ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 19
ऋषिः - प्रियमेधः
देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
न यु॒ष्मे वा॑जबन्धवो निनि॒त्सुश्च॒न मर्त्य॑: । अ॒व॒द्यमधि॑ दीधरत् ॥
स्वर सहित पद पाठन । यु॒ष्मे इति॑ । वा॒ज॒ऽब॒न्ध॒वः॒ । नि॒नि॒त्सुः । च॒न । मर्त्यः॑ । अ॒व॒द्यम् । अधि॑ । दी॒ध॒र॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न युष्मे वाजबन्धवो निनित्सुश्चन मर्त्य: । अवद्यमधि दीधरत् ॥
स्वर रहित पद पाठन । युष्मे इति । वाजऽबन्धवः । निनित्सुः । चन । मर्त्यः । अवद्यम् । अधि । दीधरत् ॥ ८.६८.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O brotherly team of dynamic workers and winners in the battles of life, no mortal even addicted to malignity and scandal can foist any blame or censure on you.
मराठी (1)
भावार्थ
हे शुद्ध इन्द्रियांचे वर्णन आहे. ज्यांची इन्द्रिये शुद्ध व विज्ञानयुक्त आहेत, ते धन्यवादास पात्र आहेत. ॥१९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे वाजबन्धवः=वाजेन विज्ञानान्नेन सुबद्धा बन्धुभूता इन्द्रियपुरुषाः । युष्मे=युष्मासु । निनित्सुः । चन=निन्दाभ्यासी अपि मर्त्यः । अवद्यं=निन्दां दोषञ्च । नाधि दीधरत्=अधिस्थापयति ॥१९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(वाजबन्धवः) हे विज्ञानरूप अन्न से परस्पर बद्ध बन्धुभूत इन्द्रिय पुरुषो ! (युष्मे) तुममें (निनित्सुः+चन) निन्दाभ्यासी (मर्त्यः+चन) जन भी (अवद्यम्) निन्दा या अपराध (न+अधि+दीधरत्) स्थापित नहीं करता ॥१९ ॥
भावार्थ
यह शुद्ध इन्द्रियों का वर्णन है । जिनके इन्द्रिय शुद्ध और विज्ञानयुक्त हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं ॥१९ ॥
विषय
नियुक्त जनों को उपदेश कि कोई भी निन्दनीय कर्म न करें।
भावार्थ
हे ( वाजबन्धवः ) राष्ट्र में ऐश्वर्य और अन्नादि वेतनों पर बंधे नियुक्त पुरुषो ! ( युष्मे ) तुम लोगों में से कोई भी ( मर्त्यः निनित्सुः चन ) निन्दा करने वाला होकर ( अवद्यम् न अधि दीधरत्) निन्दनीय कार्य, दुष्ट फल को न धारण करे। अर्थात् कोई भी परस्पर की निन्दा वा बुरा काम न करे। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
निरवद्य जीवन
पदार्थ
[१] गतमन्त्रों के अनुसार उत्तम इन्द्रियाश्वों व बुद्धि को धारण करनेवाले हे (वाजबन्धवः) = उत्तम भोजन व शक्ति को अपने साथ जोड़नेवाले पुरुषो! (युष्मे) = तुम्हारे में (निनित्सुः चन मर्त्यः) = निन्दा करने की इच्छावाला पुरुष भी (अवद्यम्) = पाप को (न अधि दीधरत्) = नहीं धारण कर पाता है। [२] तुम्हारा जीवन इस प्रकार प्रशस्त होता है कि तुम्हारे निन्दक भी तुम्हारी निन्दा नहीं कर पाते।
भावार्थ
भावार्थ- सरल इन्द्रियाश्वों व आरोचमान बुद्धि को धारण करके हम इस प्रकार प्रशस्त जीवनवाले बनें कि हमारे शत्रु भी हमारी निन्दा न कर सकें। इस प्रकार निरवद्य जीवनवाले बनकर हम 'प्रियमेध' बनें। हमें 'यज्ञ व मेधा' ही प्रिय हो । यह प्रियमेध ही अगले सूक्त का ऋषि हैं-
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