ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 3
यः श॒क्रो मृ॒क्षो अश्व्यो॒ यो वा॒ कीजो॑ हिर॒ण्यय॑: । स ऊ॒र्वस्य॑ रेजय॒त्यपा॑वृति॒मिन्द्रो॒ गव्य॑स्य वृत्र॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठयः । श॒क्रः । मृ॒क्षः । अश्व्यः॑ । यः । वा॒ । कीजः॑ । हि॒र॒ण्ययः॑ । सः । ऊ॒र्वस्य॑ । रे॒ज॒य॒ति॒ । अप॑ऽवृतिम् । इन्द्रः॑ । गव्य॑स्य । वृ॒त्र॒ऽहा ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शक्रो मृक्षो अश्व्यो यो वा कीजो हिरण्यय: । स ऊर्वस्य रेजयत्यपावृतिमिन्द्रो गव्यस्य वृत्रहा ॥
स्वर रहित पद पाठयः । शक्रः । मृक्षः । अश्व्यः । यः । वा । कीजः । हिरण्ययः । सः । ऊर्वस्य । रेजयति । अपऽवृतिम् । इन्द्रः । गव्यस्य । वृत्रऽहा ॥ ८.६६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra who is mighty of action, pure and purifying, great achiever, and wondrous rich in wealth and golden grace, who shakes off the erosion of land fertility and cattle wealth and augments produce and prosperity, destroyer of want, ignorance and evil as he is.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्वशक्तिमान व शुद्ध इत्यादी गुणांनी भूषित आहे. त्यासाठी तोच माणसांचा कीर्तनीय, स्मरणीय व पूजनीय आहे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
यः । शक्रः=सर्वशक्तिमान् । मृक्षः=शुद्धः । अश्व्यः=व्यापकः “अशू व्याप्तौ” यो वेन्द्रः । कीजः=कीर्तनीयः । हिरण्ययः= हितो रमणीयश्च । स इन्द्रः । ऊर्वस्य= अतिविस्तीर्णस्य । गव्यस्य=गतियुक्तस्य जगतः । अपवृतिम्=बाधाम् । रेजयति=कम्पयति । निवारयतीत्यर्थः । यतः स वृत्र हेति प्रसिद्धः ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(यः) जो परमात्मा (शक्रः) सर्वशक्तिमान् (मृक्षः) शुद्ध और (अश्व्यः) व्यापक है (यः+वा) और जो (कीजः) कीर्तनीय (हिरण्ययः) हित और रमणीय है (सः) वह (ऊर्वस्य) अतिविस्तीर्ण (गव्यस्य) गतिमान् जगत् की (अपवृतिम्) निखिल बाधाओं को (रेजयति) दूर किया करता है, क्योंकि जो (वृत्रहा) वृत्रहा=निखिल विघ्ननिवारक नाम से प्रख्यात है ॥३ ॥
भावार्थ
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् व शुद्धादि गुण भूषित है, अतः वही मनुष्यों का कीर्तनीय, स्मरणीय और पूजनीय है ॥३ ॥
विषय
गोरूप वाणियों के आवरण को दूर करने वाला इन्द्र प्रभु।
भावार्थ
( यः ) जो ( शक्रः ) शक्तिशाली, ( मृक्षः ) अति शुद्ध ( अश्व्यः ) सर्वव्यापक है, ( यः वा ) जो (कीज:) अद्भुत, ( हिरण्ययः ) हित रमणीयस्वरूप, तेजोमय है ( सः ) वह ( ऊर्वस्य ) बहुत बड़े ( गव्यस्य ) वाणीसमूह रूप वेद के ( आवृतिम् ) आवरण को ( अप रेजयति ) दूर करता है, वही ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यवान्, ( वृत्रहा ) सब दुष्टों और विघ्नों का नाश करने हारा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'शक्र हिरण्यय' प्रभु
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (शक्रः) सर्वशक्तिमान् हैं, (मृक्षः) = अतिशयेन शुद्ध हैं, (अश्व्यः) = उत्तम इन्द्रियाश्वों के देनेवाले हैं, वा अथवा (यः) = जो (कीज:) = [किम् इदानीं जातः] अद्भुत (हिरण्यय) = हितरमणीय ज्योतिवाले हैं। [२] (सः) = वे (इन्द्रः) = सर्वशत्रुसंहारक प्रभु वृत्रहा = वासनाओं को विनष्ट करने वाले हैं। ये प्रभु ही (उर्वस्य गव्यस्य) = हमें पापों से बचानेवाले वेदरूप ज्ञान की वाणियों के समूह की (आवृतिम्) = आवृति को (अपरेजयति) = कम्पित करके दूर करते हैं, अर्थात् हमारे लिए इन ज्ञान की वाणियों के समूह को प्रकट करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु शक्तिमान्, शुद्ध उत्तम इन्द्रियाश्वों के दाता व अद्भुत ज्योतिर्मय हैं। वे वासना को विनष्ट करके हमारे लिए वेदवाणियों के समूह प्रकट करते हैं।
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