ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 47/ मन्त्र 17
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - आदित्या उषाश्च
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथा॑ क॒लां यथा॑ श॒फं यथ॑ ऋ॒णं सं॒नया॑मसि । ए॒वा दु॒ष्ष्वप्न्यं॒ सर्व॑मा॒प्त्ये सं न॑यामस्यने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । क॒लाम् । यथा॑ । श॒फम् । यथा॑ । ऋ॒णम् । स॒म्ऽनया॑मसि । ए॒व । दुः॒ऽस्वप्न्य॑म् । सर्व॑म् । आ॒प्त्ये । सम् । न॒या॒म॒सि॒ । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा कलां यथा शफं यथ ऋणं संनयामसि । एवा दुष्ष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये सं नयामस्यनेहसो व ऊतय: सुतयो व ऊतय: ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । कलाम् । यथा । शफम् । यथा । ऋणम् । सम्ऽनयामसि । एव । दुःऽस्वप्न्यम् । सर्वम् । आप्त्ये । सम् । नयामसि । अनेहसः । वः । ऊतयः । सुऽऊतयः । वः । ऊतयः ॥ ८.४७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 47; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as we throw off a dead nail and a dead hoof, and just as we pay off a bad debt, similarly we throw off tall bad dreams of our whole world far away. O Adityas, O dawn of light, sinless are your protections, holy your safeguards.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराला प्रार्थना करावी की, त्याने (माणसाने) दु:स्वप्न पाहू नये. कारण त्याने हानी होते. याचा आशय असा की, आपले शरीर व मन असे स्वस्थ, शांत, निरोगी व प्रसन्न ठेवावे की, त्याने वाईट स्वप्न पाहू नये. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
मनुष्याः । यथा कलां=मृतनखं स्वाङ्गुल्याः । संनयामसि=अपसारयन्ति । यथा शफं मृतखुरमश्वादीनामपसारयन्ति । यथा च ऋणमपसारयन्ति । एव=तथैव । आप्त्ये त्रिते=यद् दुःस्वप्न्यं विद्यते । तत्सर्वं संनयामसि । अने० ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
मनुष्य (यथा) जैसे (कलाम्) अपनी अङ्गुली से मृत नख को कटवाकर (संनयामसि) दूर फेंक देते हैं, (यथा+शफम्) जैसे पशुओं के मृत खुर को कटवा कर अलग कर देते हैं अथवा (यथा) जैसे (ऋणम्) ऋण को दूर करते हैं, (एव) वैसे ही (आप्त्ये) व्यापक संसार में जो (दुःस्वप्न्यम्) दुःस्वप्न विद्यमान है, (सर्वम्) उस सबको (संनयामसि) दूर फेंक देते हैं ॥१७ ॥
भावार्थ
ईश्वर से प्रार्थना करे कि वह दुःस्वप्न न देखे, क्योंकि उससे हानि होती है । इसका आशय यह है कि अपने शरीर और मन को ऐसा स्वस्थ शान्त नीरोग और प्रसन्न बना रक्खे कि वह स्वप्न न देखे ॥१७ ॥
विषय
उन के निष्पाप सुखदायी रक्षा कार्यों का विवरण।
भावार्थ
( यथा ) जिस प्रकार हम ( कलां सं नयामसि ) काल की मात्रा को शनैः २ व्यतीत करते हैं, ( यथा शफं ) जिस प्रकार चरण को ( सं नयामसि ) समान रूप से आगे बढ़ाते हैं और (यथा ऋणं) जिस प्रकार अपने पर के ऋण या पराये धन को ( संनयामसि ) अच्छी प्रकार ईमानदारी से चुका देते हैं, (एवा) इसी प्रकार हम लोग भी ( आप्तये ) आप्त पुरुष के अधीन रहकर वा आप्त जनों में विद्यमान रहकर शनै: २ ( दुः-स्वप्न्यं सं नयामसि ) दुःस्वप्नादि बुरे प्रभावों को दूर करें।
टिप्पणी
( अनेहसः० इत्यादि पूर्ववत् )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित आप्त्य ऋषिः॥ १-१३ आदित्यः। १४-१८ आदित्या उषाश्च देवताः॥ छन्द:—१ जगती। ४, ६—८, १२ निचृज्जगती। २, ३, ५, ९, १३, १६, १८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १०, ११, १७ स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। अष्टादशर्चं सूक्तम्।
विषय
ऋण आदि की तरह अशुभ स्वप्न अपसारण
पदार्थ
[१] (यथा) = जैसे (कलां) = काल के एक-एक अवयव को हम (संनयामसि) = व्यतीत करते हैं, (यथा शफं) = जैसे एक-एक पद [चरण] को रखते हुए हम मार्ग को पार कर लेते हैं (यथ ऋणं) = जैसे थोड़ा-थोड़ा करके हम ऋण को समाप्त कर लेते हैं, (एवा) = इसी प्रकार (आप्त्ये) = विद्वान् पुरुष की समीपता में हम (सर्वं दुष्ष्वप्न्यं) = सब अशुभ स्वप्न को समाप्त करते हैं। धीरे-धीरे अपने जीवन को सुन्दर बनाते हुए अशुभ स्वप्नों से ऊपर उठते हैं। [२] हे देवो ! (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (अनेहसः) = हमें निष्पाप बनाते हैं। (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञानियों के सम्पर्क में थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते हुए उन्नत जीवनवाले बनकर अशुभ स्वप्नों से दूर हों ।
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