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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निर्वा वरुणश्च छन्दः - अतिजगती स्वरः - निषादः

    स भ्रात॑रं॒ वरु॑णमग्न॒ आ व॑वृत्स्व दे॒वाँ अच्छा॑ सुम॒तीय॒ज्ञव॑नसं॒ ज्येष्ठं॑ य॒ज्ञव॑नसम्। ऋ॒तावा॑नमादि॒त्यं च॑र्षणी॒धृतं॒ राजा॑नं चर्षणी॒धृत॑म् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । भ्रात॑रम् । वरु॑णम् । अ॒ग्ने॒ । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । दे॒वान् । अच्छ॑ । सु॒ऽम॒ती । य॒ज्ञऽव॑नसम् । ज्येष्ठ॑म् । य॒ज्ञऽव॑नसम् । ऋ॒तऽवा॑नम् । आ॒दि॒त्यम् । च॒र्ष॒णि॒ऽधृत॑म् । राजा॑नम् । च॒र्ष॒णि॒ऽधृत॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स भ्रातरं वरुणमग्न आ ववृत्स्व देवाँ अच्छा सुमतीयज्ञवनसं ज्येष्ठं यज्ञवनसम्। ऋतावानमादित्यं चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। भ्रातरम्। वरुणम्। अग्ने। आ। ववृत्स्व। देवान्। अच्छ। सुऽमती। यज्ञऽवनसम्। ज्येष्ठम्। यज्ञऽवनसम्। ऋतऽवानम्। आदित्यम्। चर्षणिऽधृतम्। राजानम्। चर्षणिऽधृतम्॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    वाणीविषयमाह

    अन्वयः

    हे अग्ने ! स त्वं भ्रातरमिव वरुणं सुमती यज्ञवनसं ज्येष्ठमध्यापकं यज्ञवनसं राजानं यज्ञवनसं चर्षणीधृतमादित्यमिव ऋतावानं राजानं चर्षणीधृतमध्यापकमुपदेशकं वा देवानच्छा ववृत्स्व ॥२॥

    पदार्थः

    (सः) (भ्रातरम्) प्रियं बन्धुमिव (वरुणम्) श्रेष्ठं जनम् (अग्ने) (आ) (ववृत्स्व) समन्तात् वर्त्तस्व (देवान्) धार्मिकान् विदुषः (अच्छ) सम्यक् (सुमती) शोभनया प्रज्ञया (यज्ञवनसम्) यज्ञस्य विद्याव्यवहारस्य विभाजकम् (ज्येष्ठम्) विद्यावृद्धम् (यज्ञवनसम्) राज्यव्यवहारस्य विभक्तारम् (ऋतावानम्) सत्यस्य सम्भक्तारम् (आदित्यम्) सूर्यमिव वर्त्तमानम् (चर्षणीधृतम्) मनुष्याणां धर्त्तारं विद्वद्भिर्धृतं वा (राजानम्) प्रकाशमानं नरेशम् (चर्षणीधृतम्) चर्षणीनां सत्याऽसत्यविवेचकानां धर्त्तारम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे अध्यापक राजन् वा ! त्वं श्रेष्ठाञ्च्छ्रोत्रीनमात्यान् वा सुमत्या सत्याचरणेन संयोज्य सङ्गतानि कर्माणि जोषय सूर्य्यवद्विद्यान्यायप्रकाशं च सततं कुरु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब इस अगले मन्त्र में वाणी के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! (सः) वह आप (भ्रातरम्) प्रियबन्धु के सदृश (वरुणम्) श्रेष्ठजन को (सुमती) श्रेष्ठ बुद्धि से (यज्ञवनसम्) विद्याव्यवहार के विभाग करनेवाले (ज्येष्ठम्) विद्या से वृद्ध अध्यापक (यज्ञवनसम्) राज्यव्यवहार के विभाग करनेवाले (राजानम्) प्रकाशमान नरेश विद्याव्यवहार के विभाग करनेवाले (चर्षणीधृतम्) मनुष्यों के धारणकर्त्ता वा विद्वानों से धारण किये गए (आदित्यम्) सूर्य के सदृश वर्त्तमान (ऋतावानम्) सत्य के विभागकर्त्ता प्रकाशमान राजा (चर्षणीधृतम्) सत्यासत्य की विवेचना करनेवालों के धारण करनेवाले अध्यापक वा उपदेशक (देवान्) और धार्मिक विद्वानों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (आ, ववृत्स्व) सब ओर से वर्त्तिये अर्थात् उनके अनुकूल वर्त्तमान कीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    हे अध्यापक वा राजन् ! आप श्रेष्ठ श्रोतृजन वा मन्त्रियों को उत्तम मति और सत्य आचरण से संयुक्त करके संगत कर्मों का सेवन कराओ और सूर्य्य के सदृश विद्या न्याय का प्रकाश निरन्तर करो ॥२॥

