ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 12
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
जये॑म का॒रे पु॑रुहूत का॒रिणो॒ऽभि ति॑ष्ठेम दू॒ढ्य॑: । नृभि॑र्वृ॒त्रं ह॒न्याम॑ शूशु॒याम॒ चावे॑रिन्द्र॒ प्र णो॒ धिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठजये॑म । का॒रे । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । का॒रिणः॑ । अ॒भि । ति॒ष्ठे॒म॒ । दुः॒ऽध्यः॑ । नृऽभिः॑ । वृ॒त्रम् । ह॒न्याम॑ । शू॒शु॒याम॑ । च॒ । अवेः॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र । नः॒ । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जयेम कारे पुरुहूत कारिणोऽभि तिष्ठेम दूढ्य: । नृभिर्वृत्रं हन्याम शूशुयाम चावेरिन्द्र प्र णो धिय: ॥
स्वर रहित पद पाठजयेम । कारे । पुरुऽहूत । कारिणः । अभि । तिष्ठेम । दुःऽध्यः । नृऽभिः । वृत्रम् । हन्याम । शूशुयाम । च । अवेः । इन्द्र । प्र । नः । धियः ॥ ८.२१.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (इन्द्र) सेनापते ! भवत्साहाय्येन (कारे) शस्त्रास्त्रविक्षेपणस्थाने संग्रामे (जयेम) जयं करवाम (दूढ्यः, कारिणः) दुर्धियः शत्रून् (अभितिष्ठेम) अभिभवेम (वृत्रम्) वारकं शत्रुम् (नृभिः) नेतृभिः (हन्याम) शातयाम (शूशुयाम, च) एवं च यशसा त्वां वर्धयेम (नः) अस्माकम् (धियः) कर्माणि (प्रावेः) प्ररक्षेः ॥१२॥
विषयः
तत्कृपयैव जयो भवतीति दर्शयति ।
पदार्थः
हे पुरुहूत ! कारे=संग्रामे । कारिणः=हिंसां कुर्वतः शत्रून् । जयेम । दूढ्यः=दुर्धियः । अभितिष्ठेम=अभिभवेम । वृत्रम्=विघ्नम् । नृभिः=पुत्रादिभिः सह । हन्याम । एवञ्च । शूशुयाम=वर्धयेमहि । हे इन्द्र ! नः=अस्माकम् । धियः । आवेः=प्रकर्षेण रक्ष ॥१२ ॥
हिन्दी (5)
पदार्थ
(पुरुहूत) हे अनेकों से आहूत (इन्द्र) सेनापते ! हम लोग आपकी सहायता से (कारे) शस्त्रास्त्रक्षेपणस्थान=संग्राम में “किरतेरधिकरणे घञ्” (जयेम) जय को प्राप्त हों (दूढ्यः, कारिणः) पाप बुद्धिवाले प्रतिपक्षी को (अभितिष्ठेम) पराजित करें (वृत्रम्) वैदिकपथनाशक मनुष्यों को (नृभिः) अपने सैनिकों द्वारा (हन्याम) दण्डित करें, इस प्रकार (शूशुयाम, च) यश द्वारा आपकी वृद्धि करें, अतएव (नः, धियः) आप हमारे कर्मों को (प्रावेः) सुरक्षित करें ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में प्रजाओं की ओर से सेनापति से प्रार्थना है कि हे सेनापते ! आप अपनी रक्षा द्वारा ऐसा सामर्थ्य दें, जिससे हम वेदविरुद्ध अथवा आपके प्रतिकूल चलनेवाले मनुष्यों को पराङ्मुख कर सकें ॥१२॥
विषय
उसकी कृपा से ही जय होता है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(पुरुहूत) हे बहुतों से आहूत ! हे बहुपूज्य ! हे सर्वनिमन्त्रित (कारे) संग्राम में (कारिणः) हिंसा करनेवाले शत्रुओं को (जयेम) जीतें (दूढ्यः) दुर्मति पुरुषों को (अभि+तिष्ठेम) परास्त करें (वृत्रम्) विघ्नों को (नृभिः) पुत्रादिकों के साथ (हन्याम) हनन करें, इस प्रकार शत्रुओं और विघ्नों को परास्त कर (शूशुयाम) जगत् में बढ़ें । (इन्द्र) हे इन्द्र ! (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों और क्रियाओं को (आवेः) अच्छे प्रकार बचाओ ॥१२ ॥
