ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 47/ मन्त्र 5
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - आदित्याः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
परि॑ णो वृणजन्न॒घा दु॒र्गाणि॑ र॒थ्यो॑ यथा । स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑ण्यादि॒त्याना॑मु॒ताव॑स्यने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । नः॒ । वृ॒ण॒ज॒न् । अ॒घा । दुः॒ऽगाणि॑ । र॒थ्यः॑ । य॒था॒ । स्याम॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । शर्म॑णि । आ॒दि॒त्याना॑म् । उ॒त । अव॑सि । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि णो वृणजन्नघा दुर्गाणि रथ्यो यथा । स्यामेदिन्द्रस्य शर्मण्यादित्यानामुतावस्यनेहसो व ऊतय: सुतयो व ऊतय: ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । नः । वृणजन् । अघा । दुःऽगाणि । रथ्यः । यथा । स्याम । इत् । इन्द्रस्य । शर्मणि । आदित्यानाम् । उत । अवसि । अनेहसः । वः । ऊतयः । सुऽऊतयः । वः । ऊतयः ॥ ८.४७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 47; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as charioteers avoid difficult and impossible roads, so let sins and crimes go by, leaving us aside. Let us be in the homely protection of Indra and under the protective umbrella of the Adityas. O Adityas, free from sin and evil are your protections, noble and holy your safeguards.
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही सदैव ईश्वर, आचार्य, गुरू श्रेष्ठजन व धर्मात्मा सभासदांच्या सहवासात राहावे, ज्यामुळे पाप व संकट आमच्याजवळ येता कामा नये ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
यथा । रथ्यः=रथी । दुर्गाणि=दुर्गमान् दुष्टमार्गान् त्यजति । तथैव । नोऽस्मान् । अघा=अघानि पापानि । परि वृणजन्=परिवर्जयन्तु । त्यजन्तु । तदर्थम् । वयम् । इन्द्रस्य परमात्मनः सभापतेर्वा । शर्मणि । स्यामेत् स्यामैव । आदित्यानां सभासदानाम् । उत । अवसि=रक्षणे । स्याम ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(यथा) जैसे (रथ्यः) रथी=सारथी (दुर्गाणि) दुर्गम, ऊँच-नीच मार्गों को छोड़ देता है, तद्वत् (नः) हम मनुष्यों को (अघा) पाप रोग अकिंचनता इत्यादि क्लेश (परि+वृणजन्) छोड़ देवें अर्थात् हमारे निकट क्लेश न आने पावें, इसके लिये (इन्द्रस्य) परमात्मा या सभापति के (शर्मणि) मङ्गलमय शरण में (स्याम+इत्) सदा निवास करें तथा (आदित्यानाम्) सभासदों के (अवसि) रक्षण और साहाय्य में सदा स्थित रहें । (अनेहसः) इत्यादि पूर्ववत् ॥५ ॥
भावार्थ
हम लोग सदा ईश्वर आचार्य्य, गुण, श्रेष्ठजन तथा धर्मात्मा सभासदों के संगम में निवास करें, जिससे न पाप और न आपत्तियाँ हमारे निकट आवें ॥५ ॥
विषय
missing
भावार्थ
( यथा रथ्यः दुर्गाणि ) जिस प्रकार रथ में लगे अश्व दुर्गम स्थानों से बचाते हैं उसी प्रकार ( रथ्यः ) उत्तम उपदेश युक्त जन ( नः अघा परि वृणजन् ) हमारे पापों को दूर करें और हमारी पापों से रक्षा करें। हम लोग ( इन्द्रस्य शर्मणि इत् स्याम ) ऐश्वर्यवान् प्रभु के ही शरण में, उसके ही सुख में रहें ( उत ) और हम ( आदित्यानाम् अवसि ) सूर्य रश्मियों के तुल्य तेजस्वी पुरुषों की रक्षा में ( स्याम ) रहें। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित आप्त्य ऋषिः॥ १-१३ आदित्यः। १४-१८ आदित्या उषाश्च देवताः॥ छन्द:—१ जगती। ४, ६—८, १२ निचृज्जगती। २, ३, ५, ९, १३, १६, १८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १०, ११, १७ स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। अष्टादशर्चं सूक्तम्।
विषय
निष्पापता
पदार्थ
[१] (नः) = हमें (अघा) = पाप (परिवृणजन्) = सर्वथा छोड़ जाएँ, (यथा) = जैसे (रथ्यः) = रथ का वहन करनेवाले घोड़े (दुर्गाणि) = गड्ढे आदि विषम मार्गों को छोड़ जाते हैं । [२] हम (इत्) = निश्चय से (इन्द्रस्य) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु की (शर्मणि) = शरण में [ shelter] स्याम हों। (उत) = और (आदित्या-नाम्) = आदित्यों के (अवसि) = रक्षण में हों । हे आदित्यो ! (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (अनेहसः) = हमें निष्पाप बनाते हैं (वः) = आपके (ऊतयः) = रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।
भावार्थ
भावार्थ- आदित्यवृत्तियाँ व प्रभु की शरण हमें निष्पाप बनानेवाली हों।
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