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    विषय

    प्रभुप्राप्ति के पात्र

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (सः) = वे आप (आववृत्स्व) = आभिमुख्येन प्राप्त हों। उस व्यक्ति को प्राप्त हों जो कि (भ्रातरम्) = अपने कर्त्तव्यभार को सम्यक् उठाता है (विभर्ति) । वरुणम् जो यथाशक्ति अपने को पाप से बचाता है (पापात् निवारयति) । सुमती कल्याणीमति के द्वारा देवान् अच्छा- दिव्यगुणों की ओर चलता है। यज्ञवनसम्- जो यज्ञों का सेवन करता है। ज्येष्ठम् जो सर्वोत्तम (the most generous) दाता है, ऊर्ध्वादिक् का अधिमति बृहस्पति बनता है और यज्ञवनसम्-यज्ञ का सेवन करनेवाला होता है, देवों का पूजन करनेवाला होता है। (२) हे प्रभो ! आप उस व्यक्ति को प्राप्त होते हो जो कि ऋतावानम्- जीवन में ऋत का पालन करता है, सब कार्यों को ठीक समय पर करता है। आदित्यम् आदान की वृत्तिवाला होता है, सब स्थानों से अच्छाइयों का ग्रहण करता है। चर्षणीधृतम्- मनुष्यों का धारण करता है, अर्थात् सदा धारणात्मक कर्मों में प्रवृत्त होता है। राजानम्- ज्ञान से दीप्त होता है (राजू दीप्तौ) अथवा अपना शासक बनता है, इन्द्रियों, मन व बुद्धि को अपने अधीन करता है और चर्षणीधृतम् - सब का धारण करनेवाला होता है 'सर्वभूतहिते रतः' ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु उस व्यक्ति को प्राप्त होते हैं जो कि [क] कर्तव्यभार का वहन करता है, [ख] पाप से अपने को बचाता है, [ग] कल्याणीमति के द्वारा दिव्यगुणों की ओर चलता है, [घ] यज्ञों का सेवन करनेवाला होता है, [ङ] सर्वोत्तम बनने का प्रयत्न करता है, [च] व्यवस्थित जीवनवाला होता है, [छ] अच्छाइयों का ग्रहण करता है, [ज] मनुष्यों का धारण करनेवाला होता है, [झ] ज्ञानदीप्त व अपना शासक बनता है।

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    विषय

    आचार्य और राजा का वरण ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! सेनानायक ! उत्तम विनीत शिष्य ! (सः) वह तू ( वरुणम् ) दोषों, शत्रुओं और पापों को दूर करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, वरण करने योग्य ( भ्रातरम् ) भाई बन्धु के समान पालक, प्रजा को भरण पोषण करने में समर्थ पुरुष को ( आ ववृत्स्व ) आदर पूर्वक स्वीकार कर । उसके अधीन वा अनुकूल रहकर रह। और ( देवान् ) विद्वान्, दानशाली तेजस्वी पुरुषों की ( सुमती ) शुभ मति से ( अच्छ ) प्राप्त करे और ( यज्ञवनसं ) सत्संग, मैत्री और दान के देने वाले ( ज्येष्ठं ) सबसे उत्तम ( यज्ञवनसं ) पूजनीय पद को प्राप्त, प्राप्त ( ऋतावानम् ) सत्य ज्ञान न्यायाचरण, ऐश्वर्य और अन्नादि के स्वामी, ( आदित्यं ) सूर्य के समान तेजस्वी और प्रजा से उनके उपकार के लिये करादि लेने वाले, ( चर्षणीधृतम् ) समस्त मनुष्यों को धारण करने में समर्थ, ( राजानं ) राजा, सबका मनोरञ्जन करनेवाले ( चर्षणीधृतम् ) विद्वान् तत्वद्रष्टा पुरुषों द्वारा स्थापित पुरुष को ( आववृत्स्व ) प्राप्त होकर उसके अधीन रह । ( २ ) परमेश्वर सबका पालक, बन्धु होने से भ्राता है। ( यज्ञवनसं ) सब पूजाओं का दाता और स्वीकर्त्ता है ( ऋतावानम् ) सत्य ज्ञानमय, सर्वाधार, सब मनुष्यों का धारक है। उसको ( सुमती ) उत्तम ज्ञानपूर्वक प्राप्त करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे शिक्षक किंवा राजा! तुम्ही श्रेष्ठ श्रोतृजन किंवा मंत्र्यांना चांगल्या विचाराने आणि व सत्याचरणाने युक्त करून त्याप्रमाणे कर्म करण्यास सांगा व सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विद्येचा प्रसार करा ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And O light and fire of life, Agni, bring in your brother and complementary power, Varuna, the very spirit of cool, peace and justice of life, and direct him toward the noble and brilliant performers of yajna. Bring him well with best thoughts and intentions, bring the lover of yajna, highest and most venerable, partner in social organisation, observer of the laws and operations of universal truth and goodness, refulgent as the sun, sustainer of humanity, brilliant ruler, universally accepted and consecrated by the people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The proper use of speech is referred as ideal.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! other should deal harmoniously with a noble man because he is like a brother, best intellectual and experienced teacher. He performs the Yajna in the form of the spread of knowledge to a king. Such a king divides. properly the a I ministration work, upholds people and sustained by Promoters of truth and learned men, is brilliant like the sun. distinguishers between the truth and falsehood, they are the teachers, preachers and righteous enlightened persons. You should follow into the foot-steps of these noble men and should not go against their instructions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O teacher or king! you should equip good Vedic scholars or ministers of religion with good intellect and truthful conduct and encourage them to do likewise. You should illuminate the light of knowledge and justice like the sun.

    Foot Notes

    (यज्ञवनसय) वज्ञस्य विद्याव्यवहारस्य विभाजकम् । = Divider of the spread of knowledge in the form of Yajna. (यज्ञवनसम् ) राज्यव्यवहारस्य विभक्तारम् । = Divider and planner of the administration work. (1 (चर्षणीधृतम्) मनुष्याणां धत्तविद्वद्भिर्धृतं वा । (2) (चर्षणीधृतम्) सत्यासत्ये विवेचकानां धर्त्तारम् । चर्षणय इति मनुष्यनाम (NG. 2, 3) चर्षणिरिति पदनाम (NG. 4, 2) = Upholder of men in general or those who distinguish between truth and falsehood or sustained by the learned persons.

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