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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वोता॑स॒स्त्वा यु॒जाप्सु सूर्ये॑ म॒हद्धन॑म् । जये॑म पृ॒त्सु व॑ज्रिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाऽऊ॑तासः । त्वा । यु॒जा । अ॒प्ऽसु । सूर्ये॑ । म॒हत् । धन॑म् । जये॑म । पृ॒त्ऽसु । व॒ज्रि॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वोतासस्त्वा युजाप्सु सूर्ये महद्धनम् । जयेम पृत्सु वज्रिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाऽऊतासः । त्वा । युजा । अप्ऽसु । सूर्ये । महत् । धनम् । जयेम । पृत्ऽसु । वज्रिऽवः ॥ ८.६८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of thunderous energy and power, protected by you and in close association with you, we pray, we may discover great wealth in the waters and in the sun and win far reaching victories in our battles of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याला मी बरेच दिवस पाहावे या प्रकारची प्रार्थना आढळून येते; परंतु (अप्सु = सूर्ये ) जलात मी शंभर वर्षे स्नान करावे अशा प्रकारची प्रार्थना अत्यंत कमी वेळा केलेली आहे. जलवर्षणाची प्रार्थना अधिक आहे. अप्सु = याचा अर्थ जलनिमित्तही होऊ शकतो. भारवासीयांना ग्रीष्म ऋतूत जलस्नानाचे सुख माहीत आहे. सृष्टीत जसे सूर्य इत्यादी अद्भुत पदार्थ आहेत तसेच जलही आहे. आपल्या शुद्ध आचरणाने आयू इत्यादी धन वाढवावे. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे ईश ! हे वज्रिवः ! त्वोतासः=त्वया रक्षिताः सन्तः । त्वा=त्वया । युजा=सहायेन च । अप्सु=जले स्नातुम् । तथा । सूर्य्ये=सूर्य्यनिमित्तम् । सूर्य्यं द्रष्टुमित्यर्थः । पृत्सु=जीवनसंग्रामेषु । महद्धनम्=विज्ञानरूपं धनम् । जयेम ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वज्रिवः) हे दुष्टनिग्राहक हे शिष्टानुग्राहक परमन्यायी महेश ! हम प्रजाजन (त्वोतासः) तुझसे सुरक्षित होकर और (त्वा+युजा) तुझ सहाय के साथ (अप्सु) जल में स्नानार्थ और (सूर्य्ये) सूर्य्यदर्शनार्थ (पृत्सु) इस जीवन-यात्रा रूप महासंग्राम में (महत्+धनम्) आयु, ज्ञान, विज्ञान, यश, कीर्ति, लोक, पशु इत्यादि और अन्त में मुक्तिरूप महाधन (जयेम) प्राप्त करें ॥९ ॥

    भावार्थ

    अप्सु+सूर्य्ये=सूर्य्य को मैं बहुत दिन देखूँ, इस प्रकार की प्रार्थना बहुधा आती है, परन्तु जल में शतवर्ष स्नान करूँ, इस प्रकार की प्रार्थना बहुत स्वल्प है । परन्तु जलवर्षण की प्रार्थना अधिक है । अतः अप्सु=इसका अर्थ जलनिमित्त भी हो सकता है । भारतवासियों को ग्रीष्म ऋतु में जल-स्नान का सुख मालूम है और सृष्टि में जैसे सूर्य्य आदि अद्भुत पदार्थ हैं, तद्वत् जल भी है । अपने शुद्ध आचरण से आयु आदि धन बढ़ावें ॥९ ॥

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    विषय

    उसकी रतुति और प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे ( वज्रिवः ) वीर्यशालिन् ! ( त्वा उतासः ) तेरे से सुरक्षित और ( त्वा युजा ) तेरे से सहायवान् होकर हम ( अप्सु सूर्ये ) अन्तरिक्ष और सूर्य के समान प्रजा और सूर्यवत् राजा के अधीन रहकर ( पृत्सु ) संग्रामों में ( महद् धनम् जयेम ) बड़ा धनलाभ विजय करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अप्सु सूर्ये

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रिवः) = क्रियाशीलतारूप वज्र [वज गतौ] को हाथ में लिये हुए प्रभो ! (त्वा ऊतासः) = आपके द्वारा रक्षित हुए हुए हम (त्वायुजा) = आप साथी के साथ (अप्सु) = रेत: कणरूप जलों के सुरक्षित होने पर अथवा कर्मों के होने पर और (सूर्ये) = ज्ञानसूर्य का उदय होने पर (पृत्सु) = संग्रामों में (महद्धनम्) = महान् धन को (जयेम) = जीतनेवाले हों। [२] प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम क्रियाशील हों और ज्ञान का खूब संचय करें। ऐसी स्थिति में ही हम वासनाओं को संग्राम में जीत पाएँगें और महान् धन का विजय करेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे इन्द्र ! तुझ से रक्षित होकर हम तेरी सहायता प्राप्त करके यज्ञ कर्मों को करें तथा संग्रामों में बहुत सारे धन को जीतें ।

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