ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 17
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - पूषा
छन्दः - भुरिग्बृहती
स्वरः - मध्यमः
म का॑क॒म्बीर॒मुद्वृ॑हो॒ वन॒स्पति॒मश॑स्ती॒र्वि हि नीन॑शः। मोत सूरो॒ अह॑ ए॒वा च॒न ग्री॒वा आ॒दध॑ते॒ वेः ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठमा । का॒क॒म्बीर॑म् । उत् । वृ॒हः॒ । वन॒स्पति॑म् । अश॑स्तीः । वि । हि । नीन॑शः । मा । उ॒त । सूरः॑ । अह॒रिति॑ । ए॒व । च॒न । ग्री॒वा । आ॒ऽदध॑ते । वेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
म काकम्बीरमुद्वृहो वनस्पतिमशस्तीर्वि हि नीनशः। मोत सूरो अह एवा चन ग्रीवा आदधते वेः ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठमा। काकम्बीरम्। उत्। वृहः। वनस्पतिम्। अशस्तीः। वि। हि। नीनशः। मा। उत। सूरः। अहरिति। एव। चन। ग्रीवा। आऽदधते। वेः ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 17
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः किं न कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वंस्त्वं काकंबीरं वनस्पतिं मोद्वृहोऽशस्तीर्हि वि नीनशः सूरोऽहरेवा यथा वेर्ग्रीवाश्चनाऽऽदधते तथोतास्मान् मा पीडय ॥१७॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (काकंबीरम्) काकानां गोपकम् (उत्) (वृहः) उच्छेदयेः (वनस्पतिम्) वटादिकम् (अशस्तीः) अप्रशंसिताः (वि) (हि) खलु (नीनशः) भृशं नाशयेः (मा) (उत) (सूरः) सूर्यः (अहः) दिनम् (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (चन) अपि (ग्रीवाः) कण्ठान् (आदधते) समन्ताद् धरन्ति (वेः) पक्षिणः ॥१७॥
भावार्थः
केनापि मनुष्येण श्रेष्ठा वृक्षा वनस्पतयो वा नो हिंसनीया एतत्स्थान् दोषान्निवार्योत्तमाः सम्पादनीयाः, हे मनुष्य ! यथा श्येनेन पक्षिणां ग्रीवा गृह्यन्ते तथा कञ्चिदपि मा दुःखय ॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! आप (काकंबीरम्) कौओं की पुष्टि करनेवाले (वनस्पतिम्) वट आदि वृक्ष को (मा, उत, वृहः) मत उच्छिन्न करो तथा (अशस्तीः) और अप्रशंसित (हि) ही कर्मों की (वि, नीनशः) विशेषता से निरन्तर नाश करो और (सूरः) सूर्य (अहः, एवा) दिन में ही जैसे (वेः) पक्षी के (ग्रीवाः) कण्ठों को (चन) निश्चय से (आदधते) अच्छे प्रकार धारण करते हैं, वैसे (उत) तो हम लोगों को (मा) मत पीड़ा देओ ॥१७॥
भावार्थ
किसी मनुष्य को श्रेष्ठ वृक्ष वा वनस्पति न नष्ट करने चाहियें, किन्तु इनमें जो दोष हों, उनको निवारण करके इन्हें उत्तम सिद्ध करने चाहियें, हे मनुष्य ! जैसे श्येन वाज पक्षी और पखेरूओं की गर्दनें पकड़ घोटता है, वैसे किसी को दुःख न देओ ॥१७॥
विषय
उसकी वनस्पतिवत् स्थिति ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे विद्वन् ! तू ( काकं-बीरम् ) काक आदि नाना पक्षियों को भरण पोषण करने वाले ( वनस्पतिम् ) वट आदि बड़े वृक्ष के तुल्य (काकं-बीरम्) क्षुद्र या छोटे जनों के पालक पुरुष को ( मा उद् बृहः) मत उखाड़ और मत काट । ( अशस्ती: ) अप्रशंसित तथा अयुक्त वचन बोलने वालों को बुरी घासों के समान (वि नीनशः हि ) अवश्य विनष्ट करदे । तू ( सूरः ) प्रजा का शासक, विद्वान् सूर्यवत् तेजस्वी होकर भी ( वेः चन ग्रीवाः आदधते ) व्याध लोग जिस प्रकार पक्षियों की गरदन पकड़ लेते हैं और उसको दुःख देते हैं तूं ( एवा ) उस प्रकार ( आ चन) हमारी कभी गर्दनें मत पकड़ (उत ) और ( मा अहः ) हमें मत मार ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
'काकम्बीर वनस्पति' का अविनाश
पदार्थ
[१] (काकम्बीरं) [ काकानां भर्तारं ] = कौओं के भरण करनेवाले (वनस्पतिम्) = वृक्ष रूप मुझे, अर्थात् परिवार में छोटे-बड़े कितने ही व्यक्तियों को पालनेवाले मुझे (मा उद्धृहः) = मत उखाड़िये, मुझे दीर्घ-जीवन प्रदान करिये । (हि) = निश्चय से (अशस्ती:) = [अशंसनीयाः] अशंसनीय अशुभ बातों को (विनीनश:) = विशेषरूप से नष्ट करिये। अशुभों के विनाश से हमारा जीवन शुभ बने । [२] (उत) = और हे प्रभो! (सूरः) = उत्तम प्रेरणा देनेवाले आप [षू प्रेरणे] (मा अहः) = हमारा [मा हर्षित्] मत हरण करिये । हमें सदा उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराइये, इससे आप हमें वञ्चित मत करिये। एवा चन-ऐसा होने पर ही उपासक लोग (वेः ग्रीवाः आदधते) = [ वि= a horse] इन्द्रियाश्वों की गरदनों को धारण करते हैं, अर्थात् इन इन्द्रियाश्वों को वश में कर पाते हैं। प्रभु प्रेरणा से सशक्त बनने पर इन इन्द्रियों को वश में करने का सम्भव होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम परिवार का उत्तम भरण करते हुए दीर्घजीवी बनें। अशुभों का विनाश करते हुए शुभ जीवनवाले बनें । प्रभु से प्रेरणा प्राप्त करते हुए हम सदा इन्द्रियाओं को वश में रखें।
मराठी (1)
भावार्थ
कोणत्याही माणसाने वृक्ष किंवा वनस्पती नष्ट करू नयेत, तर त्यांच्यामध्ये जे दोष असतील त्यांचे निवारण केले पाहिजे व ते उत्तम केले पाहिजे. हे माणसा, जसा श्येन पक्षी दुसऱ्या पक्ष्यांची मान मुरगाळतो तसे कुणालाही दुःख देऊ नका. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Do not uproot the trees such as the banyan which provide shelter to the poor innocent birds, but do remove the revilers and deplorables. The strong must not hurt the weak and their supports like the hunters who catch birds by the neck.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men not do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person ! do not cut trees (Vata etc.), which give shelter to the crows and other birds. Destroy all evil things and habits. As the falcon cuts the necks of the small birds in day time, do not harm us in that way.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None should cut down good trees and plants. All defects in them should be removed. O men, as a falcon cuts the necks of the birds, do not give such trouble to any one.
Foot Notes
(कॉकंबीरम् ) काकाना मोपकम् । = Giver of shelter to the crows.
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