ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 21
स॒द्यश्चि॒द्यस्य॑ चर्कृ॒तिः परि॒ द्यां दे॒वो नैति॒ सूर्यः॑। त्वे॒षं शवो॑ दधिरे॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॑ म॒रुतो॑ वृत्र॒हं शवो॒ ज्येष्ठं॑ वृत्र॒हं शवः॑ ॥२१॥
स्वर सहित पद पाठस॒द्यः । चि॒त् । यस्य॑ । च॒र्कृ॒तिः । परि॑ । द्याम् । दे॒वः । न । एति॑ । सूर्यः॑ । त्वे॒षम् । शवः॑ । द॒धि॒रे॒ । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् । म॒रुतः॑ । वृ॒त्र॒ऽहम् । शवः॑ । ज्येष्ठ॑म् । वृ॒त्र॒ऽहम् । शवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सद्यश्चिद्यस्य चर्कृतिः परि द्यां देवो नैति सूर्यः। त्वेषं शवो दधिरे नाम यज्ञियं मरुतो वृत्रहं शवो ज्येष्ठं वृत्रहं शवः ॥२१॥
स्वर रहित पद पाठसद्यः। चित्। यस्य। चर्कृतिः। परि। द्याम्। देवः। न। एति। सूर्यः। त्वेषम्। शवः। दधिरे। नाम। यज्ञियम्। मरुतः। वृत्रऽहम्। शवः। ज्येष्ठम्। वृत्रऽहम्। शवः ॥२१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 21
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कस्य राज्ञः पुण्यकीर्त्तिर्जायत इत्याह ॥
अन्वयः
यस्य राज्ञश्चर्कृतिर्देवः सूर्यो द्यां न सद्यो विनयं पर्य्येति यस्य मरुतस्त्वेषं नाम यज्ञियं शवो दधिरे वृत्रहं शवो ज्येष्ठं वृत्रहं शवश्चिद्दधिरे तस्य सर्वत्रैव विजयो सूर्य्यवत् कीर्तिः प्रसरति ॥२१॥
पदार्थः
(सद्यः) (चित्) अपि (यस्य) (चर्कृतिः) भृशमुत्तमा क्रिया (परि) सर्वतः (द्याम्) प्रकाशम् (देवः) देदीप्यमानः (न) इव (एति) प्राप्नोति गच्छति वा (सूर्यः) सविता (त्वेषम्) देदीप्यमानम् (शवः) बलम् (दधिरे) दधति (नाम) संज्ञाम् (यज्ञियम्) यज्ञसम्पादकम् (मरुतः) मनुष्याः (वृत्रहम्) शत्रुनाशकम् (शवः) बलम् (ज्येष्ठम्) प्रवृद्धम् (वृत्रहम्) धनप्रापकम् (शवः) बलम् ॥२१॥
भावार्थः
यो राजा विद्याविनययुक्तः पुरुषार्थी दृढप्रतिज्ञो जितेन्द्रियो धार्मिकः सत्यवादी सन् धार्मिकान् विदुषोऽधिकारे संस्थाप्य पुत्रवत्प्रजाः पालयति तस्याऽत्र जगति सूर्य्यवत् कीर्तिः प्रसरति ॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
किस राजा की पुण्यरूप कीर्त्ति होती है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यस्य) जिस राजा की (चर्कृतिः) निरन्तर उत्तम क्रिया (देवः) देदीप्यमान (सूर्यः) सविता और (द्याम्) प्रकाश के (न) समान (सद्यः) शीघ्र विनय को (परि, एति) सब ओर से प्राप्त होती वा जिसके (मरुतः) प्रजा जन (त्वेषम्) देदीप्यमान (नाम) संज्ञा (यज्ञियम्) यज्ञ सम्पादक और (शवः) बल को (दधिरे) धारण करते हैं वा (वृत्रहम्) शत्रुओं के नाश करनेवाले (शवः) बल वा (ज्येष्ठम्) प्रशंसित (वृत्रहम्) धन प्राप्त करनेवाले (शवः, चित्) बल को भी धारण करते हैं, उसका सर्वत्र विजय होता है ॥२१॥
भावार्थ
जो राजा विद्या और विनय से युक्त, पुरुषार्थी, दृढप्रतिज्ञा करनेवाला, जितेन्द्रिय, धार्मिक, सत्यवादी होकर धार्म्मिक विद्वानों को अधिकार में संस्थापन कर पुत्र के समान प्रजाजनों को पालता है, उसकी इस जगत् में सूर्य्य के समान कीर्ति फैलती है ॥२१॥
विषय
तेजस्वी का लक्षण ।
भावार्थ
( द्याम् परि सूर्यः नः ) आकाश में जिस प्रकार सूर्य उदय को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो ( देव:) तेजस्वी, विजिगीषु राजा (द्यां परि एति) भूमि पर विचरता है, और (यस्य चित् सद्यः चकृतिः) जिसका कर्म सामर्थ्य शीघ्र ही फल देता है, वह पुरुष तेजस्वी होता है। उसके अधीन ही ( मरुतः ) वीर मनुष्य ( त्वेषं ) अति दीप्तियुक्त ( शवः ) बल जौर ( वृत्रहं नाम ) शत्रु हननकारी नाम, ख्याति और ( यज्ञियं ) यज्ञ, आत्मत्याग और परस्पर संगठन से उत्पन्न ( शवः ) बल को भी ( दधिरे ) धारण करें, क्योंकि ( वृत्रहं शवः ) विध्नकारी एवं बढ़ते शत्रु को नाश कर देने वाला बल ही ( ज्येष्ठं ) सब से बड़ा, श्रेष्ठ होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
