ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 4
निखा॑तं चि॒द्यः पु॑रुसम्भृ॒तं वसूदिद्वप॑ति दा॒शुषे॑ । व॒ज्री सु॑शि॒प्रो हर्य॑श्व॒ इत्क॑र॒दिन्द्र॒: क्रत्वा॒ यथा॒ वश॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठनिखा॑तम् । चि॒त् । यः । पु॒रु॒ऽस॒म्भृ॒तम् । वसु॑ । उत् । इत् । वप॑ति । दा॒शुषे॑ । व॒ज्री । सु॒ऽशि॒प्रः । हरि॑ऽअश्वः । इत् । क॒र॒त् । इन्द्रः॑ । क्रत्वा॑ । यथा॑ । वश॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
निखातं चिद्यः पुरुसम्भृतं वसूदिद्वपति दाशुषे । वज्री सुशिप्रो हर्यश्व इत्करदिन्द्र: क्रत्वा यथा वशत् ॥
स्वर रहित पद पाठनिखातम् । चित् । यः । पुरुऽसम्भृतम् । वसु । उत् । इत् । वपति । दाशुषे । वज्री । सुऽशिप्रः । हरिऽअश्वः । इत् । करत् । इन्द्रः । क्रत्वा । यथा । वशत् ॥ ८.६६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra who for the generous giver digs out and opens up abundant wealth deep buried, hidden and held in the earth, wields the thunderbolt of justice and award, and wears a golden vizor, commanding tempestuous forces, thus by his noble yajnic actions, does for us what he thinks right and pleases to do.
मराठी (1)
भावार्थ
तो (परमात्मा) सर्व प्रकारे हितकारक स्वतंत्र कर्ता आहे. त्यासाठी तोच एक उपास्य देव आहे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
तस्य महिमानं दर्शयति ।
पदार्थः
य इन्द्रः । दाशुषे=परोपकारिणे श्रद्धालये भक्तजनाय । निखातं+चिद्=भूम्यन्तर्निखातमपि । पुरुसंभृतम् । बहुसंचितम् । वसु+उद्=इतस्ततः धनम् । वपति+इत्= एव । स वज्री । सुशिप्रः=शिष्टजनसुपूरकः । हर्य्यश्वश्चेत् । हरिषु=हरणशीलेषु सूर्य्यादिषु । अश्वः=व्यापक एव । स इन्द्रः । यथा+वशत्=कामयते । तथैव । क्रत्वा=कर्मणा । करत्=करोति ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उसका महिमा दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(यः) जो परमात्मा (दाशुषे) परोपकारी श्रद्धालु और भजन को (निखातम्+चिद्) पृथिवी के अभ्यन्तर गाड़े हुए भी (पुरुसंभृतम्) बहुत संचित (वसु+उद्) धन अवश्य (वपति+इत्) देता ही है, जो (वज्री) न्यायदण्डधारी (सुशिप्रः) शिष्टजनभर्ता और (हर्य्यश्वः) सूर्य्य पृथिव्यादि में व्यापक ही है, वह (इन्द्रः) इन्द्र (यथा+वशत्) जैसा चाहता है, (क्रत्वा) कर्म से (करत्+इत्) वैसा करता ही है ॥४ ॥
भावार्थ
वह सब प्रकार हितकारी स्वतन्त्रकर्ता है, अतः वही एक उपास्यदेव है ॥४ ॥
विषय
सन्मार्ग - प्रवर्त्तक जगन्निर्माता प्रभु।
भावार्थ
(चित्) जिस प्रकार कोई ( निखातं पुरुसम्भृतं वसु उद्वपति ) बहुत सा एक स्थान पर गड़ा ख़ज़ाना खोद लेता है उसी प्रकार ( यः ) जो ( वज्री ) शक्तिमान्, (सु-शिप्रः) उत्तम मुख नासिका वाले वा उत्तम मुकुट वाले के समान सुरूप, सुज्ञानी, (हर्यश्व:) मनुष्यों को अश्वोंवत् सन्मार्ग पर चलाने हारा ( इन्द्रः ) वह प्रभु ( निखातं ) गाड़े (पुरु-सम्भृतं) इन्द्रियों वा बहुत सी प्रजाओं द्वारा सम्यक् प्रकार से धारित ( वसु ) ऐश्वर्य को ( दाशुषे ) भूमि से अन्न के समान उत्पन्न कर प्रदान करता है वही (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् प्रभु है, वह ( यथावशत् ) जैसा चाहता है वैसे ही ( क्रत्वा ) अपने ज्ञान और धर्मसामर्थ्य से ( करतू ) जगत् का निर्माण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
दाश्वान् को प्रभु देते हैं
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए दानशील पुरुष के लिए (निखातं चित्) = भूमि में गड़े हुए भी (पुरु संभृतं) = खूब ही सञ्चित (वसु) = धन को (इत्) = निश्चय से (उद्वपति) = उखाड़कर प्राप्त करते हैं। दाश्वान् को धन की कमी नहीं रहती। [२] वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (वज्री) = वज्रहस्त हैं-दुष्टों के लिए हाथ में वज्र लिये हुए हैं। (सुशिप्रः) = शोभन शिरस्त्राणवाले हैं। (हर्यश्वः) = तेजस्वी इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले हैं। वे प्रभु (यथा वशत्) = जैसा चाहते हैं वैसा ही (क्रत्वा) = प्रज्ञान व शक्ति से (करत्) = करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-दाश्वान् पुरुष के लिए प्रभु भूमि में गड़े खानों में स्वर्ण आदि तथा खेतों में अन्नरूप धन को प्राप्त करते हैं। दुष्टों को दण्डित करते हुए वे प्रभु प्रज्ञान व शक्ति से सब बातों को ठीक प्रकार करनेवाले हैं।
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