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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - आर्चीजगती स्वरः - निषादः

    ऊ॒र्जो नपा॑तं॒ स हि॒नायम॑स्म॒युर्दाशे॑म ह॒व्यदा॑तये। भुव॒द्वाजे॑ष्ववि॒ता भुव॑द्वृ॒ध उ॒त त्रा॒ता त॒नूना॑म् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊर्जः । नपा॑तम् । सः । हि॒न । अ॒यम् । अ॒स्म॒ऽयुः । दाशे॑म । ह॒व्यऽदा॑तये । भुव॑त् । वाजे॑षु । अ॒वि॒ता । भुव॑त् । वृ॒धः । उ॒त । त्रा॒ता । त॒नूना॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जो नपातं स हिनायमस्मयुर्दाशेम हव्यदातये। भुवद्वाजेष्वविता भुवद्वृध उत त्राता तनूनाम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जः। नपातम्। सः। हिन। अयम्। अस्मऽयुः। दाशेम। हव्यऽदातये। भुवत्। वाजेषु। अविता। भुवत्। वृधः। उत। त्राता। तनूनाम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽयमस्मयुर्हव्यदातयेऽविता भुवद्वाजेष्वविता भुवत् वृधो रक्षको भुवदुत तनूनां त्राता भुवत् तमूर्जो नपातं संरक्ष्य वयं सुखं दाशेम स हिनाऽस्मभ्यं सुखं दद्यात् ॥२॥

    पदार्थः

    (ऊर्जः) पराक्रमस्य (नपातम्) अपातयितारमनाशकम् (सः) (हिन) खलु (अयम्) (अस्मयुः) अस्मान् कामयमानः (दाशेम) दद्याम (हव्यदातये) दातव्यदानाय (भुवत्) भवेत् (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (अविता) रक्षकः (भुवत्) भवेत् (वृधः) वृद्धिकरः (उत) (त्राता) पालकः (तनूनाम्) शरीराणाम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे प्रजासेनाजना ! यो राजा सङ्ग्रामेऽसङ्ग्रामे च सर्वेषां रक्षकः सततं भवेत्तदनुकूलं वर्त्तित्वा वयं तस्मै पुष्कलं सुखं दद्याम ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा और प्रजाजन परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अयम्) यह (अस्मयुः) हम लोगों की कामना करनेवाला तथा (हव्यदातये) देने योग्य दान के लिये (अविता) रक्षा करनेवाला (भुवत्) होवे और (वाजेषु) सङ्ग्रामों में रक्षा करनेवाला (भुवत्) हो तथा (वृधः) वृद्धि करने वा रक्षा करनेवाला हो (उत) और (तनूनाम्) शरीरों का (त्राता) पालन करनेवाला हो उसको (ऊर्जः) पराक्रम के (नपातम्) न पातन कराने अर्थात् न विनाश करानेवाले की अच्छे प्रकार रक्षा कर हम सुख (दाशेम) देवें (सः, हिन) वही हमारे लिये सुख देवे ॥२॥

    भावार्थ

    हे प्रजासेनाजनो ! जो राजा सङ्ग्राम वा असङ्ग्राम में सबकी रक्षा करनेवाला निरन्तर हो, तनुकूल वर्ताव कर हम लोग उसके लिये पुष्कल सुख देवें ॥२॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सः हिन ) वह निश्चय से ( अस्मयुः ) हमारा प्रिय स्वामी, ( तनूनाम् ) हमारे शरीरों का ( वाजेषु ) संग्रामों में ( अविता ) रक्षक ( भुवत् ) हो । वह ( वृधः भुवत् ) हमारा बढ़ाने हारा और ( त्राता ) पालक भी ( भुवत् ) हो । हम उस (ऊर्जः नपातम् ) बल के पुत्र, बलवान् पिता के पुत्र, बल को नष्ट न होने देने वाले नायक को प्रस्तुत करके ( हव्य-दातये ) कर आदि ग्राह्य पदार्थों को देने के लिये तैयार रहें और अपना अंश नियम से उसे ( दाशेम ) देते रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अविता-वृधः-त्राता

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र से 'प्रशंसिषम्' क्रिया का अध्याहर करके यहाँ अर्थ इस प्रकार लेना है कि मैं (ऊर्जो नपातम्) = शक्ति को न नष्ट होने देनेवाले उस प्रभु को प्रशंसित करता हूँ, क्योंकि (सः) = वह (हि न) = निश्चय से [निपातद्वयम् हि० ९] (अयम्) = ये प्रभु (अस्मयुः) = हमारे हित की कामनावाले हैं। उस (हव्यदातये) = हव्य पदार्थों के देनेवाले प्रभु के लिये (दाशेम) = हम अपना अर्पण करें। [२] ये प्रभु (वाजेषु) = संग्रामों में (अविता भुवत्) = रक्षक होते हैं । (वृधः भुवत्) = हमारे वर्धक होते हैं । (उत) = और (तनूनां त्राता) = हमारे शरीरों के रक्षक होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु शक्ति को देकर हमारा रक्षण करते हैं। वे ही संग्रामों में हमें विजयी बनाते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे प्रजा व सेनेतील लोकांनो ! जो राजा युद्ध व शांततेत सर्वांचा रक्षक असतो व सतत त्यानुसार वागतो त्याला आम्हीही खूप सुख द्यावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let us honour and serve Agni, infallible cosmic light and energy, power that is surely our own, lover and benefactor in matters of creation and development. May Agni be our protector and promoter in our struggles for progress and may he be the saviour and cleanser of our health of body, mind and social order.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the kings and their subjects deal with one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! let us protect that king, who, desires or loves us, who is our protector in the battles and otherwise, for giving what is worth-giving, who is our guardian and source of our strength, who is savior of our bodies and who does not allow our strength to decay. Let us bestow happiness on him and let him give happiness and joy to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men of the army and other people! let us give abundant happiness to that king, who, is the protector of all in the battle field and outside, being agreeable to him.

    Foot Notes

    (ऊर्ज: नपातम्) पराक्रमस्य भवातयितारमनाशकम् । = Not allowing us to waste our energy. (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु । वाच इति बलनाम (NG 2, 9) अत वल साध्य सङामार्गे प्रयोगः । = In the battles. (हृष्य-दातये) दातम्यदानाय । हु-दानादनयोः आदाने च (जुहा.) अत्र दानार्थः । = For giving what is worth-giving.

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