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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भिष्ट॑ये स॒दावृ॑धं॒ स्व॑र्मीळ्हेषु॒ यं नर॑: । नाना॒ हव॑न्त ऊ॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भिष्ट॑ये । स॒दाऽवृ॑धम् । स्वः॒ऽमीळ्हेषु । यम् । नरः॑ । नाना॑ । हव॑न्ते । ऊ॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिष्टये सदावृधं स्वर्मीळ्हेषु यं नर: । नाना हवन्त ऊतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिष्टये । सदाऽवृधम् । स्वःऽमीळ्हेषु । यम् । नरः । नाना । हवन्ते । ऊतये ॥ ८.६८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I pray to Indra, ever more munificent in human struggles for light, happiness and welfare, whom people invoke and adore in many ways for protection and progress and for the fulfilment of their cherished objects and ambitions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याचे महान यश सर्वजण गात आहेत. आम्हीही सदैव त्याची उपासना करावी. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    नरः=नराः । स्वर्मीळहेषु=संग्रामेषु=जीवनसमरेषु । अभिष्टये=स्वस्वकल्याणाय । यं सदावृधम्=वर्षयितारम् ईश्वरम् । ऊतये=साहाय्यार्थञ्च । नाना=बहुप्रकारम् । हवन्ते=शब्दायते=स्तुवन्तीत्यर्थः । तमहं स्तौमि ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (नरः) मनुष्य (यम्+सदावृधम्) जिस सदा बढ़ाने सदा सुख पहुँचानेवाले और सदा जगत्पोषक ईश्वर की (स्वर्मीळहेषु) संकटों, सुखों और जीवन-यात्रा में (अभिष्टये) स्वमनोरथ सिद्धि के लिये और (ऊतये) साहाय्य के लिये (नाना) विविध प्रकार (हवन्ते) स्तुति, पूजा, पाठ और कीर्तिगान करते हैं, उसको मैं भी भजता हूँ ॥५ ॥

    भावार्थ

    उसका महान् यश है, जिसको सब ही गा रहे हैं । हम भी सदा उसी की उपासना करें ॥५ ॥

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    विषय

    राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    ( यं ) जिस (सदावृधं) सदा बढ़ाने वाले को ( स्वः-मीढेषु ) संग्रामों में ( नाना नरः) नाना नायक जन ( ऊतये ) रक्षा और भृति के लिये ( हवन्ते ) प्रमुख स्वीकार करते हैं। इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अभिष्टये-ऊतये

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार मैं उस प्रभु को पुकारता हूँ (यं) = जिस (सदावृध) = सदा से बढ़े हुए तथा उपासकों को बढ़ानेवाले प्रभु को (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्य (अभिष्टये) = इष्ट प्राप्ति के लिए (हवन्ते) = पुकारते हैं। [२] इस प्रभु को ही (स्वर्मीढेषु) = स्वर्ग के साधनभूत संग्रामों में (ऊतये) = रक्षण के लिए (नाना) = पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में स्थित लोग नाना प्रकार से (हवन्ते) = पुकारते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारी इष्टप्राप्ति के लिए होते हैं। प्रभु ही संग्रामों में हमें विजयी बनाते हैं।

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