ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्रिर॑स्य॒ ता प॑र॒मा स॑न्ति स॒त्या स्पा॒र्हा दे॒वस्य॒ जनि॑मान्य॒ग्नेः। अ॒न॒न्ते अ॒न्तः परि॑वीत॒ आगा॒च्छुचिः॑ शु॒क्रो अ॒र्यो रोरु॑चानः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । अ॒स्य॒ । ता । प॒र॒मा । स॒न्ति॒ । स॒त्या । स्पा॒र्हा । दे॒वस्य॑ । जनि॑मानि । अ॒ग्नेः । अ॒न॒न्ते । अ॒न्तरिति॑ । परि॑ऽवीतः । आ । अ॒गा॒त् । शुचिः॑ । शु॒क्रः । अ॒र्यः । रोरु॑चानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिरस्य ता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्नेः। अनन्ते अन्तः परिवीत आगाच्छुचिः शुक्रो अर्यो रोरुचानः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः। अस्य। ता। परमा। सन्ति। सत्या। स्पार्हा। देवस्य। जनिमानि। अग्नेः। अनन्ते। अन्तरिति। परिऽवीतः। आ। अगात्। शुचिः। शुक्रः। अर्यः। रोरुचानः॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निदृष्टान्तेन विद्वद्गुणानाह।
अन्वयः
हे मनुष्या ! अग्नेरिव यस्याऽस्य देवस्य यानि सत्या स्पार्हा परमा जनिमानि सन्ति यो रोरुचानोऽर्य्यः शुक्रः शुचिः परिवीतोऽनन्तेऽन्तस्ता तानि त्रिरागात् स एव सर्वाधीशत्वमर्हति ॥७॥
पदार्थः
(त्रिः) त्रिवारम् (अस्य) राज्ञः (ता) तानि (परमा) उत्कृष्टानि (सन्ति) (सत्या) सत्सु व्यवहारेषु साधूनि (स्पार्हा) अभिकाङ्क्षितुं योग्यानि (देवस्य) दिव्यगुणकर्मस्वभावस्य (जनिमानि) जन्मानि (अग्नेः) विद्युदादेरिव (अनन्ते) परमात्मन्याकाशे वा (अन्तः) मध्ये (परिवीतः) परितः सर्वतो व्याप्तशुभगुणकर्मस्वभावः (आ, अगात्) आगच्छन्ति (शुचिः) पवित्रः (शुक्रः) आशुकारी (अर्य्यः) सर्वस्य स्वामी (रोरुचानः) भृशं देदीप्यमानः ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स एवोत्तमे कुले जायते यस्योत्तमानि कर्माणि स्युः। यथा विद्युदाद्यग्निर्निस्सीमेऽन्तरिक्षे विराजते तथैव योऽनन्तं जगदीश्वरमन्तर्ध्यात्वा सर्वज्ञानवाञ्छुद्धियुक्तो भूत्वा सर्वाण्युत्तमानि प्रशंस्यानि कर्माणि कर्तुं प्रभवति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अग्नेः) अग्नि के सदृश जिस (अस्य, देवस्य) उत्तम गुण कर्म और स्वभाववाले इस राजा के जो (सत्या) उत्तम व्यवहारो में श्रेष्ठ (स्पार्हा) अभिकांक्षा करने के योग्य (परमा) उत्तम (जनिमानि) जन्म (सन्ति) हैं और जो (रोरुचानः) अत्यन्त प्रकाशमान (अर्य्यः) सब का स्वामी (शुक्रः) शीघ्र करनेवाला (शुचिः) पवित्र (परिवीतः) जिसके सब और उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव व्याप्त वह (अनन्ते) परमात्मा वा आकाशविषयक (अन्तः) मध्य में (ता) उनको (त्रिः) तीन वार (आ, अगात्) प्राप्त होता है, वही सब का अधीश होने योग्य है ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वही उत्तम कुल उत्पन्न होता है कि जिसके उत्तम कर्म हों। और जैसे बिजुली आदि अग्नि सीमारहित अन्तरिक्ष में शोभित होता है, वैसे ही जो अनन्त जगदीश्वर का ध्यान करके सब ज्ञानवाला शुद्धियुक्त होकर सम्पूर्ण उत्तम प्रशंसा करने योग्य कर्मों के करने को समर्थ होता है ॥७॥
विषय
त्रिविध ज्ञान
पदार्थ
[१] (अस्य देवस्य) = इस प्रकाशमय (अग्ने:) = अग्रणी प्रभु के (ता) = वे (परमा) = सर्वोत्कृष्ट या 'पर: मीयते यै: ' प्रभु का ज्ञान देनेवाले (त्रिः) = तीन 'ऋग्-यजु-साम' रूप (सत्या) = सत्य (स्पार्हा) = स्पृहणीय (जनिमानि) = प्रादुर्भाव हैं। हृदय में स्थित हुए हुए वे प्रकाशमय प्रभु 'ऋग्-यजु-साम' रूप वाणियों का प्रकाश करते हैं। ये ज्ञान सत्य हैं, उत्कृष्ट हैं । अन्ततः प्रभु का ज्ञान देनेवाले हैं, प्रभु के साक्षात्कार में सहायक हैं। इन ज्ञानों के देनेवाले प्रभु देव हैं, प्रकाशमय हैं, अग्नि हैं, अग्रणी हैं। हमें भी इन ज्ञानों के द्वारा वे 'देव व अग्नि' बनाते हैं। [२] (अनन्ते अन्तः परिवीत:) = इस अनन्त ज्ञान में संवृत हुआ हुआ, अर्थात् जिसने इस अनन्त ज्ञान को अपना वस्त्र बनाया है, वह व्यक्ति (आगत्) = समन्तात् क्रियाशील होता है (शुचिः) = पवित्र जीवनवाला होता है, (शुक्र:) = ज्ञान से दीप्त होता है, (अर्यः) = अपना स्वामी बनता है, (रोरुचान:) = तेजस्विता के कारण खूब दीप्त होता है। प्रभु का दिया हुआ ज्ञान जब हमारा आच्छादन बनता है, तब हम शरीर में तेजस्वी, मन में पवित्र तथा बुद्धि में ज्ञानदीप्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का तीन प्रकार का ज्ञान हमें त्रिविध उन्नति को प्राप्त कराके प्रभु के समीप प्राप्त कराता है।
विषय
अग्नि विद्युत्, सूर्यवत् राजा के तीन रूप ।
भावार्थ
