ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 8
वि॒द्मा स॑खि॒त्वमु॒त शू॑र भो॒ज्य१॒॑मा ते॒ ता व॑ज्रिन्नीमहे । उ॒तो स॑मस्मि॒न्ना शि॑शीहि नो वसो॒ वाजे॑ सुशिप्र॒ गोम॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । स॒खि॒ऽत्वम् । उ॒त । शू॒र॒ । भो॒ज्य॑म् । आ । ते॒ । ता । व॒ज्रि॒न् । ई॒म॒हे॒ । उ॒तो इति॑ । स॒म॒स्मि॒न् । आ । शि॒शी॒हि॒ । नः॒ । व॒सो॒ इति॑ । वाजे॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । गोऽम॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्मा सखित्वमुत शूर भोज्य१मा ते ता वज्रिन्नीमहे । उतो समस्मिन्ना शिशीहि नो वसो वाजे सुशिप्र गोमति ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । सखिऽत्वम् । उत । शूर । भोज्यम् । आ । ते । ता । वज्रिन् । ईमहे । उतो इति । समस्मिन् । आ । शिशीहि । नः । वसो इति । वाजे । सुऽशिप्र । गोऽमति ॥ ८.२१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(शूर) हे शत्रुहिंसक ! (ते) तव (सखित्वम्) मैत्रीम् (उत) अथ (भोज्यम्) भोगार्हदेयम् (आविद्म) सम्यक् जानीमः (वज्रिन्) हे वज्रिन् ! (ता) ते (ईमहे) याचामहे (वसो) हे वासक (सुशिप्र) शोभनशिरस्त्र ! (नः) अस्मान् (समस्मिन्) सर्वस्मिन् (गोमति) तेजस्विनि पदार्थे (उतो) अथ च (वाजे) बलेऽपि (आशिशीहि) तीक्ष्णीकुरु ॥८॥
विषयः
प्रार्थनां दर्शयति ।
पदार्थः
हे शूर ! तव सखित्वम् । वयम् । विद्म=जानीमः । उत=अपि च । भोज्यञ्च विद्म । हे वज्रिन् ! ते=त्वदीये । ता=ते सखित्वभोज्ये । आ=आभिमुख्येन । वयमीमहे=याचामहे । हे वसो ! हे सुशिप्र ! गोमति=गवादियुक्ते । समस्मिन्=सर्वस्मिन् । वाजे= अन्ने विज्ञाने च । नोऽस्मान् । आशिशीहि=स्थापय ॥८ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(शूर) हे शत्रुसंहारक सेनापते ! (ते) आपके (सखित्वम्) मैत्रीभाव को (उत) और (भोज्यम्) भोगार्ह दातव्य भाग को (आविद्म) हम जानते हैं (वज्रिन्) हे वज्रशक्तिवाले ! (ता) उन दोनों की (ईमहे) याचना करते हैं (वसो) हे सबके ऊपर प्रभाव डालनेवाले (सुशिप्र) सुन्दर शिरस्त्राणवाले सेनापते ! (नः) हमको (समस्मिन्) सब प्रकार के (गोमति) तेजस्वी पदार्थों (उतो) और (वाजे) बलों में (आशिशीहि) तीक्ष्ण करें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा के प्रभाव को जानकर सब प्रजाएँ अनेक शक्ति प्राप्त करने के लिये उसकी प्रार्थना करती हैं, जिससे वह स्वयं भी अपने विघ्नों को दूर कर सकें और अपने स्वामी की भी सहायता करने में समर्थ हों ॥८॥
विषय
इससे प्रार्थना दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(शूर) हे महावीर ! (उत) और (सखित्वम्+विद्म) तेरी मैत्री हम जानते हैं । (वज्रिन्) हे दण्डधर ! (भोज्यम्) तैने जीवों के लिये जो नाना भोज्य पदार्थ दिये हैं, उनको भी हम जानते हैं । हम (ते) तेरे (ता) उस सखित्व और भोज्य पदार्थ को (आ) सब प्रकार (ई+महे) चाहते हैं । (उतो) और (वसो) हे वासक ! (सुशिप्र) हे सुशिष्टजनपूरक ! (नः) हम लोगों को (गोमति) गवादियुक्त (समस्मिन्+वाजे) समस्त धन और विज्ञान में (आ+शिशीहि) स्थापित कर ॥८ ॥
भावार्थ
उसने हम जीवों के भोग के लिये सहस्रशः पदार्थ दिये हैं, तथापि हम जीव विकल ही रहते हैं । इसका कारण अनुद्योग है ॥८ ॥
विषय
सर्वप्रद प्रभु।
भावार्थ
हे ( शूर ) दुष्टों के नाशक ! हम लोग ( ते ) तेरे ( सखित्वम् ) मित्र भाव को ( विद्म ) जानें ( उत ) और हे ( वज्रिन् ) वीर्यवन् ! शक्तिशालिन् ! हम लोग ( ते ) तेरे ( ता ) वे नाना प्रकार के ऐश्वर्यं तथा ( भोज्यं ) भोग और पालन करने योग्य सुख, ऐश्वर्य तथा बल को ( ते ईमहे ) तुझ से मांगते और पाते हैं। हे ( वसो ) सबमें बसे ! सब जीवों को संसार में बसाने वाले ! ( उतो ) और हे ( सु-शिप्र ) उत्तम सुखप्रद तेज देनेहारे सुखमय स्वरूप ! तू ( गोमति वाजे ) इन्द्रियों से युक्त आत्मिक ऐश्वर्य, भूमि से युक्त ऐहिक ऐश्वर्य और वेद वाणी से युक्त ( अस्मिन् ) इस ज्ञान में ( नः ) हमें ( शम् आ शिशीहि ) अच्छी प्रकार अनुशासन कर, आशान्वित और सफल तेजस्वी बना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
प्रभु का 'सखित्वं-भोज्यम्'
पदार्थ
[१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (ते सखित्वम्) = आपकी मित्रता को उत तथा (भोज्यम्) = पालन के कारणभूत धन को (विद्म) = हम जानते हैं । हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! हम (ता) = उन सखित्व और धन को आ ईमहे सर्वथा याचित करते हैं। आपके सखित्व और और धन को प्राप्त करके ही हम जीवनयात्रा में सफलता से आगे बढ़ पायेंगे। [२] (उत) = और हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! हे (सुशिप्र) = शोभन शिरस्त्राणवाले प्रभो! ज्ञान के द्वारा मस्तिष्क का रक्षण करनेवाले प्रभो ! आप (उ) = निश्चय से (समस्मिन्) = सब (गोमति वाजे) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बल में (नः) = हमें (आशिशीहि) = समन्तात् तीक्ष्ण कीजिये। हमें प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बल को प्राप्त कराइये।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु की मित्रता व पालक धन को प्राप्त करें। प्रभु हमें प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बल को दें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of might, wielder of the thunderbolt of justice and power, we know and enjoy your love and friendship and your liberal provisions of life’s enjoyment, and the same we solicit of you. And we pray, O lord of the golden helmet, power and knowledge, giver of peace and settlement, establish us in this noble order of lands and cows, food and energy, knowledge and action and the holy life of freedom and happiness.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने जीवांच्या भोगासाठी हजारो पदार्थ दिलेले आहेत, तरीही जीव विकल होत असतो. याचे कारण अनुद्योग आहे. ॥८॥
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