भावार्थ
प्रत्येक उपासक को उचित है कि वह अपने आन्तरिक और बाह्य विघ्नों को शान्त रक्खे ॥१२ ॥
विषय
प्रभु या राजा की सहायता से दुष्टों को दण्डित करने का संकल्प।
भावार्थ
हे ( पुरु-हूत ) हे बहुतों से आदरपूर्वक स्तुत ! प्रभो ! राजन् ! हम ( कारिणः ) संग्राम करने में कुशल, एवं स्वयं भी कार्यकुशल होकर ( कारे ) करने योग्य कार्य के अवसर में, वा संग्राम में ( दूढयः ) दुष्ट बुद्धि वाले पुरुषों को ( जयेम ) पराजित करें और ( अभि तिष्ठेम ) उनका मुकाबला करें । ( वृत्रं ) बढ़ते और विघ्न करने वाले शत्रु को ( नृभिः हन्याम ) उत्तम नेता जनों से दण्डित करें और ( शुशुयाम च ) हम बढ़ें, उन्नति करें । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( नः धियः ) हमारी बुद्धियों और कर्मों की ( प्र अवेः ) अच्छी प्रकार रक्षा कर और आगे बढ़ा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
जयेम कारे पुरुहूत कारिणो, अभितिष्ठेम दूढ्य:।
नृभिर्वृत्रं हन्याम शूशुयाम च,अवेरिन्द्र प्रणो धिय:।।ऋ•८.२१.१२
वैदिक भजन ११५१ वां
राग बिहाग
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल कहरवा
भाग १
गाते- गाते प्रभु की महिमा
आगे ही आगे बढ़ते हैं
प्रेरक शक्ति पाने के लिए
हम तुझको पुकारा करते हैं
गाते गाते......
हम कहते नहीं आ आकर तुम
जो कर्म हमारे हैं उन्हें करो
हम स्वयं बनें कर्मण्य प्रभु
तेरी प्रेरणा से ही संवरते हैं ।।
गाते गाते.......
तुम ऐसी प्रेरणा करो प्रभुजी !
सत्कर्मों से घबराएं नहीं
हम कर्मवीर विजयी बनकर
निर्धारित कर्म पे चलते हैं।।
गाते गाते.........
जो दुष्कर्मी दुष्प्रज्ञ हैं जन
वो आड़े आए ना मार्ग में
जो सज्जनता के शत्रु हैं
हम उनको पराजित करते हैं ।।
गाते गाते..........
मन में जो हमारी वृत्तियां हैं
दुर्बुद्धि दुष्कर्मों से हटें
और पाप- तामसी वृत्तियों का
संहार भी करते रहते हैं ।।
गाते गाते.......
भाग 2
गाते गाते प्रभु की महिमा
आगे ही आगे बढ़ते हैं
प्रेरक शक्ति पाने के लिए
हम तुझको पुकारा करते हैं
गाते गाते.........
हिंसा पशुता अन्यायादि
प्रतिरूप में आकर वार करें
वैयक्तिक सामाजिक दृष्टि से
उनको विनष्ट ही करते हैं।।
गाते गाते........
हे रक्षक हे सत्कर्म कुशल
प्रज्ञान घनों के स्वर स्वामी
नियन्त्रित बुद्धि हमारी करो
तेरी आज्ञा माना करते हैं ।।
गाते गाते......
जो ज्ञान व कर्म हमारे हैं
जीवन रथ के दो पहिए हैं
ना क्षतिग्रस्त होने पाएं
हम संभल के आगे बढ़ते हैं ।।
गाते गाते...........
विकसित हों ज्ञान व सत्य के गुण
हों प्रभावशाली फलोन्मुख
दृढ़ सूत्र सफलता का भगवन्
मिले प्रार्थना तुझे करते हैं ।।
गाते गाते..........
