ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 14
ऋषिः - कलिः प्रगाथः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं नो॑ अ॒स्या अम॑तेरु॒त क्षु॒धो॒३॒॑ऽभिश॑स्ते॒रव॑ स्पृधि । त्वं न॑ ऊ॒ती तव॑ चि॒त्रया॑ धि॒या शिक्षा॑ शचिष्ठ गातु॒वित् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒स्याः । अम॑तेः । उ॒त । क्षु॒धः । अ॒भिऽश॑स्तेः । अव॑ । स्पृ॒धि॒ । त्वम् । नः॒ । ऊ॒ती । तव॑ । चि॒त्रया॑ । धि॒या । शिक्ष॑ । श॒चि॒ष्ठ॒ । गा॒तु॒ऽवित् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अस्या अमतेरुत क्षुधो३ऽभिशस्तेरव स्पृधि । त्वं न ऊती तव चित्रया धिया शिक्षा शचिष्ठ गातुवित् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । अस्याः । अमतेः । उत । क्षुधः । अभिऽशस्तेः । अव । स्पृधि । त्वम् । नः । ऊती । तव । चित्रया । धिया । शिक्ष । शचिष्ठ । गातुऽवित् ॥ ८.६६.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 50; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 50; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord, pray you save us from this ignorance, hunger and want, and imprecation and calumny. You give us protection, enlighten us with your unique wisdom and understanding. O most potent master of the knowledge of the laws and paths of life, guide us on the paths of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
या ऋचेत अज्ञान, दरिद्रता व निंदेपासून बचावासाठी व रक्षण, साह्य आणि श्रेष्ठ बुद्धी प्राप्त करण्यासाठी शिकवण दिलेली आहे. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । नोऽस्मान् । अस्याः+अमतेः=अज्ञानात् । उत+क्षुधः=क्षुधायाः । उत । अभिशस्तेः=निन्दायाश्च । अवस्पृधि=अवसारय । त्वं नोऽस्मभ्यम् । ऊती=ऊतिं रक्षाम् । साहाय्यञ्च । शिक्ष=देहि । तथा । तव चित्रया धिया सह । शिक्ष । हे शविष्ठ बलाधिदेव ! यतस्त्वम् । गातुविदसि=मार्गविदसि ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (त्वम्) तू (नः) हम आश्रित जनों को (अस्याः+अमतेः) इस अज्ञान से (अवस्पृधि) अलग कर (उत+क्षुधः) और इस क्षुधा अर्थात् दरिद्रता से हमको पृथक् ले जा और (अभिशस्तेः) इस निन्दा से भी हमको दूर कर । हे भगवन् ! तू (नः) हमको (ऊती) रक्षा और सहायता (शिक्ष) दे तथा (तव) तू अपनी (चित्रया+धिया) आश्चर्य बुद्धि और क्रिया हमको दे । (शविष्ठ) हे बलाधिदेव महाशक्ते ! तू (गातुवित्) सर्व पाप और सर्वरीति जानता है ॥१४ ॥
भावार्थ
इस ऋचा में अज्ञान, दरिद्रता और निन्दा से बचने के लिये और रक्षा सहायता और श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त करने के लिये शिक्षा देते हैं ॥१४ ॥
विषय
मोक्ष की याचना।
भावार्थ
हे (शचिष्ठ) शक्तिशालिन् ! तू ( नः ) हमें ( अस्याः अमतेः ) अज्ञान, दारिद्र और ( क्षुधः ) भूख, तूष्णा, ( उत ) और ( अभिशस्तेः ) निन्दा से ( अव स्पृधि ) मुक्त कर। हे ( गातुवित् ) मार्गवित् ! उपायज्ञ, वाणी के जानने और प्राप्त कराने हारे ! ( त्वं ) तू (नः) हमें ( तव चित्रया ऊती ) तेरी अपनी आश्चर्यकारी रक्षा और ( धिया ) ज्ञान, कर्मशक्ति से ( शिक्ष ) ज्ञान प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'कलि' का निर्भय जीवन
पदार्थ
[१] हे (कलयः) = ज्ञान का (सम्यग्) = दर्शन करनेवाले तत्त्वज्ञानी पुरुषो! (इत्) = निश्चय से (सोमः) = सोम [वीर्य] (वः) = आपका (सुतः) = सम्पादित किया गया (अस्तु) = हो- आप शरीर में सोम का रक्षण करनेवाले बनो और (मा बिभीतन)=- सब प्रकार के भयों से ऊपर उठो। [२] सोम के रक्षण के होने पर (एषः) = यह (ध्वस्मा) = ध्वंसक (तत्त्व इत्) = निश्चय से (अप अयति) = दूर होता है । (एषः) = यह (घा) = निश्चय से स्वयं अपने आप ही (अप अयति) = दूर हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष सोम का रक्षण करते हैं। यह सोमरक्षण ही उन्हें निर्भय बनाता है। यही उनके जीवन से ध्वंसक तत्त्वों को दूर करता है। सब ध्वंसक तत्त्वों के दूर होने से इसका जीवन आनन्दमय होता है [मदी हर्षे], यह 'मत्स्य' कहलाता है। इसी आनन्दमयता के कारण यह 'सम्मद' का सन्तान व 'साम्मद' कहलाता है। सबका आदरणीय होने से 'मान्य' है। स्नेह व निर्देषता को अपनाने से 'मैत्रावरुणि' है। यह प्रार्थना करता है कि-
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