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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निर्वा वरुणश्च छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    सखे॒ सखा॑यम॒भ्या व॑वृत्स्वा॒शुं न च॒क्रं रथ्ये॑व॒ रंह्या॒स्मभ्यं॑ दस्म॒ रंह्या॑। अग्ने॑ मृळी॒कं वरु॑णे॒ सचा॑ विदो म॒रुत्सु॑ वि॒श्वभा॑नुषु। तो॒काय॑ तु॒जे शु॑शुचान॒ शं कृ॑ध्य॒स्मभ्यं॑ दस्म॒ शं कृ॑धि ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सखे॑ । सखा॑यम् । अ॒भि । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । आ॒शुम् । न । च॒क्रम् । रथ्या॑ऽइव । रंह्या॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । द॒स्म॒ । रंह्या॑ । अग्ने॑ । मृ॒ळी॒कम् । वरु॑णे । सचा॑ । वि॒दः॒ । म॒रुत्ऽसु॑ । वि॒श्वऽभा॑नुषु । तो॒काय॑ । तु॒जे । शु॒शु॒चा॒न॒ । शम् । कृ॒धि॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । द॒स्म॒ । शम् । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सखे सखायमभ्या ववृत्स्वाशुं न चक्रं रथ्येव रंह्यास्मभ्यं दस्म रंह्या। अग्ने मृळीकं वरुणे सचा विदो मरुत्सु विश्वभानुषु। तोकाय तुजे शुशुचान शं कृध्यस्मभ्यं दस्म शं कृधि ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सखे। सखायम्। अभि। आ। ववृत्स्व। आशुम्। न। चक्रम्। रथ्याऽइव। रंह्या। अस्मभ्यम्। दस्म। रंह्या। अग्ने। मृळीकम्। वरुणे। सचा। विदः। मरुत्ऽसु। विश्वऽभानुषु। तोकाय। तुजे। शुशुचान। शम्। कृधि। अस्मभ्यम्। दस्म। शम्। कृधि॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सखे ! चक्रमाशुं न सखायमभ्याववृत्स्व। हे दस्म ! रंह्या रथ्येवाऽस्मभ्यं रंह्याभ्याववृत्स्व। हे अग्ने ! त्वं सचा वरुणे मृळीकं विदः। हे शुशुचान ! विश्वभानुषु मरुत्सु तुजे तोकाय शं कृधि। हे दस्म ! त्वमस्मभ्यं शं कृधि ॥३॥

    पदार्थः

    (सखे) मित्र (सखायम्) सुहृदम् (अभि) (आ) (ववृत्स्व) आवर्त्तय (आशुम्) शीघ्रगामिनमश्वम् (न) इव (चक्रम्) (रथ्येव) रथेषु साधूनीव (रंह्या) गमनीयानि (अस्मभ्यम्) (दस्म) दुःखोपनाशक (रंह्या) गमनीयानि (अग्ने) वह्निरिव प्रकाशमान (मृळीकम्) सुखकरम् (वरुणे) (सचा) सत्यसंयोगेन (विदः) प्राप्नुयाः (मरुत्सु) मनुष्येषु (विश्वभानुषु) विश्वस्मिन् भानुषु भानुषु सूर्य्येष्विव प्रकाशकेषु (तोकाय) अपत्याय (तुजे) विद्याबलमिच्छुकाय (शुशुचान) पवित्रकारक (शम्) सुखम् (कृधि) (अस्मभ्यम्) (दस्म) अविद्यानाशक (शम्) सुखम् (कृधि) कुरु ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं सर्वैः सह सखायो भूत्वाश्वा रथमिव सखीन्त्सत्कर्मसु सद्यः प्रवर्त्तयत। श्रेष्ठमार्ग इवाऽस्मान्त्सरले व्यवहारे गमय। येऽत्र जगति सूर्य्यवच्छुभगुणान्विताः सर्वात्मनः प्रकाश्य सुखं जनयेयुस्तेऽस्माभिः सत्कर्तव्याः स्युः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उस ही विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सखे) मित्र ! (चक्रम्) पहिये के और (आशुम्) शीघ्र चलनेवाले घोड़े के (न) सदृश (सखायम्) स्नेही जन को (अभि, आ, ववृत्स्व) समीप वर्त्ताइये और (दस्म) हे दुःख के नाशकर्त्ता ! (रंह्या) प्राप्त होने योग्य (रथ्येव) वाहनों के निमित्त उत्तम स्थानों को जैसे, वैसे (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (रंह्या) प्राप्त होने योग्यों के सब प्रकार समीप प्राप्त होइये और (अग्ने) हे अग्नि के सदृश प्रकाशमान ! आप (सचा) सत्य के संयोग से (वरुणे) उपदेश देनेवाले के विषय में (मृळीकम्) सुखकर्त्ता को (विदः) प्राप्त होवें और (शुशुचान) हे पवित्र करनेवाले ! (विश्वभानुषु) सब में सूर्य के सदृश प्रकाश करनेवाले (मरुत्सु) मनुष्यों में (तुजे) विद्या और बल की इच्छा करनेवाले (तोकाय) पुत्रादि के लिये (शम्) सुख को (कृधि) करो और (दस्म) हे अविद्या के नाश करनेवाले ! आप (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (शम्) सुख (कृधि) करिये ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग सब लोगों के साथ मित्र होकर जैसे घोड़े रथ को ले चलते हैं, वैसे मित्रों को उत्तम कर्म्मों में प्रवृत्त करो और श्रेष्ठमार्ग के सदृश हम लोगों को सरल मर्य्यादा में पहुँचाइये। जो लोग इस संसार में सूर्य्य के सदृश उत्तम गुणों से युक्त हुए सब के आत्माओं को प्रकाशित करके सुख को उत्पन्न करें, वे हम लोगों से सत्कार करने योग्य होवें ॥३॥

