Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - ककुबुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    सीद॑न्तस्ते॒ वयो॑ यथा॒ गोश्री॑ते॒ मधौ॑ मदि॒रे वि॒वक्ष॑णे । अ॒भि त्वामि॑न्द्र नोनुमः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीद॑न्तः । ते॒ । वयः॑ । य॒था॒ । गोऽश्री॑ते । मधौ॑ । म॒दि॒रे । वि॒वक्ष॑णे । अ॒भि । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । नो॒नु॒मः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीदन्तस्ते वयो यथा गोश्रीते मधौ मदिरे विवक्षणे । अभि त्वामिन्द्र नोनुमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सीदन्तः । ते । वयः । यथा । गोऽश्रीते । मधौ । मदिरे । विवक्षणे । अभि । त्वाम् । इन्द्र । नोनुमः ॥ ८.२१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यथा, वयः) यथा वृक्षशाखाः वृक्षमवलम्ब्यैव जीवन्ति तद्वत् (गोश्रीते) पयसा पक्के (मधौ) मधुरे (मदिरे) आह्लादके (विवक्षणे) कार्यनिर्वहणसमर्थे (ते) त्वद्दत्ते एव रसे (सीदन्तः) आश्रिताः वयम् (इन्द्र) हे ऐश्वर्यशालिन् ! (त्वाम्, अभिनोनुमः) त्वाम् अभितोष्टूयामहे ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    स एव नमनीय इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वाम् । अभिनोनुमः=आभिमुख्येन नोनुमः=पुनः पुनर्भृशं वा स्तुमः । कीदृशा वयम् । ते+विवक्षणे=तवाश्रिते=त्वयोह्यमाने संसारे सीदन्तः । कीदृशे विवक्षणे । मदिरे=आनन्दजनके । पुनः । मधौ=मधुवत्प्रिये । पुनः । गोश्रीते=गोविकारे । दधिपयसी गोशब्देनोच्येते । दध्ना पयसा च । श्रीते=मिश्रिते । सदने दृष्टान्तः । वयो यथा=विहगा यथा एकत्र सङ्घीभूय तिष्ठन्ति ॥५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यथा, वयः) जैसे वृक्ष की शाखाएँ वृक्ष ही का अवलम्बन करके हरी-भरी रह सकती हैं, इसी प्रकार हम सब भी (ते) आपकी रक्षा द्वारा लब्ध (गोश्रीते) गव्य पदार्थों के साथ परिपक्व (मधौ) मधुर (मदिरे) आह्लादक (विवक्षणे) कार्यवहन में समर्थ अन्नादि रसों का (सीदन्तः) आश्रयण करते हुए प्रफुल्लित रहते हैं (इन्द्र) हे ऐश्वर्यशालिन् ! (त्वाम्) आपकी (अभिनोनुमः) बार बार स्तुति करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार शाखा आदि अवयवों के रहते ही वृक्ष की सत्ता है, विना अवयवों के नहीं, जिस प्रकार वृक्षमूल के रहते ही शाखाओं की सत्ता है, बिना मूल के नहीं, इसी प्रकार प्रजा और सेनाध्यक्ष इन दोनों का भी अस्तित्व परस्पराश्रय है, स्वाश्रय नहीं, इसलिये दोनों में परस्पर प्रेम होना आवश्यक है ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वह नमस्कार योग्य है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे सर्वदृष्टा ईश ! (त्वाम्) तुझको हम सब (अभिनोनुमः) सब तरह से बारम्बार स्तुति करते हैं । (वथा+वयः) जैसे पक्षीगण अपने घोसले में आराम से रहते हैं, इसी तरह हम सब (ते) तेरे (गोश्रीते) दूध, दही पदार्थों से मिश्रित (मधौ) मधुर (मदिरे) आनन्दजनक (विवक्षणे) इस संसार में आनन्द से (सीदन्तः) बैठे हुए हैं, इसलिये तेरी स्तुति करते हैं ॥५ ॥

    भावार्थ

    जीव मनुष्यशरीर पाकर नाना भोग भोगते हुए बड़े आनन्द से भगवद्रचित संसार में विश्राम कर रहा है, इसलिये भगवान् की स्तुति-प्रार्थना करना उचित ही है ॥५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आश्रय वृक्षवत् प्रभु का आश्रय।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यथा वयः ) जिस प्रकार पक्षीगण ( गोश्रीते = गोश्रिते) भूमि पर आश्रित वा सूर्य द्वारा परिपक्व, फलवान् ( विवक्षणे ) विविध स्कन्धों वाले, वृक्षपर, ( मदिरे मधौ ) आनन्दमय वसन्त में वा अन्न पर आश्रित, ( सीदन्तः अभिनोनुवन्ति ) बैठे हुए सब तरफ कलरव किया करते हैं उसी प्रकार हम भी ( ते ) तेरे ( गो-श्रीते) वाणियों द्वारा आश्रय करने या सेवने योग्य, वाणी द्वारा स्तुति योग्य, ( मदिरे ) हर्षजनक ( विवक्षणे ) विविध प्रकार से कथ नोपकथन करने एवं धारण करने योग्य ( मधौ ) मधुर, मधु, ज्ञानमय वेद एवं तेरे रूप में ( सीदन्तः ) आश्रय लेते हुए ( त्वाम् अभि नोनुमः ) तेरी ही साक्षात् स्तुति करें । वा, ( गोश्रीते ) इन्द्रियों से सेव्य हर्षजनक ( विवक्षणे ) विविध लोकों को उठाने वाले ( मधौ ) सुखमय संसार में आश्रय पाते हुए हम जीवगण तेरी स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सोम में आसीन होना

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके इस (मधौ) = सब ओषधियों सारभूत सोम में (सीदन्तः) = स्थित होते हुए, अर्थात् भोजन के रूप में ग्रहण किये हुए द्रव्यों के अन्तिम सार इस सोम [वीर्य] को सुरक्षित करते हुए, हम (त्वाम्) = आपको (अभिनोतुमः) = प्रात:-सायं खूब ही स्तुत करते हैं। आपका स्तवन ही तो हमें वासनाओं से बचाकर सोमरक्षण के योग्य बनाता है। [२] उस सोम में हम स्थित होते हैं, जो (गोश्रीते) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा परिपक्व होता है, अर्थात् स्वाध्याय के द्वारा शरीर में सुरक्षित रहकर जीवन का ठीक से परिपाक करनेवाला होता है। (मदिरे) = जो सोम मद व उल्लास का जनक है तथा (विवक्षणे) = हमारी विशिष्ट उन्नति जैसे (वय:) = का कारण बनता है [ वक्ष् To grow ] । इस सोम में हम इस प्रकार स्थित हों, (यथा) = पक्षी वृक्ष पर स्थित होते हैं। यह सोम ही वस्तुतः हमारे जीवन का आधार है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे प्रभो ! हम शरीर में उत्पन्न सोम को अपने जीवन का आधार बनाते हैं। इसके रक्षण के उद्देश्य से आपका स्तवन करते हैं, जिससे हम विनाशक वासनाओं से बचे रहें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Nestled like birds in the nest, in your exuberant, exciting, honey sweet yajnic world of light and joy overflowing with delicacies of food and drink, we bow to you and worship you in thankfulness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करून नाना प्रकारचे भोग भोगत मोठ्या आनंदाने भगवंताने निर्माण केलेल्या जगात विश्राम करत आहे. त्यासाठी परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना करणे योग्यच आहे.॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top