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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॒ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॒षत् । त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । त्वा॒ । कर्म॑न् । ऊ॒तये॑ । सः । नः॒ । युवा॑ । उ॒ग्रः । च॒का॒म॒ । यः । धृ॒षत् । त्वाम् । इत् । हि । अ॒वि॒तार॑म् । व॒वृ॒महे॑ । सखा॑यः । इ॒न्द्र॒ । सा॒न॒सिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा कर्मन्नूतये स नो युवोग्रश्चक्राम यो धृषत् । त्वामिद्ध्यवितारं ववृमहे सखाय इन्द्र सानसिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । कर्मन् । ऊतये । सः । नः । युवा । उग्रः । चकाम । यः । धृषत् । त्वाम् । इत् । हि । अवितारम् । ववृमहे । सखायः । इन्द्र । सानसिम् ॥ ८.२१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (कर्मणि) कर्मणि समारब्धे (ऊतये) रक्षायै (त्वा, उप) त्वामेवोपगच्छामः (सः) स सेनापतिः (युवा) तरुणः (उग्रः) बलवान् (नः) अस्मान् (चक्राम) आगच्छति (यः) यो हि (धृषत्) अभिभवति रिपून् (इन्द्र) हे ऐश्वर्यसम्पन्न ! (सखायः) त्वन्मित्राणि वयम् (अवितारम्) रक्षितारम् (सानसिम्) संभजनीयम् (त्वाम्, इत्, हि) त्वामेव (ववृमहे) शरणत्वेन स्वीकुर्मः ॥२॥

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    विषयः

    स एवाश्रयणीय इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ऊतये=रक्षणाय । कर्मन्=कर्मणि कर्मणि । त्वा=त्वामुपाश्रयामः । य इन्द्रः । धृषत्=धृष्णोति=विघ्नान् अभिभवति । पुनः । युवा=मिश्रणकारी । यद्वा । सदैकरसः । पुनः । उग्रः । सः । नः=अस्मान् । चक्राम=आगच्छतु । यद्वा । चक्राम=अस्मान् उत्साहयुक्तान् करोतु । अवितारम्=रक्षितारम् । सानसिम्=संभजनीयम् । त्वामित्=त्वामेव । सखायः= वयम्=ववृमहे=वृणीमहे । हि=प्रसिद्धौ ॥२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (कर्मणि) कर्म को प्रारम्भ करने पर (ऊतये) रक्षार्थ (त्वा, उप) आप ही के समीप आते हैं (सः) क्योंकि वह सेनापति आप (युवा) युवावस्थावाले अतएव (उग्रः) रक्षा करने में समर्थ (नः) हमारे समीप (चक्राम) आते हैं (यः) जो (धृषत्) शत्रुओं को अभिभव प्राप्त करते हैं (इन्द्र) हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न ! (सखायः) आपके मित्र हम लोग (अवितारम्) रक्षा करनेवाले (सानसिम्) सम्यक् भजनीय (त्वाम्, इत्, हि) आपको ही (ववृमहे) शरणरूप से आश्रयण करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    भाव यह है कि बड़े-२ विघ्नों का निवृत्त करना सेनाध्यक्ष ही के अधीन है, अतएव सम्राट् को चाहिये कि सेनाध्यक्ष उसी को बनावे, जो युवा तथा उत्साहसम्पन्न हो और जो प्रजाजनों की भले प्रकार रक्षा करनेवाला हो ॥२॥

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    विषय

    वही सेव्य है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र (ऊतये) रक्षा के लिये (कर्मन्) प्रत्येक शुभकर्म में (त्वा) तुझको (उप) आश्रय बनाते हैं । (यः) जो इन्द्र (धृषत्) सर्व विघ्न का विनाश करता है, (युवा) जो सदा एकरस (उग्रः) और उग्र है, (सः) वह (नः) हम लोगों को (चक्राम) प्राप्त हो । अथवा हमको उत्साहित करे । हे इन्द्र ! (त्वाम्+इत्) तुझको ही (अवितारम्) अपना रक्षक और (सानसिम्) सेवनीय (सखायः) हम मनुष्यगण (ववृमहे) स्वीकार करते हैं, मानते हैं ॥२ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! जैसे हम ऋषिगण उसी परमात्मा की उपासना करते हैं, वैसे आप लोग भी करें ॥२ ॥

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    विषय

    आत्मा, प्रभु और विद्वान् का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्ववर्यवन् ! ( यः ) जो तू ( धृषत् ) दुष्टों को पराजित करने वाला, ( युवा ) नित्य बलवान् और ( उग्रः ) भयंकर होकर ( नः चक्राम ) हमें प्राप्त होता है, उस (त्वा) तुझको हम (ऊतये) रक्षा के लिये ( कर्मन् ) प्रत्येक कार्य में ( उप ववृमहे ) स्वीकार करते हैं। और हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हम ( सखायः ) तेरे मित्रजन ( सानसिम् ) सेवा करने योग्य उपास्य वा न्यायपूर्वक ऐश्वर्य का विभाग करने वाले ( त्वाम् इत् ) तुझको ही ( अवितारं ) रक्षक रूप से ( ववृमहे ) वरण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    'अवितारं' ववृमहे

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (कर्मन्) = इन यज्ञादि कर्मों में (ऊतये) = रक्षण के लिये हम (त्वा उप) = आपके समीप प्राप्त होते हैं। यः =जो प्रभु धृषत् शत्रुओं का धर्षण करते हैं, (सः) = वे (युवा) = बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले (उग्रः) = तेजस्वी प्रभु (नः) = हमें चक्राम प्राप्त हों व उत्साहयुक्त करें। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण [पराभव] करनेवाले प्रभो ! (अवितारम्) = रक्षक (त्वाम्) = आपको (इत् ही) = ही (ववृमहे) = हम वरते हैं। (सखायः) = सखा बनते हुए हम (सानसिम्) = सम्भजनीय आपको ही प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम रक्षण के लिये यज्ञादि कर्मों में प्रभु को ही प्राप्त होते हैं। वे शत्रुधर्षक तेजस्वी प्रभु ही हमें उत्साहयुक्त करते हैं। रक्षक प्रभु का ही हम वरण करते हैं। मित्र बनकर उस सम्भजनीय प्रभु का ही उपासन करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We approach you for protection and success in every undertaking. O lord youthful and blazing brave who can challenge and subdue any difficulty, pray come to our help. Indra, friends and admirers of yours, we depend on you alone as our sole saviour and victorious lord and choose to pray to you only as the lord supreme.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जसे आम्ही ऋषी त्याच परमात्माची उपासना करतो, तसे तुम्हीही करा. ॥२॥

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