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    विषय

    'वरुण-मरुत् व विश्वभानु' का आनन्द

    पदार्थ

    [१] हे (सखे) = सबके मित्र प्रभो ! (न) = जैसे (आशुं चक्रम्) = शीघ्रगामी रथ को (रंह्या) = तीव्र गति में उत्तम (अश्व) = लक्ष्य देश की ओर प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार (सखायं अभि) = मुझ मित्र की ओर (आववृत्स्व) = आवृत्त होइये । हे (दस्म) = सब दुःखों का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रंह्या) = गति में उत्तम इन्द्रियाश्वों को [आववृत्स्व] प्राप्त कराइये । [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (वरुणे) = पाप से निवारण करनेवाले में (सचा) = समवेत होकर रहनेवाले (मृडीकम्) = सुख को (विदः) = प्राप्त कराइये । मुझे वह सुख प्राप्त कराइये, जो कि निष्पाप व्यक्ति के जीवन में [वरुण में] होता है। जो सुख (मरुत्सु) = प्राणसाधकों में होता है तथा (विश्वभानुषु) = व्यापक ज्ञान दीप्तिवालों में होता है, उस सुख को हमें प्राप्त कराइये । [२] हे (शुशुचान) = अत्यन्त दीप्त व पवित्र प्रभो ! (तोकाय) = हमारे सन्तानों के लिये (तुजे) = पौत्रों के लिये (शंकृधि) = शान्ति को करिये। उनके जीवन नीरोगता आदि के कारण सुखी हों, हे (दस्म) = दुःखों का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (अस्यभ्यम्) = हमारे लिये (शं कृधि) = शान्ति को करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु की प्राप्ति हो । प्रभु हमें उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करायें। हमें वह सुख प्राप्त हो जो कि निष्पाप जीवनवाले को, प्राणसाधक को तथा व्यापक ज्ञानदीप्तिवाले को प्राप्त होता है। हमारे सन्तानों व हमारे लिये शान्ति को प्राप्त कराइये ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( सखे ) मित्र, हे सखे ! हे ( दस्म ) शत्रु के नाश ( रथ्या ) वेग से जाने वाले ( आशुं चक्रं न ) वेगवान् घोड़े जिस प्रकार चक्र को (आ वर्त्तयतः ) बराबर चलाते हैं उसी प्रकार तू भी ( आशुं ) वेग से काम करने वाले, चुस्त ( चक्रं ) क्रियावान् को ( अभि आववृत्स्व ) सब प्रकार से प्राप्त कर, उसके अनुकूल रहकर वर्ताव कर । हे (अग्ने) अग्रणी पुरुष ! तू ( वरुणे ) सर्वश्रेष्ठ, वरण करने योग्य, पापों और शत्रुओं के निवारक पुरुष के अधीन और ( विश्वभानुषु ) समस्त विश्व में सूर्य के समान तेजस्वी ( मरुत्सु ) मनुष्यों के बल पर ही ( सचा ) सत्य संयोग और समवाय बल से ( मृलीकं ) सुखकारी ऐश्वर्य और ज्ञान ( विदः ) प्राप्त कर । हे ( शुशुचान ) देदीप्यमान ! तू ( तोकाय ) पुत्रवत् (तुजे) पालने योग्य सन्तान, प्रजा के हित के लिये ( शं कृधि ) कल्याण कर और हे ( दस्म ) दर्शनीय वा दुःखों के नाशक ! तू ( अस्मभ्यं शं कृधि ) हमारे लिये कल्याण कर, हमें शान्ति प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही सर्वांबरोबर मैत्री करून घोडे जसे रथाला नेतात तसे मित्रांना सत्कर्मात प्रवृत्त करा. श्रेष्ठ मार्गाप्रमाणे आम्हाला मर्यादा शिकवा. जे लोक या जगात सूर्याप्रमाणे उत्तम गुणयुक्त बनून सर्वांच्या आत्म्यांना प्रकाशित करतात व सुख उत्पन्न करतात ते सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, O friend, loving and gracious, destroyer of enemies, just as a swift horse by a fast moving chariot on the highway and the wheel of Time drives the master to the destination, so come, hasten your friend Varuna, power of peace and justice, to us. O refulgent master of knowledge, being friends with Varuna, the winds and the solar lights of the world, the people and brilliant eminences of the world, reach us, bring us the peace and joy of life. Blazing brilliant and gracious, bring peace and well-being for our children and grand children. O lord of light and knowledge, love and justice, peace and beauty, destroyer of evil, bring us peace, beauty and the graces of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The utility and merits of nice speech are emphasized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O friend ! bring to us your friend, who like a pair of strong horses carries the swift chariot on the road to its goal, O destroyer of all miseries! take us to all those good places accessible to the vehicles. O learned leader! shining like the fire, attain happiness in league with a noble and truthful person. O purifier ! grant happiness to our sons and grandsons who are desirous to acquire knowledge and strength and illuminate all like the sun in the world, O destroyer of ignorance! grant happiness to 'ourselves.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should be friendly to all like a pair of the horses to the chariot, and prompt all your friends to do noble deeds. Lead us smoothly towards the righteous dealings like a good path. We must always honor those good noble and virtuous persons like the sun, because they generate happiness by illuminating the souls of all.

    Foot Notes

    (दस्म ) दु:खोपनाशक । = Destroyer of miseries. (2) (दस्म) अविद्यानाशक । = Destroyer of ignorance. (सचा) सत्यसंयोगेन । = With the combination of truth or true association. (तुजे ) विद्याबलमिच्छुकाय ! = For the offspring desire to acquiring the strength of knowledge.

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