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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कलिः प्रगाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    पू॒र्वीश्चि॒द्धि त्वे तु॑विकूर्मिन्ना॒शसो॒ हव॑न्त इन्द्रो॒तय॑: । ति॒रश्चि॑द॒र्यः सव॒ना व॑सो गहि॒ शवि॑ष्ठ श्रु॒धि मे॒ हव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्वीः । चि॒त् । हि । त्वे इति॑ । तु॒वि॒ऽकू॒र्मि॒न् । आ॒ऽशसः॑ । हव॑न्ते । इ॒न्द्र॒ । ऊ॒तयः॑ । ति॒रः । चि॒त् । अ॒र्यः । स॒व॒ना । व॒सो॒ इति॑ । ग॒हि॒ । शवि॑ष्ठ । श्रु॒धि । मे॒ । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वीश्चिद्धि त्वे तुविकूर्मिन्नाशसो हवन्त इन्द्रोतय: । तिरश्चिदर्यः सवना वसो गहि शविष्ठ श्रुधि मे हवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वीः । चित् । हि । त्वे इति । तुविऽकूर्मिन् । आऽशसः । हवन्ते । इन्द्र । ऊतयः । तिरः । चित् । अर्यः । सवना । वसो इति । गहि । शविष्ठ । श्रुधि । मे । हवम् ॥ ८.६६.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 50; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of infinite acts, shelter home of the universe, highest and omnipotent, all hopes of humanity, all protections and progress for them, past, present and future, rest in you and emanate from you. Hence all people invoke you and call on you for help. O master protector, listen to my call and come like radiations of light to our yajnas of divine adoration and soma creation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    संपूर्ण शुभकर्म करताना माणसाने परमेश्वराला विद्यमान समजून त्याची स्तुती प्रार्थना इत्यादी याप्रकारे करावी, की जणू परमात्मा त्याच्यासमोर बसलेला आहे. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे तुविकूर्मिन्=हे बहुकर्मन् ! हे महाशक्ते ! हे इन्द्र ! त्वे=त्वयि विद्यमानाः । आशसः=आशंसनानि=आशाः पूर्वीः चित्=पूर्णा एव सन्ति । तथा त्वयि । ऊतयः=रक्षा अपि पूर्णाः सन्तीति हेतोः । तदर्थम् । त्वां हवन्ते=आह्वयन्ति । अतः । अर्यः=श्रेष्ठस्त्वम् । तिरश्चित्= गुप्तरूपेणापि । सवना=सवनानि । आगहि=आगच्छ । हे वसो=वासक ! हे शविष्ठ=महाबलाधिदेव ! मे=मम । हवम्=निवेदनम् । श्रुधि=शृणु ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (तुविकूर्मिन्) हे बहुकर्म ! हे अनन्तकर्मा (इन्द्र) हे इन्द्र ! (त्वे) तुझमें (आशसः) विद्यमान आशाएँ (पूर्वीः+चित्) पूर्ण ही हैं, (ऊतयः) तुझमें रक्षाएँ भी पूर्णरूप से विद्यमान हैं, अतः आशा और रक्षा के लिये (हवन्ते) तुझको लोग बुलाते, पूजते और स्तुति गाते हैं । (हे वसो) हे सबको वास देनेवाले (शविष्ठ) हे महाशक्ते हे बलाधिदेव भगवन् ! (अर्य्यः) वह माननीय देव तू (तिरः+चित्) गुप्तरूप से भी (सवना+आगहि) हमारे यज्ञों में आ और (मे+हवम्) मेरे आह्वान, निवेदन, प्रार्थना आदि को (श्रुधि) सुन ॥१२ ॥

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    विषय

    भोजनवत् नियमानुसार भक्ति का विधान।

    भावार्थ

    हे ( तुवि-कूर्मन् ) बहुत से कर्म करने हारे ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वे ) तेरे अधीन ( पूर्वी: चित् हि ) पूर्ण, समृद्ध ( आशसः ) उत्तम स्तुतिशील प्रजाएं और ( ऊतयः ) रक्षक सेनाएं ( हवन्ते ) तेरी स्तुति करती हैं। तू ( अर्यः ) सबका स्वामी, ( तिरः चित् ) प्राप्त हुए ( सवना गहि ) ऐश्वर्य प्राप्त कर। हे ( वसो ) सबको बसाने हारे ! हे ( शविष्ठ ) अति शक्तिशालिन् ! तू ( मे हवं श्रुधि ) मेरे वचन, प्रार्थनादि श्रवण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    तुविकूर्मी प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (तुविकूर्मिन्) = महान् कर्मोंवाले प्रभो ! (पूर्वी:) = पालन व पूरण करनेवाले (आशसः) = आशंसन (चित् हि) = निश्चय से (त्वे) = आप में ही स्थित हैं। आपके आशंसन [स्तवन] हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (ऊतयः) = सब रक्षण (हवन्ते) = आपको ही पुकारते हैं। जब रक्षण की आवश्यकता होती है, तो सब कोई आपको ही पुकारता है। [२] हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (तिरः चित्) = तिरोहित होते हुए भी आप (अर्यः) = सबके स्वामी हैं। (सवना आगहि) = हमारे जीवनयज्ञों में आप प्राप्त होइए। हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् प्रभो ! (मे) = मेरी (हवं) = पुकार को (श्रुधि) = सुनिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के आशंसन हमारा पूरण करनेवाले हैं, प्रभु में ही सब रक्षण हैं, तिरोहित रूप से सर्वत्र विद्यमान वे प्रभु ही स्वामी हैं। वे हमारे जीवनयज्ञों में प्राप्त होते हैं। प्रभु हमारी पुकार को सुनते हैं और हमें बल प्राप्त कराते हैं।

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