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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    मा ते॑ अमा॒जुरो॑ यथा मू॒रास॑ इन्द्र स॒ख्ये त्वाव॑तः । नि ष॑दाम॒ सचा॑ सु॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । ते॒ । अ॒मा॒ऽजुरः॑ । य॒था॒ । मू॒रासः॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्ये । त्वाऽव॑तः । नि । स॒दा॒म॒ । सचा॑ । सु॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा ते अमाजुरो यथा मूरास इन्द्र सख्ये त्वावतः । नि षदाम सचा सुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । ते । अमाऽजुरः । यथा । मूरासः । इन्द्र । सख्ये । त्वाऽवतः । नि । सदाम । सचा । सुते ॥ ८.२१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे सेनापते ! (त्वावतः) त्वादृशः (सख्ये) सख्ये वर्तमाना वयम् (ते) त्वदीयाः सन्तः (यथा, (मूरासः) यथामूढास्तथा (मा, अमाजुरः) सहसा जीर्णा मा भूम किन्तु (सुते) त्वदीये हव्ये सिद्धे सति (सचा) सह (निषदाम) निषण्णा भवेम ॥१५॥

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    विषयः

    आशिषं याचते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वावतः=त्वत्सदृशस्य देवस्य । सख्ये । मूरासः=मूढा जनाः । यथा । अमाजुरः । अमा=गृहेण सह जीर्णा भवन्ति । तथा । ते=तव । स्वभूता वयम् । मा भूम । यतो वयम् । सचा=सह । सुते=यज्ञे । निषदाम=निषीदाम=उपविशामः ॥१५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे शूरस्वामिन् ! (त्वावतः) आप जैसे रक्षक के (सख्ये) मैत्रीभाव में (ते) आपके होते हुए हम लोग (यथा, मूरासः) मूर्खों के समान (मा, अमाजुरः) सहसा बलहीन न हों किन्तु (सुते) आपके हव्य पदार्थों को निष्पादन करते हुए (सचा) आपके साथ (निषदाम) बने रहें ॥१५॥

    भावार्थ

    सेनापति को उचित है कि अपने अधीन राष्ट्र को किसी प्रकार की भी शक्तियों से हीन न होने दे, जिससे वह अनेक बलसाध्य कर्मों को स्वयं ही करते हुए अपना सहायक हो सके, तात्पर्य्य यह है कि जिस सेनापति का राष्ट्र सहायक होता है, वही शक्तिसम्पन्न होकर कृतकार्य्य होता है, अन्य नहीं ॥१५॥

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    विषय

    इससे आशीर्वाद माँगते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे सर्वद्रष्टा ईश ! (त्वावतः+सख्ये) तेरे सदृश देव की मित्रता में (मूरासः) मूढ़जन (यथा) जैसे (अमाजुरः) अपने गृह पर ही रहकर व्यसनों में फँस रोगादिकों से पीड़ित हो नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं (तथा) वैसे (ते) तेरे उपासक हम लोग न होवें, जिसलिये हम उपासक (सुते+सचा) यज्ञ के साथ-२ (नि+सदाम) बैठते हैं ॥१५ ॥

    भावार्थ

    हम लोग आलसी और व्यर्थ समय न बितावें, किन्तु ईश्वरीय आज्ञा का पालन करते हुए सदा शुभकर्म में प्रवृत्त रहें ॥१५ ॥

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    विषय

    भक्तों की चरम इच्छा।

    भावार्थ

    ( मूरासः यथा अमा-जुरः ) मूढ़, मरणोन्मुख मनुष्य जिस प्रकार रोग पीड़ाओं वा जड़ गृहादि, वा पुत्र पौत्रादि, 'अ-मा' अर्थात् अज्ञान के साथ ही जीवन भर अज्ञानी रहकर बूढ़े हो जाते हैं, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! उसी प्रकार ( त्वावतः ते सख्ये ) तेरे जैसे, तुझ अद्वितीय प्रभु के मित्रभाव में रहकर हम लोग वैसे ( मा ) कभी न हों। अर्थात् हम रोगों में या पुत्र पौत्रादि के मोह में कभी बूढ़े न हों। प्रत्युत ( सुते ) ऐश्वर्य होजाने पर भी हम ( सचा ) तेरे साथ मिलकर ( नि सदाम ) स्थिर होकर विराजें। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेघवत् दाता, महाराज प्रभु।

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    विषय

    अमाजुर:- मूरासः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! हम (ते) = वे (अमाजुरः) = घर में ही जीर्ण हो जानेवाले (मा) = न हों (यथा) = जैसे (मूरासः) = सामान्यतः मूढ मनुष्य होते हैं। जीवन भर गृहस्थ के चक्कर में ही न पड़े रहें। अर्थात् पुत्रों के पालन व पोषण से निवृत्त होकर, सन्तान के सन्तान हो जाने पर निवृत्त हो जायें। [२] हमारी कामना तो यह है कि हम (त्वावतः) = आप जैसे की सख्ये मित्रता में (निषदाम) = आसीन हों। आपकी उपासना करनेवाले बनें। सुते इस उत्पन्न जगत् में (सचा) = सदा आपके साथ मिलकर चलनेवाले हों। गृहस्थ से ऊपर उठकर वनस्थ हो सदा स्वाध्याय आदि में तत्पर रहकर आपके उपासक बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम घर में ही जीर्ण हो जानेवाले मूढ़ न बनें। पुत्रों के पालन के बाद वनस्थ होकर प्रभु की मित्रता में आसीन होने का प्रयत्न करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, Lord of yajnic evolution and social development, let us not like stupid fools sit at home and grow to age in years, but let us, in enlightened friendship with a power like you, sit on the yajna vedi and grow in knowledge and wisdom.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही आळशी बनून व्यर्थ वेळ घालवता कामा नये, तर ईश्वराच्या आज्ञा पालन करत सदैव शुभकर्मात प्रवृत्त राहावे. ॥१५॥

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