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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 18
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - चित्रस्य दानस्तुतिः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    चित्र॒ इद्राजा॑ राज॒का इद॑न्य॒के य॒के सर॑स्वती॒मनु॑ । प॒र्जन्य॑ इव त॒तन॒द्धि वृ॒ष्ट्या स॒हस्र॑म॒युता॒ दद॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चित्रः॑ । इत् । राजा॑ । रा॒ज॒काः । इत् । अ॒न्य॒के । य॒के । सर॑स्वतीम् । अनु॑ । प॒र्जन्यः॑ऽइव । त॒तन॑त् । हि । वृ॒ष्ट्या । स॒हस्र॑म् । अ॒युता॑ । दद॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्र इद्राजा राजका इदन्यके यके सरस्वतीमनु । पर्जन्य इव ततनद्धि वृष्ट्या सहस्रमयुता ददत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्रः । इत् । राजा । राजकाः । इत् । अन्यके । यके । सरस्वतीम् । अनु । पर्जन्यःऽइव । ततनत् । हि । वृष्ट्या । सहस्रम् । अयुता । ददत् ॥ ८.२१.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (चित्रः, इत्, राजा) अनेकेषु यश्चीयते जनैः स सम्राडेव राजा याथार्थ्येन राजा भवति (अन्यके, राजकाः, इत्) अन्ये च अल्पा एव राजानः (यके, सरस्वतीम्, अनु) ये च तस्य वाचमनुसृत्य व्यवहरन्ति, चित्रस्तु (सहस्रम् अयुता, ददत्) सहस्रं लक्षं च प्रजाभ्यो ददत् (वृष्ट्या, पर्जन्य इव) वृष्ट्या मेघो यथा तथा (हि) यतः (ततनत्) प्रजाः वर्धयति अतः ॥१८॥ इत्येकविंशतितमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    विषयः

    ईश्वर एव सर्वशासक इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    चित्रः+इत्=आश्चर्यः परमात्मैव । राजा=सर्वेषां शासकः । सरस्वतीमनु=सरस्वत्यास्तीरे । यके=ये । अन्यके=अन्ये जनाः । सन्ति । ते । राजकाः+इत्= ईश्वराधीना एव । हि=यतः । वृष्ट्या पर्जन्य इव । सहस्रम्=सहस्रसंख्याकम् । अयुता=अयुतानि धनानि । ददत्=यच्छन् । ईश्वरः । ततनत्=विस्तारयति ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (चित्रः, इत्, राजा) जो अनेक राजाओं में से चयन किया जाता है, वह सम्राट् ही यथार्थतया राजा है (अन्यके) और सब (यके, सरस्वतीम्, अनु) जो इसकी आज्ञा के अनुसार करते हैं, वे सब (राजकाः, इत्) अल्प=साधारण राजा ही हैं (हि) क्योंकि वह चित्र=सम्राट् ही (सहस्रम्, अयुता, ददत्) सहस्रों तथा सभी प्रकार के पदार्थों को देता हुआ (वृष्ट्या, पर्जन्यः, इव) वृष्टि द्वारा मेघ के समान (ततनत्) अपनी प्रजाओं को बढ़ाता है ॥१८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि सम्राट् होना किसी कुलविशेष अथवा किसी व्यक्तिविशेष पर निर्भर नहीं किन्तु अनेक राजाओं में से जिस योग्य राजा को प्रजाजन स्वीकृत करें, वही सम्राट् प्रजाओं का पालक हो सकता है, क्योंकि साम्राज्यधर्म में निमित्त शौर्यादि गुण ही होते हैं, व्यक्तिविशेष नहीं। ऐसे चयन किये हुए अर्थात् चुने हुए सम्राट् के राष्ट्र में सब अल्प राजा तथा प्रजा उत्साहसहित अपने कार्य्यों को सिद्ध करते हुए उसकी सहायता करते हैं ॥१८॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    ईश्वर ही सर्वशासक है, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (चित्रः+इत्) आश्चर्यजनक परमात्मा ही (राजा) सबका शासक है (सरस्वतीम्+अनु) नदी के तट पर रहनेवाले (यके+मन्यके) जो अन्यान्य मनुष्य और राजा हैं, वे (राजकाः+इत्) ईश्वर के आधीन ही राजा हैं, (वृष्ट्या+पर्जन्यः+इव) जैसे वृष्टि से मेघ, वैसे ही वह ईश्वर (सहस्रम्) सहस्रों (अयुता) और अयुतों धन (ददत्) देता हुआ (ततनत्) जगत् का विस्तार करता है ॥१८ ॥

    भावार्थ

    बहुत अज्ञानी जन राजा और नदी आदि को धनदाता मान पूजते हैं, वेद इसका निषेध करता है ॥१८ ॥

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    विषय

    मेघवत् दाता, महाराज प्रभु।

    भावार्थ

    ( यके ) जो ( सरस्वतीम् ) नदीवत् प्रशस्त ज्ञान से सम्पन्न प्रभु के ( अनु ) ऊपर निर्भर हैं वे ( अन्यके राजकाः इत् ) और सब छोटे २ राजाओं के तुल्य स्वप्रकाश आत्मा हैं। और ( चित्र इत् ) सबको चेतना वा ज्ञान देने वाला है वही आश्चर्यकारी प्रभु ( राजा ) बड़ा भारी राजा के तुल्य, सूर्यवत् प्रकाशमान है। इति चतुर्थो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेघवत् दाता, महाराज प्रभु।

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    विषय

    राजा-राजकाः

    पदार्थ

    [१] (चित्रः) = यह ज्ञान के देनेवाला [चित्र] प्रभु (इत्) = ही (राजा) = सब धनों का स्वामी है। अन्यके इस प्रभु से अतिरिक्त (यके) = जो भी स्वामी हैं वे (सरस्वतीं अनु) = अपने-अपने ज्ञान के अनुपात में (राजकाः) = छोटे-छोटे राजा ही हैं। प्रभु की तुलना में मनुष्य का स्वामित्व क्या ? यद्यपि मनुष्यों में अपने ज्ञान के अनुपात में कुछ 'राजत्व' होता है, परन्तु प्रभु की तुलना में वह राजत्व अत्यन्त तुच्छ होता है। [२] ये प्रभु तो (सहस्त्रं अयुता) = हजारों व लाखों को (ददत्) = देते हुए इस प्रकार मनुष्य को धनों से आच्छादित कर देते हैं, (इव) = जैसे (पर्जन्यः) = बादल (कृष्ट्या) = वृष्टि से (ततनत् हि) = सम्पूर्ण भूमि को फैला देता है। वृष्टि के होने पर सर्वत्र भूमि पर पानी ही पानी दृष्टिगोचर होने लगता है, इसी प्रकार प्रभु धन की वर्षा करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही राजा हैं और तो 'राजक' ही हैं [छोटे-छोटे राजा] । प्रभु हमें धनों से इस प्रकार आच्छादित कर देते हैं, जैसे मेघ वृष्टि से भूमि को । अगले सूक्त में 'सोभरि ' ' अश्विनौ'- प्राणापान का स्तवन करते हैं-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The mysterious divine power immanent and transcendent is the supreme ruler and ultimate giver. Other ruling divinities, human rulers or natural forces, flowing speech or rivers or river benefactors in consonance with Sarasvati, are but subservient to the supreme. Just as the cloud soaks the earth all round and over so does the lord of wonder and sublimity give thousands and tens of thousands of wealth to humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पुष्कळ अज्ञानी लोक राजा व नदी इत्यादींना धनदाता मानून पूजा करतात. वेद त्याचा निषेध करतो. ॥१८॥

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