ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 10
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिग्बृहती
स्वरः - मध्यमः
पर्षि॑ तो॒कं तन॑यं प॒र्तृभि॒ष्ट्वमद॑ब्धै॒रप्र॑युत्वभिः। अग्ने॒ हेळां॑सि॒ दैव्या॑ युयोधि॒ नोऽदे॑वानि॒ ह्वरां॑सि च ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठपर्षि॑ । तो॒कम् । तन॑यम् । प॒र्तृऽभिः॑ । त्वम् । अद॑ब्धैः । अप्र॑युत्वऽभिः । अग्ने॑ । हेलां॑सि । दैव्या॑ । यु॒यो॒धि॒ । नः॒ । अदे॑वानि । ह्वरां॑सि । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्षि तोकं तनयं पर्तृभिष्ट्वमदब्धैरप्रयुत्वभिः। अग्ने हेळांसि दैव्या युयोधि नोऽदेवानि ह्वरांसि च ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठपर्षि। तोकम्। तनयम्। पर्तृऽभिः। त्वम्। अदब्धैः। अप्रयुत्वऽभिः। अग्ने। हेलांसि। दैव्या। युयोधि। नः। अदेवानि। ह्वरांसि। च ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः के सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यतस्त्वमप्रयुत्वभिरदब्धैः पर्तृभिर्नस्तोकं तनयं पर्षि। अदेवानि दैव्या हेळांसि ह्वरांसि च युयोधि तस्मात् सत्कर्तव्योऽसि ॥१०॥
पदार्थः
(पर्षि) पालयसि (तोकम्) सद्योजातमपत्यम् (तनयम्) सुकुमारम् (पर्तृभिः) पालकैः (त्वम्) (अदब्धैः) अहिंसनैः (अप्रयुत्वभिः) अविभक्तैः (अग्ने) अध्यापक (हेळांसि) अनादररूपाणि (दैव्या) देवेषु प्रयुक्तानि (युयोधि) वियोजय (नः) अस्माकम् (अदेवानि) अशुद्धानि (ह्वरांसि) कुटिलानि कर्माणि (च) ॥१०॥
भावार्थः
येऽध्यापकोपदेशका अध्यापनोपदेशाभ्यां शुभान् गुणान् ग्राहयित्वा सर्वेषां दोषान्निवारयन्ति त एव सर्वदा सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) पढ़ानेवाला ! जिस कारण (त्वम्) आप (अप्रयुत्वभिः) न मिले हुए अर्थात् अलग-अलग विद्यमान (अदब्धैः) हिंसारहित (पर्तृभिः) पालना करनेवाले व्यवहारों से (नः) हमारे (तोकम्) शीघ्र उत्पन्न हुए सन्तान वा (तनयम्) सुन्दर कुमार की (पर्षि) पालना करते हो और (अदेवानि) अशुद्ध (दैव्या) विद्वानों में कहे गये (हेळांसि) अनादरों और (ह्वरांसि) कुटिल कर्मों को (च) भी (युयोधि) अलग करते हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥१०॥
भावार्थ
जो अध्यापक वा उपदेशक पढ़ाने तथा उपदेश करने से शुभ गुणों को ग्रहण करा कर सब के दोषों का निवारण कराते हैं, वे ही सदा सत्कार करने योग्य होते हैं ॥१०॥
विषय
विश्वदोहस्, विश्व भोजस्, वेदवाणी का गोवत् दोहन ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) आगे सन्मार्ग पर ले चलने हारे ! नायक ! विद्वन् ! प्रभो ! तू ( अदब्धैः ) अहिंसक, दम्भादि वृत्तियों से रहित, (अप्र-युत्वभिः ) कभी भी पृथक् न होने वाले, सदा के संगी, (पर्तृभिः) पालक पुरुषों द्वारा ( तनयं तोकं) पुत्र पौत्रवत् प्रजाजन को ( पर्षि ) पालन, और ज्ञान धनादि से पूर्ण कर। और ( नः ) हमारे ( दैव्या) विद्वानों के प्रति उत्पन्न हुए ( हेडांसि ) अनादर और क्रोध आदि के भावों को (च) और ( अदेवानि ह्वरांसि ) हमारे अविद्वानों दुष्टों के योग्य कुटिल कर्मों को भी ( युयोधि ) हम से दूर कर । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
अदिव्य भावनाएँ व आधिदैविक कष्ट
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (अदब्धैः) = अहिंसित व (अप्रयुत्वभिः) = अविच्छिन्न, अपृथग् भूत [without gap] (पर्तृभिः) = पालन क्रियाओं के द्वारा (तोकम्) = हमारे पुत्रों को व (तनयम्) = पौत्रों को (पर्षि) = पालित करके पूरित करिये । [२] हे अग्ने ! (दैव्या हेडांसि) = देवों के क्रोधों को (नः युयोधि) = हमारे से पृथक् करिये । हमें सब देवों की अनुकूलता प्राप्त हो । आधिदैविक कष्टों से हम आक्रान्त न हों। (च) = और (अदेवानि) = अदिव्य, हमारे जीवनों को अदिव्य बनानेवाले (ह्वरंसि) = कुटिल भावों को हमारे से दूर करिये। अदिव्य भावों का दूरीकरण ही आधिदैविक आपत्तियों से बचने का साधन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से रक्षित होकर हमारे पुत्र-पौत्र भी पवित्र जीवनवाले हों। हमारे जीवनों में अदिव्य भाव न आ जायें और हम आधिदैविक कष्टों से बचे रहें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे अध्यापक व उपदेशक अध्यापन व उपदेश करून शुभ गुण ग्रहण करून सर्वांच्या दोषांचे निराकरण करतात तेच सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and culture, you cleanse, refine and enrich our children and teenagers with all nourishments and safeguards for body, mind and soul with unfailing and unchallengeable modes and methods of education and refinement. Resist and overcome the passions and negativities which attract natural wrath and fight out impious temptations from us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who should be honored by men-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened teacher ! you are purifier like the fire with undivided and sustaining non-violent acts, you nourish our infants and youths. Remove from us impure and crooked actions and insulting behavior done towards the enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only those teachers and preachers are ever worthy of respect, who make their pupils virtuous and remove their evils.
Foot Notes
(हेडासि) अनादररूपाणि । हेडइति क्रोधनाम (NG 2, 13)। = Insulting actions. Anger हेड़-अनादरे (भ्वा.)= Insult. (क्षरासि) कुटिलानि कर्माणि । हवृ-कोटिल्ये (भ्वा०) । Crooked acts. ( अबन्धै:) अहिंसनं । दभ्नोति बधकर्मा (NG 2, 19)। = Non-violent acts. (अप्रयुस्वभिः) (अविभक्ते:) | = Undivided.
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