३०.९.२०२४
७.३३ रात्रि
कर्मण्य= कर्म में प्रति प्रवृत्त
दुष्प्रज्ञ= दुष्ट बुद्धि वाले
प्रतिरूप= समान रूप
प्रज्ञान-घन= विशिष्ट ज्ञान के बादल
क्षतिग्रस्त= नुकसान हुआ हुआ
फलोन्मुख= फल की ओर मुख
दृढ़ सूत्र= मजबूत संकेत
🕉🧘♂️द्वितीय श्रृंखला का१४४ वां वैदिक भजन अब तक का ११५१ वां वैदिक भजन🙏
🕉वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏
Vyakhya
कर्मक्षेत्र में विजयी हों
है बहुतों से पुकारे जानेवाले परमात्मन्! हम भी तुम्हें पुकारते हैं। पर हम तुमसे यह प्रार्थना नहीं करते कि हमारे करने के जो कार्य है उन्हें तुम आकर कर जाओ। हम तो तुम्हें पुकारते हैं शक्ति और प्रेरणा पाने के लिए, जिससे हम स्वयं कर्मण्य बनाकर कर्म क्षेत्र में उतरें। हे अनंत बली! शूरों में शूर, तुम हमें ऐसी प्रेरणा करो कि हम कर्म से घबराएं नहीं, किन्तु कर्मवीर बनकर, कर्म क्षेत्र में विजयी हों और निर्धारित लक्ष्य में सफल हों !जो दुष्प्रज्ञ और दुष्कर्मा लोग हमारे मार्ग में आएं उन्हें हम पराजित कर दें, क्योंकि यह लोग सज्जनता के शत्रु हैं। साथ ही हमारे अन्दर भी यदि दुर्बुद्धि और दुष्कर्म की वृत्तियां उत्पन्न होती हैं तो उनका भी हम संहार करें। विभिन्न क्षेत्रों में 'वृत्र' ने अपना साम्राज्य जमाया हुआ है। अंतःकरण में वह पाप और तामसी वृत्तियों के रूप में पनपता है। समाज में वह अविद्या अन्याय अत्याचार हिंसा पशुता आदि के रूप में सर उठाता है। उस वृत्र को हम नष्ट करें, क्योंकि उसे नष्ट किए बिना हमारी वैयक्तिक और सामाजिक वृद्धि एवं उन्नति नहीं हो सकती।
हे रक्षक! ही प्रज्ञानघन ! हे सत्कर्म कुशल ! तुम हमारी
'धी' पर अपना नियंत्रण स्थापित करो, 'धी' शब्द से सूचित होनेवाले ज्ञान एवं कर्म दोनों को रक्षित करो ;केवल रक्षित ही नहीं प्रकाशित रूप से रक्षित करो ! ज्ञान और कर्म हमारे जीवन रथ के दो पहिए हैं जिनमें से एक के भी अभाव या क्षतिग्रस्त होने की दशा में हमारी प्रगति नहीं हो सकती। हमारा ज्ञान ,सत्य ,समृद्धि एवं विकासशील हो तथा उसके अनुकूल कर्म भी पटु, प्रभावशाली और फलोन्मुख हो, यह सफलता का एक दृढ़ सूत्र है। हे इन्द्र! हम तुम्हारा आवाहन कर रहे हैं,हमारी प्रार्थनाओं को पूर्ण करो।
विषय
कारिणः-दूढ्यः (जयेम)
पदार्थ
[१] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जाने योग्य प्रभो ! हम आपकी सहायता से (कारिणः) = [कृ हिंसावाम्] हमारा हिंसन करनेवाले 'काम-क्रोध-लोभ' आदि शत्रुओं को (कारे) = संग्राम में जयेम जीतें । तथा (दूढ्यः) = दुर्बुद्धियों को भी (अभितिष्ठेम) = पराजित करनेवाले हों। [२] (नृभिः) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राणों के द्वारा (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (हन्याम) = नष्ट करें । (च) = और (शूशुयाम) = अपनी शक्तियों का वर्धन करें। हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (नः धियः) = हमारी बुद्धियों को (प्र अवेः) = प्रकर्षेण रक्षित करिये। क्रम यही है- [क] वासना-विनाश, [ख] शक्तिवर्धन, [ग] तथा बुद्धियों का विकास।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु की उपासना से हिंसा करनेवाले काम-क्रोध-लोभ को तथा दुर्बुद्धियों को दूर कर पायें। वासना-विनाश के द्वारा हमारी शक्तियों का वर्धन हो तथा हम बुद्धि को सुरक्षित कर पायें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of power and light of life, universally invoked, let us win over the violent in the struggle of life, discipline and subject to rule and order the obstinate and intransigent with reason, dispel darkness and destroy evil with the help of the leading lights of society, and thus grow and march forward and higher. O lord, protect and guide our thoughts and actions against temptations to go astray.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक उपासकाने आपल्या आंतरिक व बाह्य विघ्नांना शांत करावे. ॥१२॥
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