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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 17
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - चित्रस्य दानस्तुतिः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्रो॑ वा॒ घेदिय॑न्म॒घं सर॑स्वती वा सु॒भगा॑ द॒दिर्वसु॑ । त्वं वा॑ चित्र दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । वा॒ । घ॒ । इत् । इय॑त् । म॒घम् । सर॑स्वती । वा॒ । सु॒ऽभगा॑ । द॒दिः । वसु॑ । त्वम् । वा॒ । चि॒त्र॒ । दा॒शुषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वा घेदियन्मघं सरस्वती वा सुभगा ददिर्वसु । त्वं वा चित्र दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । वा । घ । इत् । इयत् । मघम् । सरस्वती । वा । सुऽभगा । ददिः । वसु । त्वम् । वा । चित्र । दाशुषे ॥ ८.२१.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 17
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इयत्, मघम्) इयदिष्टपूर्त्यलम् धनम् (इन्द्र, वा, घेत्) इन्द्रः योद्धृपतिरेव (ददिः) ददाति (वा) अथवा (सुभगा, सरस्वती) कल्याणरूपा विद्यैव (वसु) धनं ददाति (वा) अथवा (चित्र) चायनीय राजपते सम्राट् ! (दाशुषे) दानशीलप्रजायै (त्वम्) त्वं दातुं शक्नुयाः ॥१७॥

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    विषयः

    परमात्मा बहुधनं ददातीति दर्शयति ।

    पदार्थः

    वा=अथवा किम् । इन्द्रो+घेत्=इन्द्र खलु । इयत्+मघम्=इयद्धनम् । दाशुषे=भक्तजनाय । ददिः=ददाति । वा=अथवा । सुभगाः+सरस्वती । इयद्वसुददिः । इति सन्देहे वक्ष्यमाणग्रन्थेन निश्चीयते । वा=अथवा । हे चित्र=हे आश्चर्य ! त्वमेव ददासि ॥१७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इयत्, मघम्) इष्टपूर्तियोग्य धन को (इन्द्रः, वा, घेत्) इन्द्र=योद्धाओं में परमैश्वर्यसम्पन्न सेनापति ही (ददिः) देता है (वा) अथवा (सुभगा, सरस्वती) कल्याणस्वरूपवाली विद्या ही (वसु) पर्याप्त धन देती है (वा) अथवा (चित्र) हे चयनीय=राजाओं के स्वामी सम्राट् ! (दाशुषे) दानशील प्रजा के लिये (त्वम्) आप ही देते हो ॥१७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह कथन किया है कि प्रजाओं के बड़े से बड़े उद्देश्यों के साधक तीन ही हो सकते हैं (१) सर्वोपकारक विद्या (२) योद्धाओं का स्वामी=सेनापति (३) सब छोटे-२ राजाओं का स्वामी सम्राट्, इसलिये जो प्रजाओं का हित चाहनेवाला सम्राट् है, उसको चाहिये कि वह अपने राष्ट्र में ऐसी विद्या उत्पन्न करे, जिससे प्रजाजन स्वतन्त्रता से अपने-२ कार्यों को स्वयं पूर्ण कर सकें अथवा ऐसा प्रजाहितैषी सेनापति नियत करे वा स्वयं ही उनके उद्देश्यों को सर्वदा पूर्ण करता रहे, जिससे वे लोग प्रसन्नता के साथ अपने सहायक हो सकें ॥१७॥

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    विषय

    परमात्मा बहुत धन देता है, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (वा) अथवा क्या (इद्रः+घ+इत्) इन्द्र ही (इयत्+मघम्) इतना धन (दाशुषे) भक्तजन को (ददिः) देता है (वा) अथवा (सुभगा+सरस्वती) अच्छी नदियाँ (वसु) इतना धन देती हैं, इस सन्देह में आगे कहते हैं (चित्र) हे आश्चर्य ईश्वर ! (दाशुषे) भक्तजन को (त्वा) तू ही धन देता है, (वा) यह निश्चय है ॥१७ ॥

    भावार्थ

    जहाँ नदियों और मेघों के कारण धन उत्पन्न होता है, वहाँ के लोग धनदाता ईश्वर को न समझ नदी आदि को ही धनदाता समझ पूजते हैं, इसका वेद निषेध करता है ॥१७ ॥

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    विषय

    सेनापति और वैद्यवत् स्त्री-पुरुषों का वर्णन।

    भावार्थ

    ( इह ) यहां ( दाशुषः ) आतिथ्यादि देने वाले के ( गृहंगन्तारा ) गृह पर जाने वाले, ( पुरु-भूतमा ) बहुतों के प्रति सद्भावना करने वाले, ( देवा ) उत्तम गुणों से अलंकृत ( त्या ) उन दोनों ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को ( अवसे ) उत्तम रूप से तृप्त, प्रसन्न करने के लिये, ( नमोभिः ) अन्नों और आदरयुक्त वचनों से ( सु करामहे ) सत्कार करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    इन्द्रः-सरस्वती

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु ('वा घा इत्') = ही निश्चय से (इयत् मघम्) = इतने धन को (ददिः) = देनेवाला होता है। (वा) = अथवा सरस्वती यह ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता (सुभगा) = हमारे लिये उत्तम ऐश्वर्यों का कारण बनती है। प्रभु की उपासना करते हुए जब हम ज्ञान के उपासक बनते हैं, तो हम ऐश्वर्यों को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। [२] हे (चित्र) = [चित्] ज्ञान के देनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (वा ही दाशुषे) = इस आत्मसमर्पण करनेवाले मनुष्य के लिये (वसु) = निवास के लिये आवश्यक उत्तम धनों के (ददिः) = देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें, स्वाध्याय में प्रवृत्त हों । प्रभु हमारे लिये सब आवश्यक धनों को प्राप्त करायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Is it Indra, ruling power of the mortal world, that gives so much wealth to the man of yajnic charity? Or is it Sarasvati, holy speech, abundant stream and dynamics of nature that gives so much wealth to the charitable humanity? Or is it you, Lord Supreme, sublime mystery of the world of existence, who give so much wealth to the liberal donor?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेथे नद्या व मेघांमुळे धन उत्पन्न होते तेथील लोक धनदाता ईश्वराला न समजता नदी इत्यादीलाच धनदाता समजून पूजा करतात, याचा वेद निषेध करतो. ॥१७॥

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