ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 14
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नकी॑ रे॒वन्तं॑ स॒ख्याय॑ विन्दसे॒ पीय॑न्ति ते सुरा॒श्व॑: । य॒दा कृ॒णोषि॑ नद॒नुं समू॑ह॒स्यादित्पि॒तेव॑ हूयसे ॥
स्वर सहित पद पाठनकिः॑ । रे॒वन्त॑म् । स॒ख्याय॑ । वि॒न्द॒से॒ । पीय॑न्ति । ते॒ । सु॒रा॒श्वः॑ । य॒दा । कृ॒णोषि॑ । न॒द॒नुम् । सम् । ऊ॒ह॒सि॒ । आत् । इत् । पि॒ताऽइ॑व । हू॒य॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकी रेवन्तं सख्याय विन्दसे पीयन्ति ते सुराश्व: । यदा कृणोषि नदनुं समूहस्यादित्पितेव हूयसे ॥
स्वर रहित पद पाठनकिः । रेवन्तम् । सख्याय । विन्दसे । पीयन्ति । ते । सुराश्वः । यदा । कृणोषि । नदनुम् । सम् । ऊहसि । आत् । इत् । पिताऽइव । हूयसे ॥ ८.२१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
ये (सुराश्वः) सुरया वृद्धाः (ते, पीयन्ति) त्वामाज्ञातिक्रमेण हिंसन्ति तेषु (रेवन्तम्) धनिनमपि (सख्याय) मैत्र्यै (नकिः, विन्दसे) न प्राप्नोषि (यत्) यतः (समूहसि) समूहे (नदनुम्) संग्रामम् (आकृणोषि) आकरोषि (आत्, इत्) अतएव (पितेव, हूयसे) पितेवाकार्यसे ॥१४॥
विषयः
दुर्जनस्वभावं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! रेवन्तम्=केवलधनवन्तं दानादिरहितमयष्टारं धनिनम् । सख्याय । नकिर्विन्दसे=न भजसे । सुराश्वः=सुरया वृद्धाः=प्रमत्ता नास्तिकाः । टुओश्वि गतिवृद्ध्योः । त्वाम् । पीयन्ति=हिंसन्ति । यदा त्वम् । न दनुम्=मेघद्वारा गर्जनम् । कृणोषि=करोषि । यदा च । समूहसि=संगृह्णासि । आदित्=अनन्तरमेव । त्वं पितेव हूयसे ॥१४ ॥
हिन्दी (5)
पदार्थ
जो (सुराश्वः) मद्यपान से स्थूल होकर (ते, पीयन्ति) आपकी आज्ञाभङ्गरूप हिंसा को करते हैं, उनमें जो (रेवन्तम्) धनी हैं उनको भी (सख्याय) मित्रता के अर्थ (नकिः, विन्दसे) आप नहीं प्राप्त होते हैं (यत्) जो आप (समूहसि) समूह में (नदनुम्) संग्राम “नदनु” शब्द युद्ध नामों में पढ़ा है, नि० २।१६। (आकृणोषि) सम्यक् करते हैं (आत्, इत्) अतएव (पितेव, हूयसे) पिता के समान बुलाये जाते हैं ॥१४॥
भावार्थ
सेनापति को चाहिये कि वह स्वयं दुराचार से दूर रहते हुए दुराचारियों का सङ्ग भी न करे, क्योंकि ऐसा करने से संग्राम में विजय प्राप्त होना दुष्कर है और जो सेनापति विजय प्राप्त नहीं कर सकता, उसका प्रजाजन भी निरादर करते और वह सफलमनोरथ नहीं होता, इसलिये सेनापति को सदाचारसम्पन्न होकर विजय प्राप्त करने का सदैव उद्योग करना चाहिये ॥१४॥
विषय
दुर्जन का स्वभाव दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! तू जो जन (रेवन्तम्) केवल धनिक है परन्तु दान और यज्ञादि से रहित है, उसको (सख्याय+नकिर्विन्दसे) मैत्री के लिये प्राप्त नहीं करता । अर्थात् वैसे पुरुष को तू मित्र नहीं बनाता, क्योंकि (सुराश्वः) सुरा आदि अनर्थक द्रव्यों से सुपुष्ट नास्तिकगण (त्वाम्+पीयन्ति) तेरी हिंसा करते हैं अर्थात् तेरे नियमों को नहीं मानते । परन्तु (यदा) जब तू (नदनुम्) मेघ द्वारा गर्जन (कृणोषि) करता है और (समूहसि) महामारी आदि भयंकर रोग द्वारा मनुष्यों का संहार करता है, (आत+इत्) तब (पिता+इव+हूयसे) पिता के समान आहूत और पूजित होता है ॥१४ ॥
भावार्थ
पापी दुर्जन ईश्वर के नियमों को तोड़ते रहते हैं, परन्तु विपत्काल में उसको पुकारते हैं ॥१४ ॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
नकी रेवन्त सख्याय विन्दसे पीयन्ति ते सुराश्व:।यदा कृणोषि नदनुं समूहस्यादित् पितेव हूयसे।।ऋ•८.२१.१४साम•६/२/४ अथ•२०/११४/२
वैदिक भजन १११३वां
राग देस
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल कहरवा ८ मात्रा
मद- पाप में डूबा धनिक पुरुष
कभी इन्द्र प्रभु को ना पा सकता
क्योंकि मद के नशे में है वह हिंसक
कर्तव्याकर्तव्य नहीं समझ सकता।।
मद....…..
