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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ते ग॑व्य॒ता मन॑सा दृ॒ध्रमु॒ब्धं गा ये॑मा॒नं परि॒ षन्त॒मद्रि॑म्। दृ॒ळ्हं नरो॒ वच॑सा॒ दैव्ये॑न व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ वि व॑व्रुः ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । ग॒व्य॒ता । मन॑सा । दृ॒ध्रम् । उ॒ब्धम् । गाः । ये॒मा॒नम् । परि॑ । सन्त॑म् । अद्रि॑म् । दृ॒ळ्हम् । नरः॑ । वच॑सा । दैव्ये॑न । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । उ॒शिजः॑ । वि । व॒व्रुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते गव्यता मनसा दृध्रमुब्धं गा येमानं परि षन्तमद्रिम्। दृळ्हं नरो वचसा दैव्येन व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। गव्यता। मनसा। दृध्रम्। उब्धम्। गाः। येमानम्। परि। सन्तम्। अद्रिम्। दृळ्हम्। नरः। वचसा। दैव्येन। व्रजम्। गोऽमन्तम्। उशिजः। वि। वव्रुरिति वव्रुः॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये नरो मनसा गव्यता दैव्येन वचसा गा दृध्रमुब्धं येमानं सन्तं दृळ्हं सूर्यो व्रजं गोमन्तमद्रिमिवोशिजः सन्तः परि वि वव्रुस्ते कामनां प्राप्नुवन्ति ॥१५॥

    पदार्थः

    (ते) (गव्यता) गोः प्रचुरो गव्यं तदाचरतीव तेन (मनसा) (दृध्रम्) वर्धकम् (उब्धम्) उन्दकम् (गाः) किरणान् (येमानम्) नियन्तारम् (परि) सर्वतः (सन्तम्) वर्त्तमानम् (अद्रिम्) मेघमिव (दृळ्हम्) सुखवर्धकम् (नरः) (वचसा) वचनेन (दैव्येन) दिव्येन (व्रजम्) यो व्रजति तम् (गोमन्तम्) गावः किरणा विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (उशिजः) कामयमानाः (वि) (वव्रुः) विवृण्वति ॥१५॥

    भावार्थः

    यथा किरणा मेघमुन्नयन्ति वर्षयन्ति तथैव विद्वांसो विचारेण दृढज्ञानं जनयन्ति ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (नरः) वीरपुरुष (मनसः) मन से (गव्यता) गौओं के समूह के सदृश आचरण करनेवाले (दैव्येन) सुन्दर (वचसा) वचन से (गाः) किरणों को (दृध्रम्) बढ़ानेवाले (उब्धम्) सब ओर से मिले हुए (येमानम्) नियन्ता अर्थात् नायक (सन्तम्) वर्त्तमान (दृळ्हम्) सुख के बढ़ानेवाले को सूर्य (व्रजम्) चलनेवाले (गोमन्तम्) किरणें विद्यमान जिसमें ऐसे को (अद्रिम्) मेघ के सदृश (उशिजः) कामना करते हुए (परि, वि, वव्रुः) प्रकट करते हैं (ते) वे कामना को प्राप्त होते हैं ॥१५॥

    भावार्थ

    जैसे किरणें मेघ को ऊपर को प्राप्त करती और वर्षाती हैं, वैसे ही विद्वान् जन विचार से दृढ़ ज्ञान को उत्पन्न करते हैं ॥१५॥

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    विषय

    गोमान् व्रज का उद्घाटन

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे गतमन्त्र में वर्णित 'अद्रिं ददृवांसः' (अविद्या) = पर्वत का विदारण करनेवाले (नरः) = लोग (गव्यता मनसा) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करने की कामनावाले मन से तथा (दैव्येन वचसा) = सृष्टि के प्रारम्भ में देव द्वारा दिये गये इन वेदवचनों से, (उशिज:) = ज्ञान प्राप्ति की कामना करते हुए (गोमन्तं व्रजम्) = प्रशस्त ज्ञानवाणी रूप गौवोंवाले बाड़े को (विवव्रुः) = खोल डालते हैं [उद्घाटितवन्तः] । इस बाड़े को खोलकर वे इन ज्ञानवाणी रूप गौवों को प्राप्त करते हैं, अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि [क] ज्ञान प्राप्ति की कामना हो, [ख] वेदवाणी की ओर [प्रभु की वाणी की ओर] हमारा झुकात्र हो । [२] ज्ञान-वाणीरूप गौओं को आवृत कर लेनेवाला यह बाड़ा (दृध्रम्) = गौवों के निर्गमन द्वार का निरोधक है, (उब्धं) = [सं हतं] बड़ा संहत है [large enclave], (गा: येमानम्) = ज्ञान वाणी रूप गौओं को अन्दर रोके हुए है, (परिषन्तम्)- यह चारों ओर है, सब मनुष्यों में यह इन गौवों के निरोध के कार्य को कर रहा है, (अद्रिम्) = [अदृ] इसका विदारण बड़ा कठिन है, (दृढम्) = ये बड़ा मजबूत है उशिक् इसका विदारण करके उन गौवों को प्राप्त करते हैं। इन्हें ही ज्ञान रश्मियों की प्राप्ति होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान प्राप्ति की प्रबल कामना के होने पर ज्ञान रश्मियों के आवरणभूत वासना पर्वत का विदारण करके मेधावी लोग ज्ञान को प्राप्त करते हैं ।

