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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 16
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    आ मा॑ पूष॒न्नुप॑ द्रव॒ शंसि॑षं॒ नु ते॑ अपिक॒र्ण आ॑घृणे। अ॒घा अ॒र्यो अरा॑तयः ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मा॒ । पू॒ष॒न् । उप॑ । द्र॒व॒ । शंसि॑षम् । नु । ते॒ । अ॒पि॒ऽक॒र्णे । आ॒घृ॒णे॒ । अ॒घाः । अ॒र्यः । अरा॑तयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मा पूषन्नुप द्रव शंसिषं नु ते अपिकर्ण आघृणे। अघा अर्यो अरातयः ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। मा। पूषन्। उप। द्रव। शंसिषम्। नु। ते। अपिऽकर्णे। आघृणे। अघाः। अर्यः। अरातयः ॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 16
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे पूषन्नाघृणे ! यस्य तेऽपिकर्णेऽहं नु सत्यं शंसिषं सोऽर्यस्त्वमा मा मामुप द्रव य अरातयः स्युस्तान्नु अघाः ॥१६॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (मा) माम् (पूषन्) पुष्टिकर्त्तः (उप) (द्रव) समीपमागच्छ (शंसिषम्) प्रशंसेयम् (नु) सद्यः (ते) तव (अपिकर्णे) आच्छादितश्रोत्रे (आघृणे) सर्वतो दीप्तिमान् (अघाः) हन्याः (अर्यः) स्वामी सन् (अरातयः) अदातारः ॥१६॥

    भावार्थः

    हे पालनीय जन ! त्वं रक्षार्थं मत्सन्निधिमागच्छाऽहञ्च सत्योपदेशेन विचक्षणं कुर्यां वयं सर्वे मिलित्वा दुष्टान् विनाशयेम ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले (आघृणे) सब ओर से प्रकाशमान ! जिन (ते) आपके (अपिकर्णे) ढंपे हुए कर्ण में मैं (नु) शीघ्र सत्य की (शंसिषम्) प्रशंसा करूँ सो (अर्यः) स्वामी हुए आप (आ) सब ओर से (मा) मेरे (उप, द्रव) समीप आओ और जो (अरातयः) न देनेवाले जन हों उन्हें शीघ्र (अघाः) हनिये अर्थात् मारिये ॥१६॥

    भावार्थ

    हे पालनीय जन ! आप रक्षा के लिये मेरे समीप आओ, मैं सत्योपदेश से तुम्हें विचक्षण करूँ तथा हम सब लोग मिल के दुष्टों का विनाश करें ॥१६॥

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    विषय

    विद्वान् शासक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( पूषन् ) राष्ट्र के पोषण करने हारे ! हे (आ-घृणे ) सब दूर तक तेजस्विन् ! वा सब प्रकार से दयाशील ! तू ( मा आ द्रव ) मुझे आदरपूर्वक प्राप्त हो । ( उप द्रव ) अति समीप आ । ( अपि-कर्णे ) तेरे कान के समीप (शंसिषम् ) तुझे मैं उपदेश करता हूं । तू ( अर्यः ) प्रजा का स्वामी होकर ( अरातयः) कर न देने वाले उच्छृङ्खलों और अन्यों को धन न देने वाले दुष्टजनों को (अघाः) दण्डित कर । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु शंसन व शत्रु संहार

    पदार्थ

    [१] हे (पूषन्) = पोषक प्रभो ! (मा आद्रव) = मुझे प्राप्त होइये । (अघाः) = [आहन्तीः] हमारा हनन करनेवाली (अर्यः) = [अभिगन्ती:] आक्रमणकारिणी (अरातयः) = काम-क्रोध आदि शत्रु सेनाओं को (उपद्रव) = उपद्रुत करिये, बाधित करिये। [२] शत्रुओं के बाधन के उद्देश्य से ही मैं (नु) = अब (ते) = आपके (अपिकर्णे) = [कर्णावपिगते] कानों के समीप (शंसिषम्) = शंसन करनेवाला बनूँ । 'अपिकर्णे' यह शब्द इसी भाव का द्योतक है कि मैं आपकी उपासना में स्थित होऊँ । आपकी उपासना में स्थित हुआ-हुआ आपका शंसन करूँ और आपके गुणों का गायन करूँ । शत्रुओं को बाधित करने का यही तो उपाय है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु का शंसन करें। प्रभु हमारे शत्रुओं का बाधन करेंगे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे पालनकर्त्यांनो तुम्ही रक्षणासाठी माझ्याजवळ या, मी सत्योपदेशाने तुम्हाला बुद्धिमान करीन व आपण सर्वजण मिळून दुष्टांचा नाश करू. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord giver of nourishment and sustenance, shining with knowledge and glowing with passion for action, come fast to me and I shall sing of your glory in truth close to your ear. O master of the community, eliminate hate, enmity, adversity and close-heartedness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men deal with one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O nourisher !lcome to me, I praise truth even in your covered ear: You are master of your senses (or servants). Slay them, who are miserly and wicked fellows.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you deserve to be nourished, come to me for protection. I shall place the truth before you. Let us all destroy the wicked unitedly.

    Foot Notes

    (आधृणे) सर्वतो दीप्तिमान् । आ+घु-क्षरण दीप्त्योः (जु.) अत्र दीप्तयर्थ:। = Bright from all sides, shining with virtues. (अरातयः) अदातारः । = Miserly. (अर्यः) स्वामी । अर्य इति ईश्वरनाम (NG 2,22) = Master.

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