ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
यस्य॑ ते महि॒ना म॒हः परि॑ ज्मा॒यन्त॑मी॒यतु॑: । हस्ता॒ वज्रं॑ हिर॒ण्यय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । म॒हि॒ना । म॒हः । परि॑ । ज्मा॒यन्त॑म् । ई॒यतुः॑ । हस्ता॑ । वज्र॑म् । हि॒र॒ण्यय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते महिना महः परि ज्मायन्तमीयतु: । हस्ता वज्रं हिरण्ययम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । महिना । महः । परि । ज्मायन्तम् । ईयतुः । हस्ता । वज्रम् । हिरण्ययम् ॥ ८.६८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra who are infinitely great by virtue of your omnipotence, your hands wield the thunderbolt of justice and golden grace which reaches everywhere over the universe.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्मायन्तम् = ज्मा = पृथ्वी. येथे हा शब्द उपलक्षक आहे. अर्थात केवळ पृथ्वीवरच नाही तर जो सर्वत्र व्यापक आहे. वज्र = जगात जो ईश्वरीय नियम व्यापक आहे त्यालाच वेदात वज्र व अद्रि इत्यादी म्हणतात. त्याच नियमांनी सर्वजण अनुग्रह व निग्रह प्राप्त करत आहेत. हस्त = त्याला हात, पाय, देह इत्यादी नाहीत तरीही माणसाच्या बोधासाठी या प्रकारचे वर्णन येते (विश्वतश्चक्षुरूत ॥ इत्यादी मंत्र पाहा). याचा भाव असा की या जगात ईश्वराने असे नियम स्थापित कलेले आहेत की जे न पाळल्यामुळे प्राणी स्वत: दंड प्राप्त करतात. त्यासाठी हे माणंसानो! त्याची प्रार्थना करा व त्याच्या नियमांचे पालन करा. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
महः=महतो महस्विनश्च । यस्य ते । हस्ता=हस्तौ ताविव कर्मशक्ती । महिना=महत्त्वेन । वज्रम्=नियमदण्डम् । परि+ईयतुः=प्राप्नुतः=धत्तः । कीदृशम् । ज्मायन्तम् । ज्मा पृथिवी । उपलक्षणमेतत् । सर्वव्याप्तम् । पुनः । हिरण्ययम् । हितं रमणीयं च ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे ईश ! (महः) महान् और महातेजस्वी (यस्य+ते) जिस तेरे (हस्ता) हाथ (महिना) अपने महत्त्व से (वज्रम्) नियमरूप दण्ड (परि+ईयतुः) को धारण किए हुए हैं, जो वज्र (ज्मायन्तम्) सर्वव्यापक है और (हिरण्ययम्) जो हित और रमणीय है ॥३ ॥
भावार्थ
ज्मायन्तम्=ज्मा=पृथिवी । यहाँ यह शब्द उपलक्षक है अर्थात् केवल पृथिवी पर ही नहीं कि जो सर्वत्र व्यापक है । वज्र=संसार में जो ईश्वरीय नियम व्यापक है, उसी को वेद में वज्र और अद्रि आदि कहते हैं । उन ही नियमों से सब अनुग्रह और निग्रह पा रहे हैं । हस्त=उसके हाथ पैर, देह आदि नहीं है, तथापि मनुष्य के बोध के लिये इस प्रकार का वर्णन आता है । विश्वतश्चक्षुरुत ॥३ ॥
टिप्पणी
मन्त्र देखिये । भाव इसका यह है कि इस संसार में ईश्वर ने ऐसे नियम स्थापित किये हैं कि जिनको न पालने से प्राणी स्वयं दण्ड पाते रहते हैं । अतः हे नरो ! उसकी प्रार्थना करो और उसके नियमों को पालो ॥
विषय
बलशाली।
भावार्थ
(यस्य ते) जिस तेरे ( हस्ता ) दोनों हाथ ( महिना ) महान् शक्ति से युक्त होकर ( महे: ) बड़े ( ज्यायन्तं ) भूमि तक व्यापने वाले ( हिरण्यम् ) तेजोमय ( वज्रं ) वीर्यवत् शस्त्र को ( परि ईयतुः ) वश करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
हिरण्ययं वज्रम्
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार वे आप अपनी महिमा से सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं (यस्य) = जिन (महः) = महान् (ते) = आपके (हस्ता) = हाथ (महिना) = अपनी महिमा से (ज्यायन्तं) = पृथिवी में सर्वत्र व्याप्त होते हुए (हिरण्ययं वज्रं) = ज्योतिर्मय वज्र को (परि ईयतुः) = चारों ओर गतिवाला करते हैं। [२] (वज्रहस्त) = प्रभु अपने वज्र के द्वारा दुष्टों को दण्डित करते हुए हमारे भय का निवारण करते हैं। प्रभु के दण्ड से कोई भी पापी छूट नहीं सकता। यह प्रभु की अचूक दण्ड-व्यवस्था ही हम सबके सन्तोष व शान्ति का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अपने ज्योतिर्मय-दीप्त-वज्र से दुष्टों को दण्डित करते हुए हमारा रक्षण करते हैं।
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