बिन हिंसा के धन का संग्रह
कैसे इन लोगों से हो सकता?
विरले धनी हम तो देखते हैं
जिनमें दयाभाव का धन खिलता
मद.......
धन-सम्पत्ति समझते सर्वोपरि
ऐश्वर्य की मदिरा में है मस्त
दीन-करुणा पात्रों में है वो निष्ठुर
फिर कहां प्रभु दर्शन पा सकता?
मद.........
भाग २
मद-पाप में डूबा धनिक पुरुष
कभी इन्द्र प्रभु को ना पा सकता
क्योंकि मद के नशे में है वह हिंसक
कर्तव्याकर्तव्य नहीं समझ सकता।।
मद......
धन समृद्ध तेरे सख्य नहीं
ना तुझे तक आने की है नियति
धन बांटने वाले हैं तेरे सखा
मद रहित तपस्वी है उनकी प्रज्ञा।।
मद......
सही रूप से उन्हें पहचान तेरी
तेरी महिमा का है उनको अनुभव
तेरे स्तोता, भक्त है, पुत्र तेरे
वह मानते तुझे बन्धु ,मात-पिता।।
मद.......
तुझे पाने के लिए मोह का त्याग
' नदनू ' की अवस्था प्राप्त करें
जहां भगवन्-भक्त का होता मिलन
वह बीच में कोई ना आ सकता।।
मद..........
शब्दार्थ:-
निष्ठुर= निर्दय, कठोर , बेरहम
प्रज्ञा= बुद्धि, समझ
नदनू= स्तोता, भक्त
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १०६ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का १११३ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
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Vyakhya
हे इन्द्र
हे इन्द्र! साधारणतया संसार के धनी पुरुष तेरे सख्य के योग्य नहीं होते, क्योंकि वह हिंसक होते हैं; धन में ऐसा मद (नशा) होता है कि उससे मदोन्मत हुआ पुरुष किसी कर्तव्याकर्तव्य को नहीं देखता। धन का संग्रह बिना हिंसा के होता ही कहां है? जगत में विरले ही धन- समृद्ध पुरुष होंगे जिन्होंने दूसरों को बिना सताए धन प्राप्त किया हो। क्या हम नहीं देखते कि ऐश्वर्य की मदिरा से मस्त हुए, धन शक्ति सर्वोपरि समझते हुए आज संसार के धनाढ्य लोग नि: होकर गरीबों को सता रहे हैं, करुणा पात्रों पर ही नहीं किन्तु साम्मानपात्रों पर भी बेखटके अत्याचार कर रहे हैं? तो हम हिंसक पुरुषों को तेरे दर्शन कैसे प्राप्त हो सकते हैं? इसलिए धन समृद्धों में से तुझे अपने सख्य के लिए लोग नहीं मिलते हैं।
वह तेरे नजदीकी नहीं हो पाते हैं। जो तेरे सखा होते हैं, बल्कि तेरे पुत्र बनते हैं, वे दूसरे प्रकार के ही लोग होते हैं। जो धन- त्याग करने वाले तपस्वी, मदरहित शान्त पुरुष और प्रेम करने वाले अहिंसक होते हैं, वही तुझे पहचान सकते हैं और पहचानते हैं; वे जब तेरी महिमा का अनुभव कर तेरे स्तोता, भक्त बन जाते हैं और विशेषत: जब तू उन्हें सम्यक्तया वहन करता है, उनका पालन-पोषण करने वाला तू है ऐसा वे देखने लगते हैं, तभी वे तुझे 'पिता' 'पिता'करके पुकारने लगते हैं। वे तेरे प्यारे पुत्र बन जाते हैं। इसलिए हे इन्द्र! धनों द्वारा हम तुझे नहीं पा सकते। तुझे पाने के लिए तो हमें धन का, कम-से- कम धन के मोह का त्याग करना पड़ेगा, क्योंकि तभी हम उस 'नदनु'अवस्था को पा सकेंगे जहां पहुंचकर भक्त लोग तुझे 'पिता' 'पिता'कह कर पुकारने लगते हैं और तेरे वात्सल्य में पलनेवाले तेरे प्यारे पुत्र बन जाते हैं।
