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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - ककुबुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    नूत्ना॒ इदि॑न्द्र ते व॒यमू॒ती अ॑भूम न॒हि नू ते॑ अद्रिवः । वि॒द्मा पु॒रा परी॑णसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नूत्नाः॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । व॒यम् । ऊ॒ती । अ॒भू॒म॒ । न॒हि । नु । ते॒ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । वि॒द्म । पु॒रा । परी॑णसः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नूत्ना इदिन्द्र ते वयमूती अभूम नहि नू ते अद्रिवः । विद्मा पुरा परीणसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नूत्नाः । इत् । इन्द्र । ते । वयम् । ऊती । अभूम । नहि । नु । ते । अद्रिऽवः । विद्म । पुरा । परीणसः ॥ ८.२१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे सेनापते ! (ते, ऊती) त्वद्रक्षाभिः (वयम्) वयमुपासकाः (नूत्ना, इत्) बाधारहितत्वात् नूतना एव (अभूम) भवामः (अद्रिवः) हे विदारणशक्तिमन् ! (ते) त्वाम् (पुरा) रक्षातः पूर्वम् (परीणसः) व्यापकबलम् (नहि, नु, विद्म) नहि हि जानीमः ॥७॥

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    विषयः

    तदीयज्ञानं कर्त्तव्यमिति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे अद्रिवः=हे संसाररक्षक ! यद्वा । हे संसारिन् । वयम् । ते=तव । ऊती=ऊत्या=रक्षणेन । नूत्नाः=नवीनाः । इत्=एव । नहि=न स्मः । किन्तु पुराणा एव । तदेव विस्पष्टयति । पुरा=पूर्वकालादेव । परीणसः=परमोदारस्य । ते=तव । विद्मः=जानीमः । नु इति निश्चयः ॥७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे रक्षक सेनापते ! (ते, ऊती) आपकी रक्षाओं से (वयम्) हम सब (नूत्ना, इत्) बाधारहित होने से नूतन के समान (अभूम) हो जाते हैं (अद्रिवः) हे विदारक शस्त्रोंवाले (ते) आपको (पुरा) रक्षा करने से पहिले (परीणसः) व्यापक बलवाला (नहि) नहीं (नु) ही (विद्म) जानते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    जो सेनापति शत्रुओं को हटाकर प्रजाओं की बाधा दूर करके अपनी प्रभावशक्ति को फैलाते हैं, उन्हीं को प्रजा नम्र होकर अपना स्वामी समझ सम्मानित करती है अर्थात् जो राष्ट्रपति तथा सेनापति प्रजा को सुख पहुँचाते और विद्यावृद्धि तथा धर्मवृद्धि में सहायक होते हैं, वे सत्कारार्ह तथा पूज्य होते हैं, अन्य नहीं ॥७॥

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    विषय

    उसका ज्ञान करना चाहिये, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (अद्रिवः) हे संसाररक्षक यद्वा हे संसारिन् ! हम उपासकगण (ते) तेरी (ऊती) रक्षा में (नूत्नाः+इत्) नूतन ही हैं (नहि) यह नहीं किन्तु पुराण और प्राचीन हैं अर्थात् आपकी रक्षा बहुत दिनों से होती आती है, आगे इसी को विस्पष्ट करते हैं−(पुरा) पूर्वकाल से ही (परीणसः+ते) तुझको परमोदार (विद्मः) जानते हैं (नू) यह निश्चय है ॥७ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा की रक्षा सर्वदा से होती आई है, उसकी उदारता असीम है, अतः वही पूज्य है ॥७ ॥

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    विषय

    सर्वप्रद प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( अद्रिवः ) अखण्ड शक्ति के स्वामिन् ! ( वयम् ) हम लोग ( ते ऊती ) तेरी रक्षा में ( नूत्ना इत् ) नये ही, सदा ( अभूम ) बने रहें । हे (अद्रिवः ) अखण्डशक्ते ! ( परीणसः ) सर्वव्यापक, महान् ( ते ) तेरे विषय में ( पुरा ) पहले के समान अब भी हम लोग ( नहि नु विद्म ) कुछ भी नहीं जान पाये । तू अगम्य, महान्, असीम, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    नवीन जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (वयम्) = हम (ते) = आपके (ऊती) = रक्षण के द्वारा (नूना: इत्) = निश्चय से एकदम नवीन जीवनवाले ही अभूम हो गये हैं। आपके रक्षण में सब वासनाओं से बचकर हम अपने जीवन को पवित्र व उज्ज्वल बना पाये हैं। [२] हे (अद्रिवः) = आदरणीय अथवा वज्रहस्त प्रभो! (पुरा) = पहले हम (परीणसः) = सर्वत्र व्याप्त- महान् (ते) = आपके विषय में (नहि नू) = नहीं ही (विद्म) = जानते थे। आज आपके रक्षण इस जीवन के अद्भुत परिवर्तन से हम आपकी महिमा का कुछ आभास पा सके हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के रक्षण से जीवन में एक नवीन पवित्रता व उज्ज्वलता आ जाती है। यह हमें प्रभु की महिमा का कुछ आभास कराती है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of the thunderbolt, mountains and the clouds, ruler of the world, Indra, it is not that we are just new to your beneficence, protection and promotion, we have indeed enjoyed and known your wealth and munificence since time immemorial.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सदैव रक्षण करतो, त्याची उदारता असीम आहे, तोच पूजनीय आहे. ॥७॥

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