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    विषय

    उनका वरण ।

    भावार्थ

    ( गव्यता मनसा ) उत्तम ज्ञान-वाणियों को प्राप्त करने की इच्छा वाले चित्त से, नाना वेद-वाणी के तुल्य आचरण करने वाले वेद के तुल्य नित्य ज्ञान से ( दृध्रम् ) शिष्यों को बढ़ाने वाले ( उब्धम् ) स्वयं उक्त प्रकार के ज्ञान से पूर्ण वा अन्यों के अज्ञान को नाश करने वाले, ( गाः येमानम् ) किरणों को सूर्य के तुल्य वाणियों और इन्द्रियों के नियम में रखने वाले ( सन्तम् ) सत्स्वभाव ( अद्रिम् ) मेघ के समान ज्ञानवर्षक, पर्वत के समान उच्च प्रकृति वाले, उन्नत, ( दृढं ) दृढ़, ( गोमन्तं ) सूर्यवत् ज्ञानरश्मियों और वेदवाणियों के स्वामी, ( व्रजं ) परम-गन्तव्य वा सर्व विद्या मार्गों में जाने में समर्थ विद्वान आचार्य को ( ते नरः ) वे शिष्य जन ( उशिजः ) ज्ञानों की कामना करते हुए ( दैव्येन वचसा ) देव, ज्ञानदाता के योग्य वचन से आदर पूर्वक ( परिवव्रुः ) प्रार्थना करे उसका चारों ओर से घेर कर उसके समीप रहें, और ( वि वव्रुः ) विविध प्रकार से अपनावें। ( २ ) वीर नायक लोग भी ( गव्यता मनसा ) उसकी आज्ञा पालन की इच्छा और भूमि-प्राप्ति की इच्छा वाले चित्त से ऐश्वर्य के धारक ऐश्वर्यपूर्ण भूमियों के विजेता, दृढ, भूमि के स्वामी, सर्वोपगम्य पुरुष को देवोचित, वा राजोचित आदर युक्त वचन से नायकरूप से वरें । ( ३ ) इसी प्रकार विद्वानजन परमेश्वर को स्तुति वाणी से युक्त चित्त से बरें । ( दृध्रं ) वह प्रभु जगत् को धारण करता, ( उब्धं ) व्यापता है । समस्त लोकों, सूर्यो का नियन्ता, सत् रूप मेघ तुल्य आनन्दघन, दृढ़, सर्वोपगम्य परमपद और ( गोमान् ) स्वयं जीवों का स्वामी है, सब उसकी स्तुति करें । इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी किरणे मेघांना वर्धित करून वृष्टी करवितात, तसेच विद्वान लोक विचार करून दृढ ज्ञान उत्पन्न करतात ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    They, best of men, leaders and impassioned pioneers, with a searching mind pursuing the light concentrate and meditate on the sun, all pervasive, ocean deep, strong and bottomless treasure hold of infinite light, language and knowledge, holding and at the same time controlling and directing the radiation of light rays, and they, with words of divine vision and mysterious meaning open up and reveal the wealth of light, word and knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are further highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The men with pure mind and good speech and benevolent like the cows, willingly choose a person who is like the sun that extends and unites the rays and is under the Command of God, Who controls the universe and augments. Such men get all their noble desires fulfilled. They get them fulfilled like the cloud moved by the sun rays.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun-rays raise up and cause the clouds to rain. In the same manner, the enlightened persons generate positive knowledge by constant and deep thoughts.

    Foot Notes

    (दुध्रम् ) वर्धकम् । = Augmenter. (उशिज:) कामयमाना:। = Willing, desiring.

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