ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 6
सचा॒ सोमे॑षु पुरुहूत वज्रिवो॒ मदा॑य द्युक्ष सोमपाः । त्वमिद्धि ब्र॑ह्म॒कृते॒ काम्यं॒ वसु॒ देष्ठ॑: सुन्व॒ते भुव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसचा॑ । सोमे॑षु । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । मदा॑य । द्यु॒क्ष॒ । सो॒म॒ऽपाः॒ । त्वम् । इत् । हि । ब्र॒ह्म॒ऽकृते॑ । काम्य॑म् । वसु॑ । देष्ठः॑ । सु॒न्व॒ते । भुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सचा सोमेषु पुरुहूत वज्रिवो मदाय द्युक्ष सोमपाः । त्वमिद्धि ब्रह्मकृते काम्यं वसु देष्ठ: सुन्वते भुव: ॥
स्वर रहित पद पाठसचा । सोमेषु । पुरुऽहूत । वज्रिऽवः । मदाय । द्युक्ष । सोमऽपाः । त्वम् । इत् । हि । ब्रह्मऽकृते । काम्यम् । वसु । देष्ठः । सुन्वते । भुवः ॥ ८.६६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 49; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 49; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord all-invoked and adored, wielder and commander of thunder, clouds and mountains, light of life in heaven and on earth, connoisseur, protector and promoter of the soma joy of humanity, join and be with us in our yajnic creations of soma joy in action.
मराठी (1)
भावार्थ
सोम = संसार, पुरु = पुष्कळ, देष्ठ = दातृतम । ब्रह्मकृत् । ब्रह्म = स्तोत्र । परमात्मा । परमात्मा स्तोता व सत्कर्मी लोकांना खूप ऐश्वर्य देतो. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे पुरुहूत=पुरुभिर्बहुभिर्हूत ! आहूत=पूजित ! हे वज्रिवः=वज्रिवन् दण्डधर ! हे द्युक्ष=दिविक्षय ! द्युनिवासिन् ! हे सोमपाः=संसाररक्षक ! “सोमं संसारं पाति रक्षतीति” हे भगवन् ! सोमेषु=जगत्सु । मदाय=आनन्दाय । सचा सह भव । हे इन्द्र ! त्वमिद् हि=त्वमेव । ब्रह्मकृते=मन्त्रकृते । सुन्वते=यजते । काम्यं=कमनीयम् । वसु । देष्ठः=दातृतमः । भुवः=भवसि ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(पुरुहूत) हे बहुपूजित (वज्रिवः) हे दण्डधर (द्युक्ष) हे दिव्यलोकस्थ (सोमपाः) हे संसाररक्षक देव ! तू (मदाय) आनन्द के लिये (सोमेषु) जगतों में (सचा) सब पदार्थों के साथ निवास कर । हे इन्द्र ! (त्वम्+इत्+हि) तू ही (ब्रह्मकृते) स्तोत्ररचयिता को और (सुन्वते) शुभकर्मियों को (काम्यम्+वसु) कमनीय (वसु) धन (देष्ठः+भुवः) देनेवाला हो ॥६ ॥
भावार्थ
सोम=संसार । पुरु=बहुत । देष्ठ+दातृतमम् । ब्रह्मकृत् । ब्रह्म=स्तोत्र ॥६ ॥
विषय
सर्वोत्तम दाता प्रभु।
भावार्थ
( पुरु-हूत) बहुतों से स्तुति किये जाने योग्य ! हे ( वज्रिवः ) शक्तिशालिन् ! हे ( द्युक्ष ) कान्तिमन् ! हे ( सोमपाः ) जगत् वा राष्ट्र के पालक ! तू ( सोमेषु ) उत्पन्न जगत् के समस्त ऐश्वर्यों में ( सचा ) विद्यमान है। ( त्वम् इत् हि ) तू ही, ( ब्रह्म कृते ) स्तोता ( सुन्वते ) उपासक को ( काम्यं वसु देष्टः भुवः ) कामना करने योग्य धन का सर्वोत्तम दाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ब्रह्मकृते सुन्वते
पदार्थ
[१] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले, (वज्रिवः) = वज्रहस्त, (द्युक्ष) = ज्योति में निवास करनेवाले प्रभो! आप (सोमेषु) = सोमकणों के शरीर में सुरक्षित होने पर (सचा) = हमारे साथ होते हैं। सोमरक्षण द्वारा हम आप को प्राप्त करते हैं। वस्तुतः हे प्रभो! आप ही (सोमपाः) = हमारे सोम का रक्षण करते हो- आपके स्तवन से सोम का रक्षण करते हुए हम (मदाय) = उल्लास के लिए होते हैं। सुरक्षित सोम हमें उल्लसित जीवनवाला बनाता है। [२] (त्वम् इत् हि) = आप (ही) = निश्चय से (ब्रह्मकृते) = ज्ञान का सम्पादन करनेवाले (सुन्वते) = यज्ञशील पुरुष के लिए (काम्यं वसु) = कमनीय धन को (देष्ठः भुवः) = अधिक-से-अधिक देनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सोमरक्षण द्वारा हमारे जीवन को उल्लासमय बनाते हैं। ज्ञानी यज्ञशील पुरुष के लिए प्रभु ही कमनीय धनों को प्राप्त कराते हैं।
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