ज्ञान-बल
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिस मरुद्गण की, प्राणसमूह की (चर्कृतिः) = क्रिया (सद्यः चित्) = शीघ्र ही (द्याम्) = द्युलोक में (परि एति) = चारों ओर प्राप्त होती है, उसी प्रकार (न) = जैसे कि (देवः सूर्यः) = यह प्रकाशमय सूर्य द्युलोक में प्राप्त होता है। प्राणसाधना से अशुद्धियों का नाश होकर ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है, मस्तिष्क रूप द्युलोक ज्ञानरूप सूर्य से जगमगा उठता है। [२] (मरुतः) = ये प्राण (त्वेषम्) = दीप्त (नाम) = शत्रुओं के नमानेवाले (यज्ञियम्) = संगतिकरण योग्य (शवः) = बल को (दधिरे) = धारण करते हैं। उस (शवः) = बल को धारण करते हैं जो (वृत्रहम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाला है। यह (वृत्रहं शवः) = वासना को विनष्ट करनेवाला बल (ज्येष्ठम्) = प्रशस्यतम है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से मस्तिष्क रूप द्युलोक ज्ञानसूर्य से चमकता है और शरीर वासनाओं के विनाशक प्रशस्यतम बल से युक्त होता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा विद्या व विनयाने युक्त असून पुरुषार्थी, दृढप्रतिज्ञ, जितेंद्रिय, धार्मिक, सत्यवादी असतो तो धार्मिक विद्वानांना अधिकार देतो व प्रजेचे पालन करतो. त्याची सूर्याप्रमाणे कीर्ती होते. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The ruler, whose action is instant, constant and ever true, whose people, leaders and warriors command sure, brilliant and yajnic force and power of the highest order to dispel darkness, evil and wickedness, rises and shines like the bright sun across the heavens.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Which king achieves great glory is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That king achieves victory, everywhere, whose good deeds go towards or accompanied by humility as the sun creates light, whose bright and sacred name and strength is upheld by brave men which destroys sinful enemies, the greatest strength that leads to wealth or prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The glory of that king spreads in this whole world like the light the sun, who is endowed with knowledge and humility, is industrious, is firm in carrying out his promise, is self-controlled, righteous and truthful and who nourishes his subjects like his own children, having appointed righteous and highly learned men-in charge of various departments.
Foot Notes
(त्वेषम्) देदीप्यमानम् । स्विष-दीप्तौ (भ्वा.) । Bright, brilliant. (वृत्रहम्) धनप्रापकम् । वृतम् इति धननाम (NG 2, 10) अत्र गत्यर्थमादाय तस्य प्राप्तयर्थ ग्रहणम् । तेनधन प्रापकम् इति व्याख्या । अपर पक्षे पाप्मा वै वृत्रः (Stph Br. 6, 4, 2, 3)। = Conveyor of wealth or prosperity. (वृत्रहम् शत्रु नाशकम् । हन-हिंसागत्योः (अ) सेन पापी शत्रु वृत्रः। हिंसार्थग्रहणम् । = Destroyer of enemies. (शनः) बलम्। = Strength.
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