ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 11
यस्य॑ ते स्वा॒दु स॒ख्यं स्वा॒द्वी प्रणी॑तिरद्रिवः । य॒ज्ञो वि॑तन्त॒साय्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । स्वा॒दु । स॒ख्यम् । स्वा॒द्वी । प्रऽनी॑तिः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । य॒ज्ञः । वि॒त॒न्त॒साय्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते स्वादु सख्यं स्वाद्वी प्रणीतिरद्रिवः । यज्ञो वितन्तसाय्य: ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । स्वादु । सख्यम् । स्वाद्वी । प्रऽनीतिः । अद्रिऽवः । यज्ञः । वितन्तसाय्यः ॥ ८.६८.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of the clouds of shower, knowledge and wealth, delightful is your association, exciting is your guidance. The yajna of corporate action and advance ment must go on.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराच्या प्रेम भक्तीने कसा आनंद प्राप्त होतो हे योगी, ध्यानी व ज्ञानीच अनुभवू शकतात. त्याचे प्रेम मधुमय आहे. हे माणसांनो! त्याची भक्ती करा. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे ईश ! यस्य+ते=तव । सख्यं=सखित्वम् । स्वादु=रसवद्वर्तते । हे अद्रिवः=हे संसारकर्तः ! तव प्रणीतिः=प्रणयनं जगतः । स्वाद्वी=मधुमती । अतस्त्वां स्तोतुम् । यज्ञः शुभकर्म । वितन्तसाय्यः=विस्तारणीयः ॥११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे ईश ! (यस्य+ते) जिस तेरी (सख्यम्) मैत्री (स्वादु) अत्यन्त प्रिय और रसवती है । (अद्रिवः) हे संसारोत्पादक ! (प्रणीतिः) तेरी जगद्रचना भी (स्वाद्वी) मधुमयी है । इस कारण तेरी स्तुति प्रार्थना के लिये (यज्ञः) शुभकर्म (वितन्तसाय्यः) अवश्य और सदा कर्तव्य और विस्तारणीय है ॥११ ॥
भावार्थ
ईश्वर के साथ प्रेम या भक्ति से क्या आनन्द प्राप्त होता है, इसको कोई योगी ध्यानी और ज्ञानी ही अनुभव कर सकते हैं, उसका प्रेम मधुमय है । हे मनुष्यों ! उसकी भक्ति करो ॥११ ॥
विषय
उसकी रतुति और प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( यस्य ते ) जिस तेरा ( सख्यं स्वादु ) मित्रभाव अति सुख प्रद, और ( प्रणीतिः स्वाद्वी ) जिसकी उत्तम नीति भी अति सुख देने वाली है वह तू ( यज्ञः ) उपासना योग्य और ( वितन्त-साय्यः ) विशेष रूप से एकाग्र चित्त से ध्यान करने योग्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
स्वादु सख्यम्
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! अथवा वज्रहस्त प्रभो ! (यस्य ते) = जिन आपको (सख्यं) = मित्रता (स्वादु) = जीवन को मधुर बनानेवाली है, उन आपका (प्रणीतिः) = प्रणयन- हमें आगे ले चलने का मार्ग भी (स्वाद्वी) = मधुर है। आप हमें मधुरता से ही उन्नति पथ पर ले चलते हैं। [२] हमें (यज्ञः) = आपकी उपासना ही (वितन्तसाय्यः) [विशेषेण तननीय:] = विशेष रूप से करनी चाहिए। आपका उपासन ही वस्तुतः हमें मधुर व उन्नत जीवनवाला बनाएगा।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की मित्रता मधुर है उनका प्रणयन भी मधुर है। सो हमें प्रभु का ही उपासन विशेषरूप से करना योग्य है।
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