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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कलिः प्रगाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यद्वा॒वन्थ॑ पुरुष्टुत पु॒रा चि॑च्छूर नृ॒णाम् । व॒यं तत्त॑ इन्द्र॒ सं भ॑रामसि य॒ज्ञमु॒क्थं तु॒रं वच॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । व॒वन्थ॑ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । पु॒रा । चि॒त् । शू॒र॒ । नृ॒णाम् । व॒यम् । तत् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सम् । भ॒रा॒म॒सि॒ । य॒ज्ञम् । उ॒क्थम् । तु॒रम् । वचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वावन्थ पुरुष्टुत पुरा चिच्छूर नृणाम् । वयं तत्त इन्द्र सं भरामसि यज्ञमुक्थं तुरं वच: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ववन्थ । पुरुऽस्तुत । पुरा । चित् । शूर । नृणाम् । वयम् । तत् । ते । इन्द्र । सम् । भरामसि । यज्ञम् । उक्थम् । तुरम् । वचः ॥ ८.६६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent universally adored and exalted, as you wish and want of humanity at the earliest in the beginning of creation, that we honour, abide and do without doubt or delay, the yajna, songs of adoration, word and worship all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे कोणी ईश्वरीय नियमाप्रमाणे चालतात त्यांनी या ऋचेद्वारे प्रार्थना करावी. त्याने जी जी कर्तव्ये सांगितलेली आहेत त्यांचा विद्वान लोक जसा निर्वाह करतात तसा आम्हीही करावा. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे पुरुष्टुत=बहुभिः स्तुत=सर्वैः स्तुत ! हे शूर ! पुरा+चित्=सृष्ट्यादौ । नृणां=मनुष्याणां कर्तव्यविषये । यद् यद् वस्तु यं यं नियमञ्च । ववन्थ=अचीकमथाः । हे इन्द्र ! ते तत् । तुरं=तूर्णं वयमिदानीमपि । संभरामसि=संभरामः । किं किम् । यज्ञम् । उक्थम् । वचः । इत्यादि ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (पुरुष्टुत) हे बहुस्तुत (शूर) महावीर ईश ! (पुरा+चित्) पूर्वकाल में सृष्टि की आदि में तूने (नृणाम्) मनुष्यों के कर्तव्य के विषय में (यत्+ववन्थ) जो-जो कामना की, जो-जो नियम स्थापित किया, (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ते+तत्) तेरी उस-उस वस्तु को और उस-उस नियम को (तुरम्) शीघ्र (वयम्) हम यज्ञ (उक्थम्) स्तोत्र (वचः) सत्यवचन इत्यादि नियम का पालन करते हैं, अतः हमारी रक्षा कर ॥५ ॥

    भावार्थ

    जो कोई ईश्वरीय नियम पर चलते हैं, वे इस ऋचा द्वारा प्रार्थना करें । उसने जो-जो कर्तव्य चलाए हैं, उनको विद्वान् जैसे निवाहते हैं, हम भी उनका निर्वाह करें ॥५ ॥

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    विषय

    सन्मार्ग - प्रवर्त्तक जगन्निर्माता प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( पुरु-स्तुत ) बहुतों से स्तुति योग्य ! हे ( शूर ) दुष्टों के नाशक ! तू ( पुरा चित्) पूर्ववत् अब भी ( नृणां यद् वावन्थ ) मनुष्यों के निमित्त जो चाहता है हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( वयं ) हम ( तत् ते ) वह तेरे लिये ( यज्ञम् उक्थं वचः ) यज्ञ, उत्तम वचन ( तुरं संभरामसि ) अति शीघ्र करें। इत्यष्टाचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    यज्ञ व स्तोत्र

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुष्टुत) = पालक व पूरक स्तुतिवाले (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (यद् वावन्थ) = जो चाहते हैं। वह (नृणां) = मनुष्यों के (पुराचित्) = पालन व पूरण की दृष्टि से ही चाहते हों । [२] (तत्) = सो हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (वयं) = हम (ते) = आपके लिए (तुरं) = शीर्घ ही (यज्ञं) = यज्ञ को तथा (उक्थं वचः) = स्तुतिवचनों को (संभरामसि) = सम्यक् भृत करते हैं। इन यज्ञों व स्तोत्रों के द्वारा हम आपके प्रिय बन पाते हैं। यज्ञों से हम, भोगासक्त होने से बचे रहते हैं, तथा ये स्तोत्र हमारे सामने जीवन के लक्ष्य को उपस्थित करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सदा हमारे पालन व पूरण को चाहते हैं। हम यज्ञों व स्तोत्रों द्वारा प्रभु के प्रिय बनते हैं।

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