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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स चे॑तय॒न्मनु॑षो य॒ज्ञब॑न्धुः॒ प्र तं म॒ह्या र॑श॒नया॑ नयन्ति। स क्षे॑त्यस्य॒ दुर्या॑सु॒ साध॑न्दे॒वो मर्त॑स्य सधनि॒त्वमा॑प ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । चे॒त॒य॒त् । मनु॑षः । य॒ज्ञऽब॑न्धुः । प्र । तम् । म॒ह्या । र॒श॒नया॑ । न॒य॒न्ति॒ । सः । क्षे॒ति॒ । अ॒स्य॒ । दुर्या॑सु । साध॑न् । दे॒वः । मर्त॑स्य । स॒ध॒नि॒ऽत्वम् । आ॒प॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स चेतयन्मनुषो यज्ञबन्धुः प्र तं मह्या रशनया नयन्ति। स क्षेत्यस्य दुर्यासु साधन्देवो मर्तस्य सधनित्वमाप ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। चेतयत्। मनुषः। यज्ञऽबन्धुः। प्र। तम्। मह्या। रशनया। नयन्ति। सः। क्षेति। अस्य। दुर्यासु। साधन्। देवः। मर्तस्य। सधनिऽत्वम्। आप॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यदि स यज्ञबन्धू राजा मनुषश्चेतयत्तं ये सभासदो मह्या रशनयाऽश्वा इव नीत्या प्र नयन्ति सोऽस्य राज्यस्य दुर्यासु न्यायगृहेषु राजव्यवहारं साधन् क्षेति स देवो मर्त्तस्य सधनित्वमाप ॥९॥

    पदार्थः

    (सः) (चेतयत्) ज्ञापयेत् (मनुषः) अमात्यप्रजाजनान् (यज्ञबन्धुः) यज्ञस्य न्यायव्यवहारस्य भ्रातेव वर्त्तमानः (प्र) (तम्) (मह्या) महत्या (रशनया) (नयन्ति) (सः) (क्षेति) निवसति (अस्य) (दुर्य्यासु) (साधन्) (देवः) दाता (मर्त्तस्य) मनुष्यस्य (सधनित्वम्) धनिनां भावेन सह वर्त्तमानं राज्यम् (आप) आप्नोति ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽप्ता अध्यापकोपदेशका सुशिक्षया विद्यार्थिनो धर्म्ये मार्गं नयन्ति तथैव राजनीतिशिक्षया राजानं राजधर्मपथं नयन्तु यः सामात्यः सप्रजो राजा निर्व्यसनो भूत्वा प्रीत्या राजधर्मं करोति स ऐश्वर्य्यवज्जनं राज्यं प्राप्य सुखेन निवसति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (सः) वह (यज्ञबन्धुः) न्याय व्यवहार के भ्राता के सदृश वर्त्तमान राजा (मनुषः) मन्त्री और प्रजाजनों को (चेतयत्) जनावे (तम्) उसको जो सभासद् लोग (मह्या) बड़ी (रशनया) रस्सी से घोड़े के सदृश नीति से (प्र) (नयन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त करते हैं (सः) वह (अस्य) इस राज्य के (दुर्य्यासु) न्याय के स्थानों में राजव्यवहार को (साधन्) साधता हुआ (क्षेति) निवास करता है, वह (देवः) देनेवाला (मर्त्तस्य) मनुष्यसम्बन्धी (सधनित्वम्) धनीपन के साथ वर्त्तमान राज्य को (आप) प्राप्त होता है ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यथार्थवादी अध्यापक और उपदेशक लोग उत्तम शिक्षा से विद्यार्थियों के लिये धर्मयुक्त मर्य्यादा को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही राजनीति की शिक्षा से राजा के लिये राजधर्म के मार्ग को प्राप्त करो। और जो मन्त्री और प्रजा के सहित राजा व्यसनरहित होकर प्रीति से राजधर्म को करता है, वह ऐश्वर्य्ययुक्त जन और राज्य को प्राप्त होकर सुख से निवास करता है ॥९॥

