ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 14
ऋषिः - प्रियमेधः
देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उप॑ मा॒ षड्द्वाद्वा॒ नर॒: सोम॑स्य॒ हर्ष्या॑ । तिष्ठ॑न्ति स्वादुरा॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । मा॒ । षट् । द्वाऽद्वा॑ । नरः॑ । सोम॑स्य । हर्ष्या॑ । तिष्ठ॑न्ति । स्वा॒दु॒ऽरा॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप मा षड्द्वाद्वा नर: सोमस्य हर्ष्या । तिष्ठन्ति स्वादुरातय: ॥
स्वर रहित पद पाठउप । मा । षट् । द्वाऽद्वा । नरः । सोमस्य । हर्ष्या । तिष्ठन्ति । स्वादुऽरातयः ॥ ८.६८.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In the ecstasy of soma joy and exhilaration of achievement, six in twos come to me, leading lights they are, abundant and delightful are their gifts and contributions.
मराठी (1)
भावार्थ
षट् = नयन इत्यादी इंद्रियांची संख्या सहा (दोन डोळे, दोन कान, नासिकाची दोन छिद्रे) आहे, त्याबरोबरच (द्वा) दोन-दोन आहेत. त्यासाठी मंत्रात ‘षट्’ व ‘द्वा द्वा’ पदे आलेली आहेत. ही इंद्रिये जरी सर्वांना प्राप्त झालेली आहेत तरी विशेष पुरुषच यांच्या गुणांना व कार्यांना सुपरिचित असतात व क्वचितच यांच्यापासून वास्तविक कार्य घेतात. ईश्वराच्या कृपेने ज्यांची इंद्रिये यथार्थ नायक व दानी असतात तेच पुरुष धन्य होत. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कृतज्ञतां प्रकाशयति ।
पदार्थः
तस्येश्वरस्य कृपया । सोमस्य=सोमोपलक्षितान्नस्य । हर्ष्या=हर्षेण । शरीरस्यान्नमयत्वात् तद्भक्षणेनेत्यर्थः । द्वा द्वा=द्वौ द्वौ मिलित्वा । स्वादुरातयः=स्वादुदानाः । षट्-द्वे नयने । द्वे नासिके । द्वौ कर्णौ । इमे षट् । नरः स्वस्व-विषयनेतारः । इन्द्रियरूपाः । मा=माम् । उपतिष्ठन्ति= प्राप्नुवन्ति ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
यहाँ से आगे कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं ।
पदार्थ
उस ईश्वर की कृपा से (सोमस्य+हर्ष्या) सोम के हर्ष से (द्वा+द्वा) दो-दो मिल के (षट्) छै दो नयन, दो नासिकाएँ और दो कर्ण ये छः प्रकार के इन्द्रिय (मा+उपतिष्ठन्ति) मुझे प्राप्त हैं, जो (नरः) अपने-अपने विषयों के नायक और शासक हैं । पुनः (स्वादुरातयः) जिनके दान स्वादिष्ट हैं ॥१४ ॥
भावार्थ
षट्=नयन आदि इन्द्रिय संख्या में छै हैं, परन्तु साथ ही (द्वा) दो-दो हैं । अतः मन्त्र में “षट्” और “द्वा-द्वा” पद आए हैं । ये इन्द्रियगण यद्यपि सबको मिले हैं, तथापि विशेष पुरुष ही इनके गुणों और कार्य्यों से सुपरिचित हैं और विरले ही इनसे वास्तविक काम लेते हैं । ईश्वर की कृपा से जिनके इन्द्रियगण यथार्थ नायक और दानी हैं, वे ही पुरुष धन्य हैं ॥१४ ॥
विषय
आत्मा के ६ नर ६ इन्द्रिय गण।
भावार्थ
( द्वा-द्वा ) दो दो करके ( षड् नरः ) छः नायक ( सोमस्य हर्ष्या ) ऐश्वर्य प्राप्ति के हर्ष से मानो सुप्रसन्न, ( स्वादु-रातयः ) सुखप्रद दानों से युक्त होकर ( मा उप तिष्ठन्ति ) मेरे पास उपस्थित होते हैं। अर्थात् ‘सोम’ वा वीर्य की रक्षा से उत्पन्न हर्ष, सुख, आनन्द से हृष्ट पुष्ट जोड़े जोड़े ६ नायक आंख, नाक, कान उत्तम सुस्वादु ज्ञान, बल प्रदान करते हुए मुझ आत्मा को प्राप्त हैं। दो दो के जोड़े मिलकर छः —आँखें, दो, नाकें दो, कान दो, ये उत्तम अन्न रस से पुष्ट होकर उत्तम ज्ञान देते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
षड् स्वादुरातयः
पदार्थ
[१] 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन सप्तर्षियों में 'दो कान, दो नासिका छिद्र तथा दो आँखें'- ये दो के तीन युग्म हैं। ये सब ('नरः') [नृ नये] = हमें आगे और आगे ले चलनेवाले हैं। ये (द्वाद्वा) = दो-दो के तीन युग्म, इस प्रकार (षड्-छः नरः) = उन्नति पथ पर ले चलनेवाले ऋषि (मा उप तिष्ठन्ति) = मेरे समीप स्थित होते हैं। प्रभु के अनुग्रह से ये ६ ऋषि हमें प्राप्त हुए हैं। [२] (सोमस्य) = सोमरक्षण से उत्पन्न (हर्ष्या) = हर्ष से ये ऋषि स्वादुरातयः = जीवन को मधुर बनानेवाले ज्ञान को देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने हमें 'दो कान, दो आँख, दो नासिकाछिद्र और मुख' ये सात ऋषि प्राप्त कराए हैं। सोमरक्षण से हृष्ट (हृषत) हुए - हुए ये ऋषि मधुर ज्ञान को हमारे लिए प्राप्त कराते हैं।
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