ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 10
तं त्वा॑ य॒ज्ञेभि॑रीमहे॒ तं गी॒र्भिर्गि॑र्वणस्तम । इन्द्र॒ यथा॑ चि॒दावि॑थ॒ वाजे॑षु पुरु॒माय्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । य॒ज्ञेभिः॑ । ई॒म॒हे॒ । तम् । गीः॒ऽभिः । गि॒र्व॒णः॒ऽत॒म॒ । इन्द्र॑ । यथा॑ । चि॒त् । आवि॑थ । वाजे॑षु । पु॒रु॒ऽमाय्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा यज्ञेभिरीमहे तं गीर्भिर्गिर्वणस्तम । इन्द्र यथा चिदाविथ वाजेषु पुरुमाय्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । त्वा । यज्ञेभिः । ईमहे । तम् । गीःऽभिः । गिर्वणःऽतम । इन्द्र । यथा । चित् । आविथ । वाजेषु । पुरुऽमाय्यम् ॥ ८.६८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord most adorable, we honour you by yajnas of corporate research and development, and we adore you in many languages as you guide, advance and protect the man of knowledge in our human endeavours for new achievements and further advances.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्व अवस्थेत ज्ञानी लोकांचा बचाव करतो. त्यासाठी ज्ञानग्रहणाचा अभ्यास केला पाहिजे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे गिर्वणस्तम=गीर्भिः स्तुतिभिः प्रशंसनीयतम इन्द्र ! तं सर्वत्र सुविख्यातम् । त्वा=त्वाम् । यज्ञेभिः=यज्ञैर्यागैः । ईमहे=मार्गयामः । गीर्भिः=स्वस्ववचनैश्च तं त्वां स्तुमः । हे इन्द्र ! त्वम् । यथाचित्=येन केनापि प्रकारेण । वाजेषु=संग्रामेषु । पुरुमाय्यम्=बहुमायम्=बहुज्ञानयुक्तं पुरुषम् । सदा त्वमाविथ=रक्षसि ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(गिर्वणस्तम) हे अतिशय स्तुतिस्तवनीय हे स्तोत्रप्रियतम देव ! (तम्+त्वाम्) जो तू सर्वत्र प्रसिद्ध और व्यापक है, उस तुझको (यज्ञैः) विविध शुभकर्मों के अनुष्ठान द्वारा (ईमहे) याचते और खोजते हैं । हे भगवन् ! (तम्) उस तुझको (गीर्भिः) स्व-स्व भाषाओं के द्वारा स्तुति करते हैं । (इन्द्र) हे निखिलैश्वर्य्यसम्पन्न महेश ! जिस कारण तू (यथाचित्) जिस किसी प्रकार से (वाजेषु) इन सांसारिक संग्रामों में (पुरुमाय्यम्) बहुज्ञानी पुरुष को अवश्य और सदा (आविथ) बचाता और सहायता देता है ॥१० ॥
भावार्थ
सर्व अवस्था में ज्ञान ही जन को बचाता है, अतः ज्ञानग्रहण का अभ्यास करना चाहिये ॥१० ॥
विषय
उसकी रतुति और प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( गिर्वणस्तम इन्द्र ) वाणी द्वारा अतिस्तुत्य प्रभो ! ( यथाचित् वाजेषु ) जिस प्रकार संग्रामों में तू ( पुरु-माय्यं ) बहुत मतिमान् और बहुतों में आज्ञापक की (आविथ ) रक्षा करता है, ( तं त्वा ) उस तुझ को ( गीर्भिः यज्ञेभिः ) वाणियों और यज्ञों द्वारा ( ईमहे ) स्तुति करें। इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञेभिः=गीर्भिः
पदार्थ
[१] हे (गिर्वणस्तम) = ज्ञान की वाणियों से अधिक-से-अधिक संभजनीय प्रभो ! (तं त्वा) = उन आपको हम (यज्ञेभिः) = यज्ञों के द्वारा तथा (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (ईमहे) = याचना करते हैं। यज्ञों व ज्ञानवाणियों के द्वारा आपकी उपासना करते हैं। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं के विद्रावक प्रभो ! आप (पुरुमाय्यम्) = [बहुप्रज्ञं बहुस्तुतिं वा ] बहुत प्रज्ञावाले व स्तुतिवाले उपासक को (वाजेषु) = संग्रामों में (यथाचिद्) = जिस प्रकार से निश्चयपूर्वक आविथ रक्षित करते हैं। यह 'पुरुमाय्य' आपकी रक्षा को प्राप्त करता ही है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञों व ज्ञान की वाणियों द्वारा प्रभु का उपासन करें। प्रभु संग्रामों में हमारा रक्षण करेंगे।
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