प्रादुर्भाव है। वे (महः रजस:) = इस महान् लोक समूह के (बुध्ने) = मूल में हैं, (अस्य) = इस लोक समूह का (योनौ) = योनि [उत्पत्ति- स्थान], प्रकृति में भी वे विद्यमान हैं। चराचर जगत् के अन्दर वे व्यापक हैं। [२] (अपात्) = वे पाँववाले नहीं। पाँव, अर्थात् अन्त, उस प्रभु का कोई अन्त नहीं। (अशीर्षा) = वे सिरवाले नहीं। सिर, अर्थात् आदि, उस प्रभु का कोई आदि नहीं। वे प्रभु अनन्त और अनादि हैं। (अन्ता गुहमान:) = इस संसार के आदि अन्त को अपने में संवृत कर रहे हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के एक देश में ही तो है। वे प्रभु वृषभ हैं, सब पर सुखों का वर्षण करनेवाले व अनन्त शक्ति सम्पन्न हैं उस (वृषभस्य) = शक्ति सम्पन्न अपने (नीडे) = घोंसले में (आयोयुवान:) = सब लोकों को परस्पर संबद्ध कर रहे हैं। सारे लोक उस प्रभुरूप नीड में ही निवास कर रहे हैं। वे प्रभु ब्रह्माण्ड के एक नीड हैं। हम सब का घर वे प्रभु ही हैं। एवं वे प्रभु हम सब के बन्धु हैं। प्रभु भक्त इस बन्धुत्व का अनुभव करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सब लोक-लोकान्तरों के मूल हैं। वे अनादि अनन्त प्रभु सब लोकों को अपने में समाये हुए हैं।
विषय
राजा का अपात् अशीर्षा रूप । मेघवत् दयालु हो ।
भावार्थ
(सः) वह नायक ( प्रथमः ) सबसे मुख्य होकर ( पस्त्यासु ) गृहों में निवास करने वाली प्रजाओं के बीच, घरों में मुख्य पुरुष के समान ही ( जायत ) रहे । वह ( अस्य ) इस ( महः रजसः ) बड़े भारी लोक जन-समूह के ( योनौ ) आश्रय स्थान ( बुध्ने ) उसके बांधने या नियन्त्रण करने के पद पर विराजे । वह ( अपात् ) स्वयं सबका आश्रय होने से पैर के समान अन्य पैर की अपेक्षा न करता हुआ, ( अशीर्षा ) स्वयं सबसे मुख्य होकर शिर के तुल्य, अन्य शिर की अपेक्षा न करता हुआ ( गुहमानः ) सबके बीच अप्रकट रूप से विचार करने वाला, वा सब ओर से संवृत होकर, ( अन्ता ) अपने अन्तों, सिद्धान्तों या परिणत कार्यों का कार्य-कर्त्ताओं को ( वृषभस्य नीडे ) वृष्टि, अन्नादि के दाता सूर्य के उत्तम तेजस्वी पद पर स्थित होकर ( आयोयुवानः ) रश्मियों के समान कार्य में नियुक्त करता हुआ ( जायत ) रहे । ( २ ) परमेश्वर पक्ष में—वह ( पस्त्यासु ) समस्त लोकों में और आश्रय भूत प्रकृति विकृतियों में सबका आदिकारण, इस महान् सूर्य के भी परम मूल में आश्रय रूप से विद्यमान् है । वह शिरः पाद आदि अवयवों से रहित, निराकार, निरवयव प्रभु सर्व सुखवर्धक प्रभु के पद पर ( अन्ता ) सबके समीप हृदय में सदा व्यापक रहता है । अथवा सर्व प्रथम उत्पन्न मेघ या नीहारिका के भी मूल आश्रय में गूढ़ रूप से विद्यमान रहा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो जसे अनंत आकाशात प्रकृतीपासून महत्तत्त्व इत्यादी क्रमाने हे जग उत्पन्न झाले. या जगात अवयवरहित जीव परमेश्वराजवळ असून गृही जन्मतात, शरीर धारण करतात व त्याचा त्याग करतात. त्या सर्वांच्या स्वामीचे हृदयात ध्यान करून सुखी व्हा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Agni, which brings us the jewel wealth of the world, first arises from its original cause in the Mahat-tattva, the first existential evolute of Prakrti. Then it manifests in the sun as light, and then in the middle regions of space as vayu, electricity. Moving without head and feet, concealed yet joining youthfully the inmates of various regions, light in the sun, cloud in the sky, homes of people and depth of the earth, it operates everywhere.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are taught by the term Agni.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! as the Great sun is manifest in the vast firmament and the sky, God is manifest by His Power in all planets creating and sustaining them by His Omnipotence. Being Omnipresent. He is without head, feet and other organs, is diffused in all beings and things. He even integrates and disintegrates all, pervading the sun and other illuminaries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! the matter is the material cause of this Universe in accordance with the order of Mahattatva (Great principle) etc., while God is the efficient cause in whom all dwell. The matter and God are united with bodies and leave them at the proper time as ordained by God. You should enjoy happiness by meditating upon God within your own hearts.
Foot Notes
(बुध्ने ) अन्तरिक्षे । बुध्नम् अन्तरिक्ष, बुद्धा अस्मिन् धृता आप इति (NKT. 10, 4, 44 ) = In the firmament. (वृषभस्य) वर्षकस्य सूर्य्यस्य । Of the sun that is the cause of the rain. (आयोयुवान:) समन्ताद्भृशं मिश्रयिता विभजको वा। = Integrator or disintegrator.
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