ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
ते म॑र्मृजत ददृ॒वांसो॒ अद्रिं॒ तदे॑षाम॒न्ये अ॒भितो॒ वि वो॑चन्। प॒श्वय॑न्त्रासो अ॒भि का॒रम॑र्चन्वि॒दन्त॒ ज्योति॑श्चकृ॒पन्त॑ धी॒भिः ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठते । म॒र्मृ॒ज॒त॒ । द॒दृ॒ऽवांसः॑ । अद्रि॑म् । तत् । ए॒षा॒म् । अ॒न्ये । अ॒भितः॑ । वि । वो॒च॒न् । प॒श्वऽय॑न्त्रासः । अ॒भि । का॒रम् । अ॒र्च॒न् । वि॒दन्त॑ । ज्योतिः॑ । च॒कृ॒पन्त॑ । धी॒भिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते मर्मृजत ददृवांसो अद्रिं तदेषामन्ये अभितो वि वोचन्। पश्वयन्त्रासो अभि कारमर्चन्विदन्त ज्योतिश्चकृपन्त धीभिः ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठते। मर्मृजत। ददृऽवांसः। अद्रिम्। तत्। एषाम्। अन्ये। अभितः। वि। वोचन्। पश्वऽयन्त्रासः। अभि। कारम्। अर्चन्। विदन्त। ज्योतिः। चकृपन्त। धीभिः॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! येऽस्माकं मनुष्या पितरोऽद्रिं ददृवांसः किरणा इवास्मान् मर्मृजतैषामन्ये तदभितो विवोचन् पश्वयन्त्रासः सन्तः कारमभ्यर्चन् धीभिर्ज्योतिर्विदन्त सर्वेषु चकृपन्त ते सर्वैः पूज्यास्स्युः ॥१४॥
पदार्थः
(ते) (मर्मृजत) शुद्धा भूत्वा शोधयन्ति (ददृवांसः) विदारकाः (अद्रिम्) मेघम् (तत्) तस्मात् (एषाम्) मध्ये (अन्ये) भिन्नाः (अभितः) सर्वतोऽभिमुखाः (वि) (वोचन्) उपदिशन्ति (पश्वयन्त्रासः) पश्वानि दृष्टानि यन्त्राणि यैस्ते (अभि) (कारम्) शिल्पकृत्यम् (अर्चन्) सत्कुर्वन्ति (विदन्त) जानन्ति (ज्योतिः) प्रकाशम् (चकृपन्त) कृपालवो भवन्ति (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा ॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये वेदोपवेदाङ्गोपाङ्गपारगाश्शिल्पविद्याविदो विद्वांसः कृपया सर्वान् सुशिक्षामुपदिश्य विदुषः संपादयेयुस्ते सर्वैः सत्कर्त्तव्याः स्युः ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो हम लोगों के मनन करने और पालन करनेवाले (अद्रिम्) मेघ के (ददृवांसः) तोड़नेवाले किरणों के सदृश हम लोगों को (मर्मृजत) शुद्ध होकर शुद्ध करते हैं (एषाम्) इसके मध्य में (अन्ये) दूसरे लोग (तत्) इस कारण (अभितः) चारों ओर से सम्मुख (वि, वोचन्) उपदेश देते (पश्वयन्त्रासः) देखे हैं, यन्त्र जिन्होंने ऐसे होते हुए (कारम्) शिल्पकृत्य का (अभि, अर्चन्) सत्कार करते (धीभिः) बुद्धियों वा कर्मों से (ज्योतिः) प्रकाश को (विदन्त) जानने और सबों में (चकृपन्त) कृपालु होते हैं (ते) वे सब लोगों से सत्कार पाने योग्य होवें ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो वेद, उपवेद, अङ्ग और उपाङ्गों के पार जाने और शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् लोग कृपा से सब को उत्तम प्रकार शिक्षा का उपदेश करके विद्यायुक्त करें, वे सब लोगों से सत्कार करने योग्य होवें ॥१४॥
विषय
अद्रिं ददृवांसः
पदार्थ
[१] (ते) = वे गतमन्त्र में वर्णित 'पितर मनुष्य' (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (ददृवांसः) = विदीर्ण करते हुए (मर्मृजत) अपने जीवन का शोधन करते हैं। (एषाम्) = इन विद्या के प्रकाश के द्वारा अविद्यान्धकार के पर्वत को छिन्न-भिन्न करनेवाले मनुष्यों के (तद्) = उस अविद्या पर्वत भेदन व जीवन शोधन के कार्य को (अन्ये) = अन्य लोग (अभितः) = चारों ओर (विवोचन्) = प्रशंसित करते हैं। इनके इस कार्य की सब ओर प्रशंसात्मक शब्दों में चर्चा होती है । [२] 'काम: पशुः, क्रोधः पशुः' इन उपनिषद् शब्दों के अनुसार 'काम-क्रोध' पशु हैं । (पश्वयन्त्रासः) - इन काम-क्रोध से वशीभूत न किये जानेवाले 'पितर मनुष्य' कारम् उस सृष्टिकर्ता प्रभु की (अभि अर्चन्) = दिन के दोनों ओर प्रातः सायं अर्चना करते हैं। वस्तुतः यह प्रभु स्मरण ही इन्हें काम-क्रोध के वशीभूत नहीं होने देता। [३] इस प्रकार प्रभु स्मरण को करते हुए ये (ज्योतिः विदन्त) = ज्ञान की ज्योति को प्राप्त करते हैं। (च) = और (धीभिः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा (चकृपन्त) = [कृपू सामर्थ्य] अपने को सामर्थ्य सम्पन्न [शक्तिशाली] बनाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- अज्ञान-पर्वत का विदारण करके जीवन का शोधन करनेवाले लोग प्रभु स्मरण करते हुए और काम-क्रोध के वशीभूत न होते हुए, ज्योति को प्राप्त करते हैं और ज्ञानपूर्वक कर्मों द्वारा शक्तिशाली बनते हैं ।
