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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 15
    ऋषिः - कलिः प्रगाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सोम॒ इद्व॑: सु॒तो अ॑स्तु॒ कल॑यो॒ मा बि॑भीतन । अपेदे॒ष ध्व॒स्माय॑ति स्व॒यं घै॒षो अपा॑यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोमः॑ । इत् । वः॒ । सु॒तः । अ॒स्तु॒ । कल॑यः । मा । बि॒भी॒त॒न॒ । अप॑ । इत् । ए॒षः ध्व॒स्मा । अ॒य॒ति॒ । स्व॒यम् । घ॒ । ए॒षः । अप॑ । अ॒य॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोम इद्व: सुतो अस्तु कलयो मा बिभीतन । अपेदेष ध्वस्मायति स्वयं घैषो अपायति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमः । इत् । वः । सुतः । अस्तु । कलयः । मा । बिभीतन । अप । इत् । एषः ध्वस्मा । अयति । स्वयम् । घ । एषः । अप । अयति ॥ ८.६६.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 50; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O budding scholars and sages, let the soma of hope and joy be distilled and poured for you. Fear not. This terror and destruction is going away. Self- destroyed, it is going away, vanishing of itself.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही सदैव शुभकर्म करा. ज्यामुळे तुमचे सर्व भय दूर होईल व शोक, मोह इत्यादी क्लेशही तुम्हाला प्राप्त होणार नाहीत. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे कलयः=हे कलाविदः ! यद्वा हे कर्तारः कर्मणाम् ! वः=युष्माकं गृहे । सोमः=प्रियो मधुरश्च पदार्थः । सुतः+इत्=सम्पादितोऽस्तु । मा बिभीतन=भीता मा भवत । यतः एषः+ध्वस्मा=ध्वंसकः । शोकादि अपायति+इत्=अपगच्छत्येव । एषः । स्वयं+घ=स्वयमेव । अपायति ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (कलयः) हे कलाविदों यद्वा हे शुभकर्मकर्त्तारो ! (वः) तुम्हारे गृहों में (सोमः) प्रिय रसमय और मधुर पदार्थ और सोमयज्ञ (सुतः+इत्) सम्पादित होवे । (मा+बिभीतन) तुम मत डरो, क्योंकि ईश्वर की कृपा से (एषः+ध्वस्मा) यह ध्वंसक शोक मोह आदि (अपायति+इत्) जा रहे हैं (एषः) यह (स्वयम्+घ) स्वयं ही (अपायति) दूर भाग रहा है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! तुम सदा शुभकर्म करो, जिनसे तुम्हारे सर्व भय दूर हो जाएँगे और शोक मोह आदि क्लेश भी प्राप्त न होंगे ॥१५ ॥

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    विषय

    अभय-आश्वासन।

    भावार्थ

    हे ( कलयः ) उक्त ज्ञानवान् कर्मशील पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का ( सोमः ) ज्ञान और ऐश्वर्य ( सुतः अस्तु ) सदा उत्पन्न होता रहे। आप लोग ( मा विभीतन ) भय मत करो। ( एषः ) यह ज्ञान के उदय होने पर तेज से अन्धकारवत् ( अप ध्वस्मायति इत् ) स्वयं नष्ट हो जाता है, ( स्वयं घ एषः अपायति ) वह आप ही दूर हो जाता है। इति पञ्चाशत्तमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'दारिद्र्य - भूख- निन्दा' से बचाव

    पदार्थ

    [१] हे (शचिष्ठ) = शक्तिशालिन् प्रभो ! (त्वं) = आप (नः) = हमें (अस्या:) = इस (अमते:) = [Poverty] दारिद्र्य से (उत) = और (क्षुधः) = भूख से तथा (अभिशस्ते:) = निन्दा से (अवस्पृधि) = पृथक् करिये। [२] हे प्रभो! आप ही (गातुवित्) = मार्ग को जाननेवाले हैं। सो (त्वं) = आप (नः) = हमें (ऊती) = रक्षण के हेतु से (तव) = आपकी (चित्रया धिया) = ज्ञान को देनेवाली बुद्धि से (शिक्षा) = शिक्षित करिये व शक्तिशाली बनाने की कामना कीजिए। आपसे उत्तम बुद्धि को पाकर हम अपना रक्षण कर पाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें दारिद्र्य, भूख व निन्दा से बचाएँ। वह मार्ग का ज्ञान देनेवाले प्रभु हमें चेतना देनेवाली बुद्धि को प्राप्त कराके शिक्षित करें।

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