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    विषय

    स-धनित्व

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह (मनुष:) = मनुष्यों को (चेतयत्) = चेतना प्राप्त कराता है, ज्ञान देता है। (यज्ञबन्धुः) = वे प्रभु यज्ञों के द्वारा हृदय देश में बद्ध होते हैं, अर्थात् यज्ञशील पुरुष प्रभु को हृदय में देखनेवाले बनते हैं। (तम्) = उस प्रभु को (मह्या) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण (रशनया) = मेखला से, कटिबद्धता से, दृढ़ निश्चय से (प्र नयन्ति) = प्राप्त कराते हैं। प्रभुप्राप्ति के लिये (तीव्रतम) = कामनावाला पुरुष ही प्रभु को प्राप्त करता है । [२] (सः देवः) = वे प्रकाशमय प्रभु (साधन्) = इसके प्रयत्नों को सफल करते हुए (अस्य दुर्यासु) = इसके शरीर रूप गृहों में क्षेति निवास करते हैं। वस्तुतः उस अन्तः स्थित प्रभु की कृपा से ही सब पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। ये प्रभु इस मर्तस्य उपासक प्रभु के (सधनित्वम्) = साथ धनित्व को (आप) = प्राप्त करते हैं, अर्थात् इस उपासक को भी वे ऐश्वर्यशाली बना देते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- दृढ़ कामना के होने पर प्रभु अवश्य प्राप्त होते हैं। यज्ञों के द्वारा वे उपासित होते हैं और ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं। उपासक प्रभु के सधनित्य को प्राप्त करता है।

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    विषय

    लगाम से अश्ववत् उत्तम नीति से राष्ट्र का संचालन और ऐश्वर्य पद प्राप्ति ।

    भावार्थ

    (सः) वह ( यज्ञबन्धुः ) उत्तम दान, सत्संग और मैत्री भाव आदि उत्तम कर्मों द्वारा सबका बन्धु, सहायक होकर ( मनुषः ) मनुष्यों को ( चेतयन् ) ज्ञानवान् करे, उनको आपत्ति से सचेत करे । ( तं ) उसको विद्वान् लोग ( रशनया ) रस्सी या लगाम से जिस प्रकार अश्व को सन्मार्ग पर चलाते हैं उसी प्रकार ( मह्या ) बड़ी उत्तम, पूजनीय ( रशनया ) राष्ट्र में व्यापक नीति से या पूज्य परम्परा वा भृत्य परम्परा सहित ( प्र नयन्ति ) उत्तम रीति से ले जावें । ( सः ) वह ( देवः ) तेजस्वी राजा (अस्य) इस राष्ट्र के ( दुर्यासु ) राज्य-गृहों में वा शत्रु निवारक सेनाओं वा प्रजाओं के बीच ( क्षेति ) निवास करे और ( साधन् ) कार्यों को सिद्ध करता हुआ, ( मर्तस्य ) मनुष्य समूह के लिये ( सधनित्वम् ) ऐश्वर्यवान् पुरुषों से युक्त राज्य पद को ( आप ) प्राप्त करे वा धनसम्पन्न पुरुषों के समान उत्तम पद को प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान अध्यापक व उपदेशक सुशिक्षणाने विद्यार्थ्यांना धर्मयुक्त मर्यादा शिकवितात, तसेच राजनीतीच्या शिक्षणाने राजासाठी राजधर्माचा मार्ग निर्माण करावा. जो राजा व्यसनरहित होऊन प्रजा व मंत्री यांच्यासह प्रीतीने राजधर्म करतो तो ऐश्वर्ययुक्त जन व राज्य प्राप्त करून सुखाने राहतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A brother yajaka on the yajna vedi of creation and governance, he awakens and enlightens the people. To him they move on to consecrate him in the seat of power and yajna with a long rope of powers, obligations and controls for balance. He abides in the seat of governance and justice fulfilling his roles, generous and brilliant, achieving the dreams and realities of the nation’s imagination.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of learned are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The king is like a brother to the just dealings, and he gives good advice and instructions to his ministers and people. The members of the Council lead him forward with right policies, like a horse taking forward broad and big views. He sits in the courts or offices of the State accomplishing well the administrative work. He being the giver of happiness, enjoys the prosperous State along with his people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the most reliable teachers and preachers lead the students towards the right path through the good education, in the same manner, they should guide the king to discharge his duties well by giving him sincere advice regarding the politics and administration. Such a king along with his Council of Ministers and people discharges his duties lovingly, being free from all vices, and lives happily having attained a prosperous State.

    Translator's Notes

    The Vedic term Yajna is very comprehensive as stated earlier. It includes all right dealings in the State. Therefore, we come across passages in Brahamanas like. श्री वै राष्ट्रमश्वमेधः: (Sph, 13, 2, 9, 2. Taitriya 3, 9, 7, 1) Here a nation is called Yajna (दुर्यासु ) गृहेषु । अत्र न्यायगृहेषु । दुर्गा इति गृहनांम (NG. 3, 4)।

    Foot Notes

    (यज्ञबन्धुः) यज्ञस्य न्याय्यव्यवहारस्य भ्रातेव वर्त्तमानः । = Being like a brother to the right dealings. (क्षेति) निवसति । = Dwells, lives. (सधनित्वम्) धनोनां भावेन सह वर्तमानम् राज्यम्| Prosperous State.

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