(अग्नेः त्रिः परमा सत्या जनिमा) अग्नि के जिस प्रकार तीन प्रकार के परम, सत्य, सर्व हितकारी, बलवान् स्वरूप हैं, अग्नि, विद्युत् और सूर्य उसी प्रकार ( अस्य देवस्य ) इस ज्ञान और ऐश्वर्य के देने वाले विद्वान् पुरुष, और तेजस्वी राजा के भी ( त्रिः ) तीन प्रकार के ( ताः ) वे नाना (परमा) उत्तम कोटि के, ( सत्या ) सत्य, ( स्पार्हा ) अति उत्तम, चाहने योग्य, ( जनिमानि ) स्वभावसिद्ध रूप हैं, प्रथम ( अनन्ते अन्तः ) वह अनन्त आकाश में तेजस्वी सूर्य के समान ( अनन्ते ) अनन्त परमेश्वर के ( अन्तः ) बीच में ( परिवीतः ) सब प्रकार से प्रकाशित और प्रविष्ट हो, उसी में रमने वाला हो । दूसरे, वह ( शुक्रः ) तेज से युक्त, विद्युत् के समान, (शुचिः) स्वयं शुद्ध पवित्र, अन्यों को शुद्ध करने वाला धार्मिक रूप में ( आ गात् ) सर्वत्र जाना जाय । तीसरे वह ( रोरुचानः ) अग्नि के तुल्य कान्तिमान् और सबको रुचिकर होकर ( अर्यः ) सबका रक्षक, स्वामी हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याचे कर्म उत्तम असेल तोच उत्तम कुळात जन्मतो व जसा विद्युत अग्नी अमर्याद अंतरिक्षात शोभतो तसेच जो अनंत जगदीश्वराचे ध्यान करतो, तो सर्व ज्ञानयुक्त, शुद्धियुक्त बनून संपूर्ण उत्तम प्रशंसा करण्यायोग्य कर्म करण्यास समर्थ असतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Three are the supreme manifestations of the generous refulgent Agni, true, lovely and universally cherished which arise and shine. Pervasive everywhere in endless space in the presence of the infinite divine lord of the universe, he shines pure, refulgent, generous and beautiful.$(This mantra refers to the various manifestations of cosmic energy which is the existential potential of the Supreme Lord Creator operating at different levels in different modes. In other words, we may call it the manifestations of Adi-Shakti, the Lord’s consort Prakrti, originally manifesting as sattva, rajas, and tamas.$On earth, Bhuloka, it is fire and magnetic energy, which is agni. In the middle regions of the sky, Bhuvahloka, it is electrical energy, which is vayu. In the higher regions of light, Svahloka, it is aditya, solar energy. The sun too manifests in three different phases, at dawn, at noon and in the evening when it is setting. The efficacy of the sun in these three phases is different.$At the individual human level, it is physical energy, mental energy and spiritual energy. In yet another way it is the vital heat which maintains the physical body, i.e., annamaya kosha; it is pranic energy which maintains the pranamaya kosha and the manomaya kosha; and it is the higher psychic energy which maintains the vijnanamaya kosha and the anandamaya kosha. Of these three, one feeds, the other energises, and the third illumines.$However, mantras such as this have to be interpreted in a state of meditation, and since meditation is the birth-right of every human being, we are free to divine into the mystery of the mantric vision in our experiential way.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Agni is compared with the attributes of a learned person.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! only a man full of divine qualities rules over all, whose births (manifestations) are truthful desirable and exalted like those of electricity etc. One Who is bright, pure, radiant, master of all, blessed entirely with ideal virtues, actions and temperament, dwelling in the Infinite God, (meditating upon) by performing prayers thrice in the morning, evening and night. He runs the kingdom efficiently.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only that man is born in a noble family when his actions are good. As Agni (in the form of lightning) is in the infinite firmament, so he who always meditates consciously upon the Infinite God, becomes full of knowledge and pure. He is able to perform all good and admirable deeds.
Foot Notes
(परिवीतः ) परितः सर्वतो व्याप्तशुभगुणकर्मस्वभावः । = Endowed on all sides with good virtues, actions and temperament. (अनन्ते ) परमात्मन्याकाशे वा । सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् ( तैत्तिरीयोपनिषदि ) = In Infinite God or the sky.
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