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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नेश॒त्तमो॒ दुधि॑तं॒ रोच॑त॒ द्यौरुद्दे॒व्या उ॒षसो॑ भा॒नुर॑र्त। आ सूर्यो॑ बृह॒तस्ति॑ष्ठ॒दज्राँ॑ ऋ॒जु मर्ते॑षु वृजि॒ना च॒ पश्य॑न् ॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नेश॑त् । तमः॑ । दुधि॑तम् । रोच॑त । द्यौः । उत् । दे॒व्याः । उ॒षसः॑ । भा॒नुः । अ॒र्त॒ । आ । सूर्यः॑ । बृ॒ह॒तः । ति॒ष्ठ॒त् । अज्रा॑न् । ऋ॒जु । मर्ते॑षु । वृ॒ज्न॒ा । च॒ । पश्य॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नेशत्तमो दुधितं रोचत द्यौरुद्देव्या उषसो भानुरर्त। आ सूर्यो बृहतस्तिष्ठदज्राँ ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् ॥१७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नेशत्। तमः। दुधितम्। रोचत। द्यौः। उत्। देव्याः। उषसः। भानुः। अर्त। आ। सूर्यः। बृहतः। तिष्ठत्। अज्रान्। ऋजु। मर्तेषु। वृजिना। च। पश्यन्॥१७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्य्यदृष्टान्तेनात्मबलसंरक्षणमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यथा द्यौर्भानुः सूर्य्यो देव्या उषसो दुधितं तम उन्नेशद्रोचत तिष्ठत्तथा बृहतोऽज्रान् पश्यन् सँस्त्वं मर्त्तेषु वृजिना चर्ज्वार्त्त ॥१७॥

    पदार्थः

    (नेशत्) नाशयति (तमः) अन्धकारम् (दुधितम्) पूर्णम् (रोचत) प्रकाशते (द्यौः) आकाशस्थः (उत्) (देव्याः) दिव्यसुखप्रापिकायाः (उषसः) प्रभातवेलायाः (भानुः) प्रकाशमानः (अर्त्त) प्रापय (आ) समन्तात् (सूर्य्यः) (बृहतः) महतः (तिष्ठत्) तिष्ठति (अज्रान्) जगति प्रक्षिप्तान् (ऋजु) सरलम् (मर्त्तेषु) मनुष्येषु (वृजिना) बलानि (च) (पश्यन्) ॥१७॥

    भावार्थः

    यथा सूर्य्य उषसा रात्रिं निवार्य प्रकाशं जनयति तथैवाऽध्यापक उपदेशकश्च व्याप्तानपि पदार्थान् दृष्ट्वाऽऽर्जवेन मनुष्येषु शरीरात्मबलं जनयतु ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सूर्य्य के दृष्टान्त से आत्मा के बल की रक्षा को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् पुरुष ! जैसे (द्यौः) आकाशस्थ (भानुः) प्रकाशमान (सूर्य्यः) सूर्य्य (देव्याः) उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाली (उषसः) प्रभातवेला से (दुधितम्) पूर्ण (तमः) अन्धकार को (उत्, नेशत्) नाश करता और (रोचत) प्रकाशित होता (तिष्ठत्) और स्थित रहता है, वैसे (बृहतः) बड़े (अज्रान्) संसार में जिनका प्रक्षेप हुआ उन पदार्थों को (पश्यन्) देखते हुए आप (मर्त्तेषु) मनुष्यों में (वृजिना) बलों को (च) और (ऋजु) सरलभाव को (आ) (अर्त्त) प्राप्त कराओ ॥१७॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य्य प्रातर्वेला से रात्रि का निवारण करके प्रकाश को उत्पन्न करता है, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक व्याप्त भी पदार्थों को देख के नम्रता से मनुष्यों में शरीर और आत्मा के बल को बढ़ावे ॥१७॥

