ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
व॒यं हि त्वा॒ बन्धु॑मन्तमब॒न्धवो॒ विप्रा॑स इन्द्र येमि॒म । या ते॒ धामा॑नि वृषभ॒ तेभि॒रा ग॑हि॒ विश्वे॑भि॒: सोम॑पीतये ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । हि । त्वा॒ । बन्धु॑ऽमन्तम् । अ॒ब॒न्धवः॑ । विप्रा॑सः । इ॒न्द्र॒ । ये॒मि॒म । या । ते॒ । धामा॑नि । वृ॒ष॒भ॒ । तेभिः॑ । आ । ग॒हि॒ । विश्वे॑भिः । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं हि त्वा बन्धुमन्तमबन्धवो विप्रास इन्द्र येमिम । या ते धामानि वृषभ तेभिरा गहि विश्वेभि: सोमपीतये ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । हि । त्वा । बन्धुऽमन्तम् । अबन्धवः । विप्रासः । इन्द्र । येमिम । या । ते । धामानि । वृषभ । तेभिः । आ । गहि । विश्वेभिः । सोमऽपीतये ॥ ८.२१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे सेनापते ! (अबन्धवः) बन्धुरहिताः (विप्रासः) विद्वांसः (वयम्) वयं रक्षार्थिनः (बन्धुमन्तम्) बन्धुसहितम् (त्वा, हि) त्वामेव (येमिम्) नियच्छामः (वृषभ) हे कामनासाधक ! (या, ते, धामानि) यानि तव तेजांसि (तेभिः, विश्वेभिः) तैः सर्वैः (सोमपीतये) सोमपानाय (आगहि) आगच्छ ॥४॥
विषयः
स एव स्तवनीय इति दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! अबन्धवः=बन्धुरहिताः । विप्रासः=मेधाविनः । वयं हि । बन्धुमन्तम्=जगद्बन्धुसमेतम् । त्वा=त्वामेव । येमिम=आश्रयामः । हे वृषभ ! ते=तव । या=यानि । धामानि=जगन्ति सन्ति । तेभिर्विश्वेभिः सह । सोमपीतये । आगहि=आगच्छ ॥४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यसम्पन्न शूरस्वामिन् ! (अबन्धवः) “बध्नाति सुखेनेति बन्धुः”=जो सुख के साथ जोड़े, वह बन्धु कहलाता है, बन्धुओं से रहित (विप्रासः) विद्यासम्पन्न (वयम्) हम लोग रक्षार्थ (बन्धुमन्तम्) बन्धुओंवाले (त्वा, हि) आपको ही (येमिम्) स्वीकृत करते हैं (वृषभ) हे कामनाओं की वर्षा करनेवाले (या, ते, धामानि) जो आपकी तेजोमय शक्तियाँ हैं (तेभिः, विश्वेभिः) उन सबों के सहित (सोमपीतये) सोमरसपानार्थ (आगहि) आइये ॥४॥
भावार्थ
सेनापति को उचित है कि जो विद्वान् उसके राष्ट्र में बन्धुओं से पृथक् होकर विद्यावृद्धि करने में लगे हुए हैं, उनकी भले प्रकार रक्षा करे, जिससे विद्या का प्रचार निर्विघ्न हो अर्थात् उसके राष्ट्र में कोई द्विज विद्या से शून्य न रहे ॥४॥
विषय
वही स्तवनीय है, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे भगवन् ! (वयम्+विप्रासः) मेधावीगण हम (अबन्धवः) बन्धुओं से रहित ही हैं और तू (बन्धुमन्तम्) बन्धुमान् है अर्थात् तेरा जगत् ही बन्धु है, (त्वा+येमिम) उस तुझको आश्रय बनाते हैं, (वृषभ) हे सर्वकामनावर्षक ! (ते+या+धामानि) तेरे जितने संसार हैं, (तेभिः+विश्वेभिः) उन सम्पूर्ण जगतों के साथ विद्यमान (सोमपीतये) सोमादि पदार्थों को कृपादृष्टि से देखने के लिये (आगहि) आ ॥४ ॥
भावार्थ
यद्यपि भ्राता, पुत्र, परिवार आदि बन्धु, बान्धव सबके थोड़े बहुत होते हैं, तथापि वास्तविक बन्धु परमात्मा ही है, इस अभिप्राय से यहाँ ‘अबन्धु’ पद आया है ॥४ ॥
विषय
बन्धुमान् प्रभु की शरण।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! ऐश्वर्य के देने हारे ! तेजस्विन् ! ( वयं विप्रासः ) हम विद्वान् लोग ( अबन्धवः ) विना बन्धु के, निःस्सहाय वा बन्धनरहित, सब सांसारिक बन्धनों, सम्बन्धादि को शिथिल किये हुए ( बन्धुमन्तं त्वा ) बन्धु वाले तुझको ही ( येमिम ) हम अपने साथ बांधते हैं। हे ( वृषभ ) बलशालिन् ! समस्त सुखों की वर्षा करने हारे ! ( या ते धामानि ) जो तेरे नाना धारण सामर्थ्य, तेज हैं तू ( तेभिः विश्वेभिः ) उन सबों से ( सोमपीतये ) ऐश्वर्य वा जगत् के पालन के लिये राजा के समान हमें ( सोमपीतये ) ओषधि रसवत् ओत्मानन्दरस के पान कराने के लिये ( आ गहि ) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
अबन्धवः बन्धुमन्तं [येमिम]
पदार्थ
[१] (अबन्धवः) = अपने को विषय-वासनाओं में न बन्धने देनेवाले, (विप्रासः) = अपनी न्यूनताओं दूर करके पूरण करनेवाले (वयम्) = हम (हि) = निश्चय से (बन्धुमन्तम्) = सारे संसार को अपने में बान्धनेवाले (त्वा) = आपको, हे (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो ! (येमिम) = अपने साथ बाँधने का प्रयत्न करते हैं। हम आपको अपना बन्धु बनाने का प्रयत्न करते हैं। [२] हे (वृषभ) = शक्तिशालिन् प्रभो ! (या) = जो (ते) = आपके (धामानि) = तेज हैं, (तेभिः विश्वेभिः) = उन सब तेजों से आप (सोमपीतये) = हमारे सोम-रक्षण के लिये (आगहि) = आइये । आपके बन्धुत्व में सोम का रक्षण करते हुए हम भी शक्ति सम्पन्न बन पायें।
भावार्थ
भावार्थ- हम विषय-वासनाओं से अबद्ध बनकर उस सबको नियम में बाँधनेवाले प्रभु को अपने साथ बान्धते हैं। प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनते हैं और सोम का रक्षण कर पाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Bereft of any permanent brotherhood in mortal humanity, we are drawn by ourselves to you, enlightened as we are and universal brother as you are in kinship divine. O lord of universal vigour and generosity, with all the world regions you command, come with the glory of all those worlds, join our soma celebrations, accept our devotion and protect this social order.
मराठी (1)
भावार्थ
जरी भ्राता, पुत्र, परिवार इत्यादी बंधू-बांधव सर्वांना असतात. तरी वास्तविक बंधू परमात्माच आहे. या अभिप्रायाने येथे ‘अबन्धु’ पद आलेले आहे. ॥४॥
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