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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 47/ मन्त्र 15
    ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - आदित्या उषाश्च छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि॒ष्कं वा॑ घा कृ॒णव॑ते॒ स्रजं॑ वा दुहितर्दिवः । त्रि॒ते दु॒ष्ष्वप्न्यं॒ सर्व॑मा॒प्त्ये परि॑ दद्मस्यने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒ष्कम् । वा॒ । घ॒ । कृ॒णव॑ते । स्रज॑म् । वा॒ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । त्रि॒ते । दुः॒ऽस्वप्न्य॑म् । सर्व॑म् । आ॒प्त्ये । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निष्कं वा घा कृणवते स्रजं वा दुहितर्दिवः । त्रिते दुष्ष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये परि दद्मस्यनेहसो व ऊतय: सुतयो व ऊतय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निष्कम् । वा । घ । कृणवते । स्रजम् । वा । दुहितः । दिवः । त्रिते । दुःऽस्वप्न्यम् । सर्वम् । आप्त्ये । परि । दद्मसि । अनेहसः । वः । ऊतयः । सुऽऊतयः । वः । ऊतयः ॥ ८.४७.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 47; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O daughter of the light of dawn, heavenly revelation of wisdom, descent of divinity, all bad dreams and ambitions for the maker of gold ornaments or the maker of flower garlands, or in relation to the pride of body, mind and soul, we throw off. Sinless are your protections, holy your safeguards.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बुद्धीने विचार केला पाहिजे की स्वप्न काय वस्तू आहे? जेव्हा डोक्यात उष्णता वाढते तेव्हा निद्रा चांगली येत नाही. त्यावेळी लोक नाना स्वप्ने पाहतात. त्यासाठी मस्तक सदैव शीतल ठेवावे. पोट नेहमी शुद्ध ठेवावे. बल वीर्याने निरोगी ठेवावे. व्यसनात कधी फसू नये. कोणतेही भयंकर काम करू नये. या प्रकारच्या उपायांनी स्वप्ने कमी होतील. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे दिवो दुहितः ! प्रकाशस्य कन्ये बुद्धे ! यद्वा । हे उषः । वा=अथवा । निष्कमाभरणम् । कृणवते=कृतवते । वा=अथवा । स्रजं माल्यं कृतवते । मह्यं यद् दुःस्वप्न्यं जायते । तत्सर्वम् । आप्त्ये त्रिते । परिदद्मसि=स्थापयामः ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (दिवः+दुहितः) हे प्रकाशकन्ये बुद्धि देवि ! (वा) अथवा (निष्कम्) आभरण (कृणवते) धारण करनेवाले (वा) अथवा (स्रजम्) माला पहिननेवाले अर्थात् आनन्द के समय में भी मुझको जो दुःस्वप्न प्राप्त होता है, (तत्+सर्वम्+दुःस्वप्न्यम्) उस सब दुःस्वप्न को (आप्त्ये) व्याप्त (त्रिते) तीनों लोकों में (परि+दद्मसि) हम रखते हैं अर्थात् वह दुःस्वप्न इस विस्तृत संसार में कहीं जाए ॥१५ ॥

    भावार्थ

    बुद्धि से विचार करना चाहिये कि स्वप्न क्या वस्तु है । जब शिर में गरमी पहुँचती है, तब निद्रा अच्छी तरह नहीं होती । उस समय लोग नाना स्वप्न देखते हैं, इसलिये शिर को सदा शीतल रक्खे । पेट को सदा शुद्ध रक्खे । बल वीर्य्य से शरीर को नीरोग बनावे । व्यसन में कभी न फँसे । कोई भयंकर काम न करे । इस प्रकार के उपायों से स्वप्न कम होंगे ॥१५ ॥

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    विषय

    उन के निष्पाप सुखदायी रक्षा कार्यों का विवरण।

    भावार्थ

    हे ( दिवः दहितः ) प्रकाशवत् ज्ञान और सद् व्यवहार के देने वाली ! उषावत् प्रकाश करने हारी प्रभु-मातः ! ( वा ) और ( निष्कं कृणवते ) स्वर्णादि मुद्रा बनाने या धारने वाले ( वा स्रजं कृण्वते ) अथवा माला बनाने वा धारने वाले के लिये हुआ जो ( दुःष्वप्न्य ) बुरा स्वप्न वा विकार है (सर्वं) उस सबको (त्रिते आप्त्ये) तीनों कष्टों वा एषणाओं से मुक्त विद्वान् के अधीन रहकर हम (परि दद्मसि) दूर करें। सुवर्णादि आभूषण, माला आदि बनाने वाले वा धारने वाले को देखकर चित्त में दुर्विचार आवें तो विद्वान् जन के अधीन रहकर उस विकार का नाश करें, दृढ़व्रती होकर सुवर्णादि देखकर वा अलंकृत स्रक् चन्दन वनिता आदि देखकर स्वप्न में भी प्रलुब्ध न हों। ( अनेहसः० इत्यादि पूर्ववत् ) इति नवमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित आप्त्य ऋषिः॥ १-१३ आदित्यः। १४-१८ आदित्या उषाश्च देवताः॥ छन्द:—१ जगती। ४, ६—८, १२ निचृज्जगती। २, ३, ५, ९, १३, १६, १८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १०, ११, १७ स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। अष्टादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    धन व सौन्दर्य के आकर्षण से दूर

    पदार्थ

    [१] हे (दिवः दुहितः) = प्रकाश का पूरण करनेवाली उषे ! (निष्कं) = स्वर्ण आभूषणों को (वा घा) = निश्चय से (कृणवते) = बनानेवाले के लिए (वा) = अथवा (स्त्रजं) = माला को करनेवाले के लिए जो (दुःष्वप्न्यं) = अशुभ स्वप्न होता है। (सर्वं) = उस सबकी (त्रिते आप्त्ये) = काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाले विद्वान् की समीपता में (परि दद्मसि) = अपने से दूर करते हैं [ परेर्वर्जने] । [२] सुवर्णादि आभूषण व माला आदि धारण करनेवाले व्यक्ति को देखकर चित्त में जो दुर्विचार आते हैं, उन्हें (त्रित आप्त्यों) = को समीपता में नष्ट करें। दृढव्रती होकर सुवर्ण आदि देखकर व माला आदि से अलंकृत वनिताओं को देखकर स्वप्न में भी प्रलुब्ध न हों। हे देवो ! (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (अनेहसः) = हमें निष्पाप बनाते हैं। (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम काम-क्रोध-लोभ को जीतनेवाले आप्त विद्वानों के सामीप्य में रहकर स्वर्ण व मालाओं के आकर्षण से ऊपर उठ जाएँ। इनके विषय में ही हम स्वप्न न देखते रहें ।

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