विषय
शिक्षकों और संचालकों के कत्र्त्तव्य ।
भावार्थ
(ते) वे विद्वान् लोग ( अद्रिं ) मेघ को रश्मियों के समान, अभेद्य अज्ञान को ( ददृवांसः ) विदारण या छिन्न भिन्न करते हुए ( मर्मृजत ) अपने को निरन्तर शुद्ध करते रहें । ( एषाम् ) इनमें से ही ( अन्ये ) कुछ विद्वान् लोग ( अभितः ) सब ओर ( तत् ) उस परमात्मा और आत्मा का ( वि वोचन् ) विविध प्रकार से उपदेश किया करें । वे ( पश्वयन्त्रासः ) देखने वाले यन्त्रों से युक्त या नाना यन्त्रों का साक्षात् करने वाले, अथवा देखने वाली इन्द्रियों को अपने अधीन नियन्त्रित करने वाले जितेन्द्रिय होकर ( कारम् अभि ) कर्त्ता, विश्व के निर्माता परमेश्वर को साक्षात् करके ( अर्चन् ) उसकी स्तुति करें । अथवा ( पश्वयन्त्रासः ) नाना देखने के दूरदर्शक और सूक्ष्मदर्शक यन्त्रों से सम्पन्न होकर ( कारम् अभि अर्चन् ) परमेश्वरीय नाना शिल्पों को प्राप्त करें और उनका उपदेश करें । और ( धीभिः ) बुद्धियों से ( ज्योतिः विदन्त ) दूरस्थ नक्षत्रादि ज्योति का ज्ञान करें वा ज्ञानमय ज्योति को ( विदन्त ) प्राप्त करें, जानें । और ( धीभिः ) बुद्धियों और कर्मों से ही ( चकृपन्त ) निरन्तर काम करने में समर्थ होवें । ( २ ) वीर पुरुष ( ददृवांसः ) शत्रुओं को विदारण करते हुए ( अद्रिं ) वज्रादि शस्त्र को चमकावें । उनमें कुछ आज्ञा देने का काम करें दूसरे पशु के समान यन्त्र बनकर या यन्त्रादि रखकर कर्त्ता मुख्य पुरुष की आज्ञा पालन करें। वे ( ज्योतिः ) सुवर्णादि वेतन प्राप्त करें और कर्मों, बुद्धियों से सामर्थ्यवान् बनें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे वेद, उपवेद, अंग, उपांगाना जाणून शिल्पविद्या जाणणारे विद्वान लोक कृपावंत बनून सर्वांना उत्तम प्रकारे शिक्षणाचा उपदेश करून विद्यायुक्त करतात ते सत्कार करण्यायोग्य असतात ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those parental seniors and researchers, breakers of the clouds and shatterers of the mountain caves break open the treasures of energy and refine and intensify the power. Others who watch them and their programme fully describe their achievement how, equipped with practical apparatuses, dedicated to their mission, they discover the light and thus, with their intelligence and sentiment, strengthen and do good to humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The greatness of God is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! our thoughtful and protecting fore-fathers are to be respected and honored by all, who like the sun-rays purify us like the clouds. They are absolutely pure, some of them impart knowledge to all through their sermons. Some becoming well versed in machinery utilize their knowledge for technological and industrial advancement. They attain light because of their wisdom or good actions. They are kind to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! those learned persons should be honored by all because they are well-versed in the Vedas, Vedāngas branches of the Vedas like Ayurveda (Medical sciences), Dhanurveda (Archery) Gandharva Veda (Science of Music) and Arthaveda (Science of arts and crafts) and Upǎngas like the Darshana Shastras (philosophical systems) and technology. Kindly impart good education to all and make them highly learned.
Foot Notes
(मर्मृजत) शुद्धा भूत्वा शोधयन्ति। = Purify others after absolutely purifying themselves. (पश्वयन्त्रास:) पश्वानि दृष्टानि यन्त्राणि यैस्ते | = Those who have seen various machines i.e. good and expert mechanics. (कारम्) शिल्पक्र्त्यम्। = Technical or industrial work.
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