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    विषय

    सूर्योदय व पापपलायन

    पदार्थ

    [१]उषा से (दुधितम्) = प्रेरित हुआ हुआ धकेला हुआ (तमः) = रात्रि का अन्धकार (नेशत्) = नष्ट हुआ है। (द्यौः) = द्युलोक रोचत चमक उठा है। देव्या:-प्रकाशमयी उषसः उषा का भानुः - प्रकाश अर्त उद्गत हुआ है। (२) अब सूर्य:- सूर्य बृहत: विशाल अज्रान्- ( areas) क्षेत्रों में आतिष्ठत् स्थित हुआ है, सूर्य का प्रकाश चारों ओर फैल गया है। यह सूर्य मर्तेषु मनुष्यों में ऋजु - सरलता को च और वृजिना=कुटिलताओं व पापों को पश्यन् देख रहा है। रात्रि के अन्धकार में तो पाप छिप सकते हैं। परन्तु सूर्य के प्रकाश में इनके छिपने का सम्भव नहीं। हमारे जीवनों में भी ज्ञान सूर्य का उदय होने पर सब पाप वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उषा आती है, अन्धकार दूर होता है। सूर्योदय के साथ सर्वत्र प्रकाश हो जाता है, कुटिलताएँ भी रात्रि के अन्धकार के साथ ही चली जाती हैं ।

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    विषय

    प्रकाश से तिमिरवत् ज्ञान से अज्ञान का नाश । दुष्टों का नाश और न्याय का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! जिस प्रकार सूर्योदय के होने पर ( दुधितं तमः ) आकाश में फैला हुआ अन्धकार भी ( नेशत् ) नष्ट हो जाता है, और (द्यौः रोचत) सूर्य चमकने लगता है, वा दिन या प्रकाश चमकता है। और ( देव्याः उषसः ) प्रकाश वाली उषा का ( भानुः ) प्रकाश भी ( उत् अर्त्त ) उदय को प्राप्त होता है। (सूर्यः) सूर्य (वृहतः) बड़े २ ( अज्रान् ) प्रकाशनिवारक, दूर २ तक फेंके गये किरणों को ( आतिष्ठति ) सर्वत्र थामता है, और उन पर विराजता है, उसी प्रकार वाणी के उदय होने पर अन्तःकरण में पूर्ण अज्ञान का तिमिर नाश को प्राप्त होता है, ज्ञान का प्रकाश चमक जाता है और पापनाशक उषा देवी आत्मशक्ति विवेकख्याति का उदय होता है, भीतरी आत्मा वा विद्वान् सूर्य के तुल्य होकर बड़े २ ( अज्रान् ) ज्ञान साधनों का अनुष्ठान करता है या प्राणों की साधना करता है, और तब वह ( मर्त्तेषु ) मरणधर्मा मनुष्यों या जड़ देहों के बीच ( ऋजु ) सरल सत् तत्व और ( वृजिना ) नाना प्रेरक बलों को अथवा ज्ञान वाणी द्वारा धर्म तथा वर्जनीय पाप कर्मों को ( पश्यन् ) देखने और विवेक करने लगता है । ( २ ) राजा पक्षमें—जब उषादेवी, विजयशालिनी शत्रुदाहक सेना के तेज का उदय होता है तो शत्रु सैन्य नष्ट होता है ( द्यौः ) विजयिनी सेना या विजय लक्ष्मी चमकती है, सूर्य तुल्य तेजस्वी राजा ( अज्रान् = वज्रान् ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले बलवान् पुरुषों के ऊपर अध्यक्ष होकर विराजे और मनुष्यों के बीच पुण्य, पाप का विवेक न्यायपूर्वक करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सूर्य उषेद्वारे रात्रीचे निवारण करून प्रकाश उत्पन्न करतो तसेच अध्यापक व उपदेशकांनी जगातील पदार्थ पाहून माणसाच्या शरीर व आत्म्याचे बल वाढवावे ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The dense darkness of the night is dispelled, the solar region shines and the light of the dawn ascends in all her splendour. The sun rises and shines on over the fields and plains of the wide world, watching the acts and ways of right and wrong among the mortal inhabitants of the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The significance of the preservation of spiritual power is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned man ! as the resplendent sun destroys the scattered thick darkness of the dawn, gives Divina happiness, glows with its radiance standing in the sky, in the same manner, you should look upon all the vast substances, which are creation of God and set in the world. With this, endeavor to establish strength and uprightness among men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun generates light by destroying darkness of the night, in the same manner, teachers and preachers should procure the vast knowledge of the world and generate the physical and spiritual power through uprightness.

    Foot Notes

    (अजान्) जगति प्रक्षिप्तान् पदार्थान् । = The substances scattered in the world. (वृजिना) बलानि । = Powers. (दुधितम् ) पूर्णम् । = Full.

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