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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वं न॑श्चि॒त्र ऊ॒त्या वसो॒ राधां॑सि चोदय। अ॒स्य रा॒यस्त्वम॑ग्ने र॒थीर॑सि वि॒दा गा॒धं तु॒चे तु नः॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । चि॒त्रः । ऊ॒त्या । वसो॒ इति॑ । राधां॑सि । चो॒द॒य॒ । अ॒स्य । रा॒यः । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । र॒थीः । अ॒सि॒ । वि॒दाः । गा॒धम् । तु॒चे । तु । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नश्चित्र ऊत्या वसो राधांसि चोदय। अस्य रायस्त्वमग्ने रथीरसि विदा गाधं तुचे तु नः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। नः। चित्रः। ऊत्या। वसो इति। राधांसि। चोदय। अस्य। रायः। त्वम्। अग्ने। रथीः। असि। विदाः। गाधम्। तुचे। तु। नः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसोऽपत्यानि कथं शिक्षेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वसोऽग्ने ! चित्रस्त्वमूत्या नो राधांसि रक्षाऽस्य रायश्चोदय यतस्त्वं विदा रथीरसि तस्मात्तु नस्तुचे गाधं चोदय ॥९॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (नः) अस्माकम् (चित्रः) अद्भुतपुरुषार्थः (ऊत्या) रक्षया (वसो) वासयितः (राधांसि) समृद्धानि धनानि (चोदय) (अस्य) (रायः) धनस्य (त्वम्) (अग्ने) विद्युदिव पुरुषार्थिन् (रथीः) बहुप्रशंसितरथः (असि) (विदाः) विज्ञानवान् (गाधम्) विलोडनम् (तुचे) अपत्याय। तुगित्यपत्यनाम। (निघं०२.२) (तु) (नः) अस्माकम् ॥९॥

    भावार्थः

    हे विद्वन् ! भवान् यथैतेषामस्माकमपत्यानां प्रज्ञाविलोडनेन विद्याप्राप्तिः स्यात्तथाऽनुविधेहि। यथा पुरुषार्थी धनैश्वर्यं प्राप्तुं प्रेरयति तथैव भवाननुशिक्षताम् ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन सन्तानों को कैसे शिक्षा दें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वसो) वास करानेवाले (अग्ने) बिजुली के समान पुरुषार्थी जन (चित्रः) अद्भुत पुरुषार्थ करनेवाले (त्वम्) आप (ऊत्या) रक्षा से (नः) हम लोगों के (राधांसि) समृद्ध धनों की रक्षा करो तथा (अस्य) इसके (रायः) धन की (चोदय) प्रेरणा करो जिस कारण (त्वम्) आप (विदाः) विज्ञानवान् और (रथीः) बहुत प्रशंसायुक्त रथवाले (असि) हैं इस कारण से (तु) फिर (नः) हम लोगों के (तुचे) सन्तान के लिये (गाधम्) बुद्धि विलोडने की प्रेरणा करो ॥९॥

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! आप जैसे इन हमारे सन्तानों की बुद्धि के विलोडने से विद्या प्राप्ति हो, वैसे अनुविधान कीजिये तथा जैसे पुरुषार्थी जन धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करता है, वैसे ही आप शिक्षा दीजिये ॥९॥

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    विषय

    वसु, आचार्य, गृहपति अग्नि । उससे उचित याचना, प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (वसो ) प्रजाओं को भूमि पर बसाने वाले राजन् ! सबको बसाने और सब में बसने वाले प्रभो ! शिष्यादि को अपने अधीन बसाने वाले आचार्य ! गृहपते ! पितः ! ( त्वं ) तू ( ऊत्या ) रक्षा और ज्ञान सामर्थ्य से, वा उसके साथ २ ( नः राधांसि ) हमें नाना ऐश्वर्य ( चोदय ) प्रदान कर । हे (अग्ने ) ज्ञानवन् ! प्रकाशस्वरूप, सर्वप्रकाशक ! तू ( अस्य रायः ) इस ऐश्वर्य का (रथी: असि) महारथी के तुल्य स्वामी है । तू (नः तुचे तु ) हमारे पुत्रादि के लिये भी (गाधं विदाः ) प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य और बुद्धि प्राप्त करा और ( चोदय ) उनको सन्मार्ग में प्रेरित कर !

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    धन व प्रतिष्ठा

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! त्वम् - आप नः = हमारे लिये चित्र:- [चित्+र] ज्ञान को देनेवाले हैं। हे वसो हमें उत्तम निवास को प्राप्त करानेवाले प्रभो! आप ऊत्या रक्षण के हेतु से राधांसि-कार्यसाधक धनों को चोदय- हमारे लिए प्रेरित करिये। [२] हे अग्ने = अग्रेणी प्रभो ! त्वम् - आप ही अस्य रायः = इस सम्पूर्ण धन के रथी: नेता प्राप्त करानेवाले [नी प्रापणो] असि = हैं। आप इन आवश्यक धनों को प्राप्त कराइये और नः- हमारे तुचे सन्तानों के लिये गाधं तु विदा प्रतिष्ठा को अवश्य प्राप्त कराइये। इन धनों का विनियोग हमारे घरों में इस प्रकार हो कि कोई भी [अवाञ्छनीय] प्रभाव हमारे सन्तानों पर न हो। ये धन उनकी प्रतिष्ठा का कारण बनें । सन्तानों के जीवनों को भी प्रतिष्ठावाला बनायें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें ज्ञान दें, धन दें, हमारे संतानो के जीवन को भी प्रतिष्ठावाला बनायें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वाना ! आमच्या संतानाच्या बुद्धीचे मंथन करून विद्याप्राप्ती होईल अशी व्यवस्था कर व जसा पुरुषार्थी माणूस धन व ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी प्रेरणा करतो तसेच तूही शिक्षण दे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, wonderful lord of versatile action, giver of shelter and security of the home, with protection and advancement, inspire and raise our means and materials for success and achievement. O lord of knowledge and vision, you are the guide and pilot of the chariot and wealth and honours of this generation. Give us the message and inspiration of peace, progress and security for our children.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the enlightened men teach their children-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O industrious men ! you are inhibitor of all in good state, you being wonderful, protect our wealth of various kinds with your serving powers. Prompt us to utilize this wealth properly. As you are endowed with true knowledge and perfect master of the chariot (of body), therefore, inspires our children to acquire knowledge by churning.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O scholar ! endeavor in such a manner, as our children my acquire knowledge (by churning their intellect well). As an industrious person urges upon others to acquire wealth, so teach children to learn well.

    Translator's Notes

    So it may also mean besides the the above that 'May our children obtain respect every-where on account of their virtues and have the desire to acquire knowledge and attain God.

    Foot Notes

    (तुचे) अपत्याय । तुकूइत्यपत्यनाम (NG 2,2)। = Children. (गाधम् ) बिलोड़वनम् । गाधृ-प्रतिष्ठालिप्सयोग्रन्थे चं (भ्वा०) । = Churning, Shaking up, agitating.

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