विषय
व्यसनी, धनाभिमानी का प्रभु मित्र नहीं। भक्तों का पिता प्रभु।
भावार्थ
हे प्रभो ! तू ( रेवन्तं ) धन से सम्पन्न पुरुष को ( सख्याय ) अपने मित्रभाव के योग्य ( नकि: विन्दसे ) कभी नहीं पाता। सम्पन्न जन ( सुराश्वः ) 'सुरा', मद्य पी कर घमण्ड में फूलने वाले, मत्त जनों के समान 'सुरा' अर्थात् सुख से रमण करने योग्य स्त्री भोग आदि विषय तथा राज्य लक्ष्मी से बढ़ते हुए, मदमत्त होकर ( ते पीयन्ति ) तेरे भक्त जनों को पीड़ित करते हैं। और जब तू उन को ( नदनुं ) स्तुति करने वाला ( कृणोषि ) कर लेता है ( आत् इत् ) अनन्तर ही तू उन्हें ( सम् ऊहसि ) अच्छी प्रकार अपने साथ लेता है, अपनी गोद में उठा लेता है अथवा जब तू ( नदनुं ) उपदेश करता है, तू उनको अपने साथ संगठित करता और ( आत् इत् ) अनन्तर ही ( पिता इव हूयसे ) पिता के समान पुकारा जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
सम्पत्ति विस्मारक है, विपत्ति स्मारक
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (रेवन्तम्) = धनवान् को, यज्ञ आदि में धन का विनियोग न करनेवाले पुरुष को (सख्याय) = मित्रता के लिये (नकिः विन्दसे) = नहीं प्राप्त करते। ऐसे व्यक्ति के आप कभी मित्र नहीं होते। (ते) = वे (सुराश्वः) = [सुर ऐश्वर्ये] ऐश्वर्य से फूलनेवाले लोग (पीयन्ति) = अध्वर से विपरीत हिंसात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। खूब अभिमान में फूले हुए ये लोग प्रभु को भूल जाते हैं। [२] (यदा) = जब आप (नदनुं कृणोषि) = गर्जना करते हैं, अर्थात् जब जरा भूकम्प-सा आता है तो सब सम्पत्ति हिलती-सी प्रतीत होती है, तो आप (समूहसि) = [change, modify] उनके जीवन में परिर्वतन लाते हैं । (श्रात् इत्) = उस समय ही (पिता इव हूयसे) = पिता के समान आप पुकारे जाते हैं। वे धनी व्याकुलता के होने पर थोड़े परिवर्तित जीवनवाले होते हैं और प्रभु की ओर झुकाववाले हो जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु धनी के मित्र नहीं होते। ये धनी तो धन के मद में फूले हुए हिंसात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं। जब कभी सम्पत्ति विनष्ट होने लगती है, तो ये व्याकुल होकर प्रभु की ओर झुकते हैं और पिता की तरह प्रभु को पुकारते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
You do not just care to choose the rich for companionship, if they are swollen with drink and pride and violate the rules of divine discipline. But when you attend to the poor and alter their fortune for the better, you are invoked like father with gratitude which the voice of thunder acknowledges and approves.
मराठी (1)
भावार्थ
पापी दुर्जन ईश्वराच्या आज्ञा मोडतात; पण संकटाच्या वेळी त्याचा धावा करतात ॥१४॥
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